ओह रे ताल मिले नदी के जल में

by प्रवीण पाण्डेय

किसी स्थान की प्रसिद्धि जिस कारण से होती है, वह कारण ही सबके मन में कौंधता है, जब भी उस स्थान का उल्लेख होता है। यदि पहली बार सुना हो उस स्थान का नाम, तो हो सकता है कि कुछ भी न कौंधे। आपके सामाजिक या व्यावसायिक सन्दर्भों में उस स्थान की प्रसिद्धि के भिन्न भिन्न कारण भी हो सकते हैं। आपको अनेकों सन्दर्भों के एक ऐसे स्थान पर ले चलता हूँ, जो संभवतः आपने पहले न सुने हों, मेरी ही तरह।
रेलवे पृष्ठभूमि में, बरुआ सागर का उल्लेख आने का अर्थ है, उन पत्थरों की खदानें जिन के ऊपर पटरियाँ बिछा कर टनों भारी ट्रेनें धड़धड़ाती हुयी दौड़ती हैं। बहुत दिनों तक वही चित्र उभरकर आता रहा उस स्थान का, कठोर चट्टानों से भरा एक स्थान, रेलपथों का कठोर आधार। किसी भी विषय या स्थान को एक ही सत्य से परिभाषित कर देना उसके साथ घोर अन्याय होता अतः अन्य कोमल पक्षों का वर्णन कर लेखकीय धर्म का निर्वाह करना आवश्यक है।
स्टेशन की सीमाओं से बाहर पग धरते ही, अन्य पक्ष उद्घाटित होते गये, एक के बाद एक। सन 860 में बलुआ पत्थरों से निर्मित जराई का मठ प्रतिहार स्थापत्य कला का एक सुन्दर उदाहरण है, खजुराहो के मन्दिरों के पूर्ववर्ती, एक लघु स्वरूप में पूर्वाभास।
बड़े क्षेत्र में फैले कम्पनी बाग के पेड़ों को देखकर, प्रकृति के सम्मोहन में बँधे से बढ़े बरुआ सागर किले की ओर। तीन शताब्दियों पहले राजा उदित सिंह के द्वारा बनवाया किला, लगभग 50-60 मीटर की चढ़ाई के बाद आया मुख्य द्वार। 1744 में मराठों और बुन्देलों के बीच इसी क्षेत्र के आसपास युद्ध हुआ था। किले के द्वार से पूरा क्षेत्र हरी चादर ओढ़े, विश्राम करता हुआ योगी सा लग रहा था।
किले के ऊपर पहुँचकर जो दृश्य देखा, उसे सम्मोहन की पूर्णता कहा जा सकता है। एक विस्तृत झील, जल से लबालब भरी, चलती हवा के संग सिहरन व्यक्त कर बतियाती, झील के बीच बना टापू रहस्यों के निमन्त्रण लिये। तभी हवा का एक झोंका आता है, ठंडा, झील का आमन्त्रण लिये हुये, बस आँख बंद कर दोनों हाथ उठा उस शीतलता को समेट लेने का मन करता है, गहरी साँसों में जितना भी अन्दर ले सकूँ। किले के सबसे ऊपरी कक्ष में यही अनुभव घनीभूत हो जाता है और बस मन करता रहता है कि यहीं पर बैठे रहा जाये, जब तक अनुभव तृप्त न हो जाये।
यही कारण रहा होगा, बरुआ सागर को झाँसी की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का। जब ग्रीष्म में सारा बुन्देलखण्ड अग्नि में धधकता होगा, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के विरुद्ध उमड़ी क्रोध की अग्नि को यहीं पर योजनाओं का रूप देती होंगी। स्थानीय निवासियों ने बताया कि किस तरह रानी और उनकी सशस्त्र दासियाँ बैठती थीं इस कक्ष के आसपास।
बहुत लोगों को यह तथ्य ज्ञात न हो कि प्रसिद्ध गीतकार इन्दीवर बरुआ सागर के ही निवासी थे। इस झील का एक महत योगदान रहा है कई दार्शनिक और सौन्दर्यपरक गीतों के सृजन में। सफर, उपकार, पूरब और पश्चिम, सरस्वतीचन्द्र जैसी फिल्मों के गीत लिखने वाले इन्दीवर का जो गीत मुझे सर्वाधिक अभिभूत करता है, स्थानीय निवासी बताते हैं कि वह इसी झील के किनारे बैठकर लिखा गया।
ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में……
छोटे से इस गीत में न जाने कितने गहरे भाव छिपे हैं। यह स्थान उन गहरे भावों को बाहर निकाल लेने की क्षमता में डूबा हुआ है, आपको बस खो जाना है झील के विस्तार में, झील की गहराई में। यदि यहाँ पर आ कवि की कविता न फूट जाये तो शब्द आश्चर्य में पड़ जायेंगे।
यह भी बताया गया कि एक पूर्व मुख्यमन्त्री इस प्राकृतिक मुग्धता को समेट लेने बहुधा आते थे। 1982 के एशियाड की कैनोइंग प्रतियोगिताओं के लिये इस झील को भी संभावितों की सूची में रखा गया था।
स्थापत्य, इतिहास, साहित्य और पर्यटन के इतने सुन्दर स्थल को देश के ज्ञान में न ला पाने के लिये पता नहीं किसका दोष है, पर एक बार घूम लेने के बाद आप अपने निर्णय को दोष नहीं देंगे, यह मेरा विश्वास है।
 
हम उत्तर दक्षिण के बीच कितनी बार निकल जाते हैं, बिना रुके। एक बार झाँसी उतर कर घूम आईये बरुआ सागर, बस 24 किमी है, दिनभर में हो जायेगा।

जराई का मठ
राहुलजी द्वारा वर्णित व सुब्रमण्यमजी द्वारा प्रदत्त मठ के द्वार का चित्र

झील का धरती से मिलन

बसे टापू के रहस्यमयी भाव

प्रकृति यहाँ एकान्त बैठ

झील पर बैठकर गाया गीत