न दैन्यं न पलायनम्

श्रेणी: पर्यटन

काबिनी

घना जंगल, न आसमान का नीलापन, न धरती पर सोंधा रंग, न कोई सीधी रेखा, न ही दृष्टि की मुक्तक्षितिज पहुँच, संग चलता आच्छादित एक छाया मंडल, छिन्नित प्रकाश को भी अनुमति नहीं, बस हरे रंग के सैकड़ों उपरंगों से सजी प्रकृति की अद्भुत चित्तीकारी, रंग कुछ हल्के, कुछ चटख, कुछ खिले, पर सब के सब, बस हरे। हरी चादर ओढ़े प्रकृति का श्रंगार इतना घनीभूत होता जाता है कि संग बहती हुयी शीतल हवा का रंग भी हरा लगने लगता है। बहती हवा को अपनी सिहरनों से रोकने का प्रयास करती झील अपनी गहराई में ऊँचे शीशम वृक्षों के प्रतिबिम्ब समेटे हरीतिमा चादर सी बिछी हुयी है।
घना जंगल, गहरी झील, बरसती फुहारें, शीतल बयार, पूर्ण मादकता से भरा वातावरण।
मैं स्वप्न में नहीं, काबिनी में हूँ।
काबिनी बाँध की विशाल जलराशि और जंगल

मैसूर से 80 किमी दक्षिण की ओर, केरल की सीमा से 20 किमी पहले, काबिनी नदी पर बने बाँध ने घने जंगल के बीच 22 वर्ग किमी की एक विशाल जलराशि निर्मित की है और साथ में दिया है न जाने कितने जीव जन्तुओं को एक प्राकृतिक अभयारण्य, निश्चिन्त सा जीवन बिताने के लिये, विकास की कलुषित छाया से सुरक्षित, मनमोहक और रमणीय।

बंगलोर से सुबह 6 बजे निकल कर 11 बजे पहुँचने के बाद जंगल के बीचों बीच बने अंग्रेजों के द्वारा निर्मित कक्ष में जब स्वयं को पाया तो यात्रा की थकान न केवल उड़न छू हो गयी वरन एक उत्साह सा जाग गया, प्रकृति की गोद में निश्छल खेलने का, न टीवी, न फोन, बस प्रकृति से सीधा संवाद। बच्चे तो पल भर के लिये भी नहीं रुके और बाहर जाकर खेलने लगे। थोड़ी ही देर में हम सब निकल पड़े, जीप सफारी में जंगल की सैर करने। 
जंगल के बीच 3 घंटे की जीपसफारी में इंजन की सारी आवृत्तियाँ स्पष्ट सुनायी पड़ती हैं और जीप रुकने पर आपकी साँसों की भी। बीच बीच में जंगल के जीव जन्तुओं के संवाद में अटकती आपकी कल्पनाशक्ति, साथ में चीता या हाथी के सामने आने का एक अज्ञात भय और उनकी एक झलक पा जाने के लिये सजग आँखें। चीता यद्यपि नहीं दिखा पर उसके पंजों को देख कर उस राजसी चाल की कल्पना अवश्य हो गयी थी।
रात्रि में भोजन के पहले एक वृत्तचित्र दिखाया गया जिसमें मानव की अन्ध विकासीय लोलुपता और अस्पष्ट सरकारी प्रयासों के कारणों से लुप्त हो रहे चीतों की दयनीय दशा का मार्मिक चित्रण था।
सुबह 6 बजे से 3 घंटे की बोटसफारी में हमने पक्षियों की न जाने कितनी प्रजातियाँ देखी, झील के जल में पानी पीते और क्रीड़ा करते जानवरों के झुण्ड देखे, पेड़ों से पत्तियाँ तोड़ते स्वस्थ हाथियों का समूह देखा, धूप सेकने के लिये बाहर निकला एक मगर देखा। बन्दर, हिरन, मोर, जंगली सुअर, चील, गिद्ध, नेवले और न जाने कितने जीव जन्तु हर दृश्य में उपस्थित रहे।
वातावरण तो वहाँ पर कुछ और दिन ठहरकर साहित्य सृजन करने का था, पर प्रशासनिक पुकारों ने वह स्वप्न अतिलघु कर दिया। वहाँ के परिवेश से पूर्ण साक्षात्कार अभी शेष है।  
वन आधारित पर्यटन की एक सशक्त व्यावसायिक उपलब्धि है, जंगल लॉज एण्ड रिसॉर्ट। वन के स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुये, मानवों को उस परिवेश में रच बस जाने का एक सुखद अनुभव कराता है यह उपक्रम। वन विभाग के अधिकारियों द्वारा संचालित इस स्थान का भ्रमण अपने आप में एक विशेष अनुभव है और संभवतः इसी कारण से इण्टरनेट पर संभावित पर्यटकों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय भी है।
न जाने क्यों लोग विदेश भागते हैं घूमने के लिये, काबिनी घूमिये।  

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ओह रे ताल मिले नदी के जल में

किसी स्थान की प्रसिद्धि जिस कारण से होती है, वह कारण ही सबके मन में कौंधता है, जब भी उस स्थान का उल्लेख होता है। यदि पहली बार सुना हो उस स्थान का नाम, तो हो सकता है कि कुछ भी न कौंधे। आपके सामाजिक या व्यावसायिक सन्दर्भों में उस स्थान की प्रसिद्धि के भिन्न भिन्न कारण भी हो सकते हैं। आपको अनेकों सन्दर्भों के एक ऐसे स्थान पर ले चलता हूँ, जो संभवतः आपने पहले न सुने हों, मेरी ही तरह।
रेलवे पृष्ठभूमि में, बरुआ सागर का उल्लेख आने का अर्थ है, उन पत्थरों की खदानें जिन के ऊपर पटरियाँ बिछा कर टनों भारी ट्रेनें धड़धड़ाती हुयी दौड़ती हैं। बहुत दिनों तक वही चित्र उभरकर आता रहा उस स्थान का, कठोर चट्टानों से भरा एक स्थान, रेलपथों का कठोर आधार। किसी भी विषय या स्थान को एक ही सत्य से परिभाषित कर देना उसके साथ घोर अन्याय होता अतः अन्य कोमल पक्षों का वर्णन कर लेखकीय धर्म का निर्वाह करना आवश्यक है।
स्टेशन की सीमाओं से बाहर पग धरते ही, अन्य पक्ष उद्घाटित होते गये, एक के बाद एक। सन 860 में बलुआ पत्थरों से निर्मित जराई का मठ प्रतिहार स्थापत्य कला का एक सुन्दर उदाहरण है, खजुराहो के मन्दिरों के पूर्ववर्ती, एक लघु स्वरूप में पूर्वाभास।
बड़े क्षेत्र में फैले कम्पनी बाग के पेड़ों को देखकर, प्रकृति के सम्मोहन में बँधे से बढ़े बरुआ सागर किले की ओर। तीन शताब्दियों पहले राजा उदित सिंह के द्वारा बनवाया किला, लगभग 50-60 मीटर की चढ़ाई के बाद आया मुख्य द्वार। 1744 में मराठों और बुन्देलों के बीच इसी क्षेत्र के आसपास युद्ध हुआ था। किले के द्वार से पूरा क्षेत्र हरी चादर ओढ़े, विश्राम करता हुआ योगी सा लग रहा था।
किले के ऊपर पहुँचकर जो दृश्य देखा, उसे सम्मोहन की पूर्णता कहा जा सकता है। एक विस्तृत झील, जल से लबालब भरी, चलती हवा के संग सिहरन व्यक्त कर बतियाती, झील के बीच बना टापू रहस्यों के निमन्त्रण लिये। तभी हवा का एक झोंका आता है, ठंडा, झील का आमन्त्रण लिये हुये, बस आँख बंद कर दोनों हाथ उठा उस शीतलता को समेट लेने का मन करता है, गहरी साँसों में जितना भी अन्दर ले सकूँ। किले के सबसे ऊपरी कक्ष में यही अनुभव घनीभूत हो जाता है और बस मन करता रहता है कि यहीं पर बैठे रहा जाये, जब तक अनुभव तृप्त न हो जाये।
यही कारण रहा होगा, बरुआ सागर को झाँसी की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का। जब ग्रीष्म में सारा बुन्देलखण्ड अग्नि में धधकता होगा, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के विरुद्ध उमड़ी क्रोध की अग्नि को यहीं पर योजनाओं का रूप देती होंगी। स्थानीय निवासियों ने बताया कि किस तरह रानी और उनकी सशस्त्र दासियाँ बैठती थीं इस कक्ष के आसपास।
बहुत लोगों को यह तथ्य ज्ञात न हो कि प्रसिद्ध गीतकार इन्दीवर बरुआ सागर के ही निवासी थे। इस झील का एक महत योगदान रहा है कई दार्शनिक और सौन्दर्यपरक गीतों के सृजन में। सफर, उपकार, पूरब और पश्चिम, सरस्वतीचन्द्र जैसी फिल्मों के गीत लिखने वाले इन्दीवर का जो गीत मुझे सर्वाधिक अभिभूत करता है, स्थानीय निवासी बताते हैं कि वह इसी झील के किनारे बैठकर लिखा गया।
ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में……
छोटे से इस गीत में न जाने कितने गहरे भाव छिपे हैं। यह स्थान उन गहरे भावों को बाहर निकाल लेने की क्षमता में डूबा हुआ है, आपको बस खो जाना है झील के विस्तार में, झील की गहराई में। यदि यहाँ पर आ कवि की कविता न फूट जाये तो शब्द आश्चर्य में पड़ जायेंगे।
यह भी बताया गया कि एक पूर्व मुख्यमन्त्री इस प्राकृतिक मुग्धता को समेट लेने बहुधा आते थे। 1982 के एशियाड की कैनोइंग प्रतियोगिताओं के लिये इस झील को भी संभावितों की सूची में रखा गया था।
स्थापत्य, इतिहास, साहित्य और पर्यटन के इतने सुन्दर स्थल को देश के ज्ञान में न ला पाने के लिये पता नहीं किसका दोष है, पर एक बार घूम लेने के बाद आप अपने निर्णय को दोष नहीं देंगे, यह मेरा विश्वास है।
 
हम उत्तर दक्षिण के बीच कितनी बार निकल जाते हैं, बिना रुके। एक बार झाँसी उतर कर घूम आईये बरुआ सागर, बस 24 किमी है, दिनभर में हो जायेगा।

जराई का मठ
राहुलजी द्वारा वर्णित व सुब्रमण्यमजी द्वारा प्रदत्त मठ के द्वार का चित्र

झील का धरती से मिलन

बसे टापू के रहस्यमयी भाव

प्रकृति यहाँ एकान्त बैठ

झील पर बैठकर गाया गीत

गो गोवा

पर्यटन एक विशुद्ध मानसिक अनुभव है। मन में धारणा बन जाती है कि हमारे सुख की कोई न कोई कुंजी उस स्थान पर छिपी होगी जो वहाँ जाने से मिल जायेगी। अब तो घूमने जाना ही है, सब जाते हैं। अब अकेले जाकर क्या करेंगे, सपत्नीक जाना चाहिये। अभी बच्चे छोटे हैं, नैपकिन बदलने में ही पूरा समय चला जायेगा। अब बच्चों का विद्यालय छूट जायेगा, पढ़ाई कैसे छोड़ सकते हैं। अब छुट्टी के समय वहाँ बड़ी भीड़ हो जाती है, वह स्थान उतना आनन्ददायक नहीं रहता है। कुछ नहीं तो कार्यालय में कार्य निकल आता है। 


एक सहयोगी अधिकारी की विदेश यात्रा के कारण अतिरिक्त भार से लादे गये हम छुट्टी की माँग न कर पाये । बच्चों की छुट्टियाँ भी समाप्तप्राय थीं। आपकी कैसी नौकरी है“, यह सुनने का मन बना चुके थे, तभी ईश्वर कृपादृष्टि बरसा देते हैं और हम बच्चों का विद्यालय खुलने के मात्र चार दिन पहले स्वयं को गोवा जाने वाली ट्रेन में बैठा पाते हैं।
सीधी ट्रेन पहले निकल जाने के कारण हम पहले हुबली पहुँचे। वहाँ से गोवा के लिये जिस ट्रेन में बैठे, वह दिन में थी। पश्चिमी घाट को चीर कर निकलती ट्रेन, दोनों ओर बड़ी बड़ी पहाड़ियाँ, 37 किमी की दूरी में ही 1200 मीटर की ऊँचाई खोती पटरियाँ, बीच में दूधसागर का जलप्रपात, कई माह तक बादलों से आच्छादित रहने वाला कैसल रॉक का स्टेशन और हरी परत से लपेटा गया हमारी खिड़की का दृश्यपटल, सभी हमारी यात्रा को सफल बनाने के लिये ईश्वर के ही आदेशों का पालन कर रहे थे।
मानसून पूर्ण कर्तव्य निभा कर विदा ले चुका है। छुटपुट बादल अब अपना कार्य समेट कर पर्यटकों को आने का निमन्त्रण दे रहे हैं, सागर की शीतलता को छील कर उतार लाती पवन हल्की सिरहन ले आती है। पर्यटन की योजनायें बनने लगी हैं। मैं जितना अधिक घूमता हूँ, उतनी अधिक मेरी धारणा बल पा रही है कि हमारे बांग्लाभाषी मानुष ही सबसे उत्साही पर्यटक हैं। वैष्णोदेवी से लेकर कन्याकुमारी तक, जहाँ कहीं भी गया, सदैव ही उनको सपरिवार और सामूहिक घूमने में व्यस्त देखा।
सभी स्थानों को छूकर दौड़ने भागने से घूमने का आनन्द जाता रहता है अतः समय और रुचि लेकर ही स्थानों को देखा। पुराने चर्चों व संग्रहालयों में जाकर अपने पर्यटक धर्म का निर्वाह करने के बाद चार और कार्य किये। ये थे पैरासेलिंग, स्पीड बोटिंग, क्रूज़ और बिग फुट के दर्शन। पैरासेलिंग में बोट में लगी रस्सी के सहारे पैराशूट ऊपर उठता है, बहुत ही सधे हुये ढंग से, बिना झटके के। एक ऊँचाई पर पहुँच कर नीचे के दृश्य सम्मोहनकारी लगते हैं। सबको ही यह अनुभव लेने की सलाह है। स्पीड बोटिंग में लहरों के ऊपर से हवा में उठकर जब बोट पानी में सपाट गिरती है, मन धक्क से रह जाता है। समुद्र की सतह पर टकराने की ध्वनि इतनी कठोर होगी, यह नहीं सोचा था। क्रूज़ में गोवा की उत्श्रंखलता का चित्रण नृत्य व संगीत के माध्यम से हुआ। सूत्रधार ने चेताया कि बिना नाचे आपको क्रूज़ का आनन्द नहीं मिलेगा। हम सबने भी सूत्रधार को निराश नहीं किया। बिग फुट गोवा की संस्कृति, इतिहास व रहन सहन का सुन्दर प्रस्तुतीकरण है।
पाँच नगरीय आबादियों के अतिरिक्त पूरा गोवा प्रकृति की विस्तृत गोद में बच्चे जैसा खेलता हुआ लगता है । भगवान करे इस बच्चे को आधुनिकता की नज़र न लगे।
सुबह सुबह जल्दी उठकर 50 मीटर की दूरी पर स्थित कोल्वा बीच पर निकल जाते थे। विस्तार व एकान्त में लहरों की अठखेलियाँ हमें खेलने को आमन्त्रित करती थीं। हम लहरों से खेलने लगते, पर समय बीतते यह लगने लगता कि लहरें अभी भी उतनी ही उत्साहित हैं जितनी 2 घंटे पहले। गम्भीर सागर किनारों पर आकर पृथ्वी को छूने के लिये मगन हो नाचने लगता है। 26 बीचों में फैला गोवा का सौन्दर्य आपको आमन्त्रित कर रहा है।


अब सोचना कैसागो गोवा।
बोटिंग के लिये तैयार

बोटिंग के बाद पूरे भीगे


बच्चों का समुन्दर

बिग फुट और गोवा का जीवन
पैरासेलिंग – हवाई उड़ानें

क्रूज़ में बच्चों का झूमना

शिवसमुद्रम्

कावेरी को सांस्कृतिक महत्व, प्राकृतिक सौंदर्य और जीवनदायिनी जलस्रोत के रूप में तो सब जानते हैं पर 1902 में इस पर बने जलविद्युत संयन्त्र ने भारत में सर्वप्रथम किसी नगर में विद्युत पहुँचायी, यह तथ्य संभवतः बहुतों को ज्ञात न हो। बंगलोर प्रथम नगर था जहाँ पर 1906 में ही विद्युत पहुँच गयी थी।

बंगलोर से 130 और मैसूर से 65 किमी दूर, देश का दूसरा और विश्व का सोलवाँ सर्वाधिक ऊँचा जलप्रपात, कर्नाटक के माण्ड्या नगर में है। वर्षा ऋतु में इसके विकराल रूप का दर्शन, प्रकृति की अपार शक्ति में आपकी आस्था को बढ़ा जायेगा, हर क्षण निर्बाध। नास्तिकों को यदि अपना दर्शन संयत रखना है तो कृपया इसका दर्शन न करें। यात्रा की थकान, प्रपात की जलफुहारों के साथ हवा में विलीन हो जाती है। विज्ञान और प्रकृति के स्वरों को भिन्न रागों में सुनाने और समझने वालों को यह स्थान भिन्न भिन्न कारणों से आकर्षित करेगा किन्तु समग्रता के उपासकों के लिये यह स्थान एक सुमधुर लयबद्ध संगीत सुनाता है।

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यह ढलान और हम
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हमारा वाहन
वहाँ पहुँच कर निर्णय लिया गया कि सर्वप्रथम जलविद्युत संयन्त्र देखा जाये। हम सब ऊँचाई पर थे और संयन्त्र पहाड़ के नीचे। जाने के लिये कोई लिफ्ट नहीं, बस रेलों पर रखी एक ट्रॉली, लगभग खड़ी दीवार पर, लौहरस्से से बँधी। देखकर भय दौड़ गया मन में। बच्चों के सामने भय न दिखे अतः तुरन्त ही जाकर बैठ गये। बच्चों का उत्साह देखने लायक था, एक बड़े खिलौने जैसी गाड़ी पर पहाड़ों से उतरना। दो ट्रॉलियाँ थीं, जब एक नीचे जाती थी तब दूसरी ऊपर आती थी। लौहरस्से पर जीवन का भार टिका था, जब प्राण पर बनती है तब ही यह विचार आता है कि हे भगवान, इस रस्से को बनाने में कोई भ्रष्टाचार न हुआ हो, कोई मिलावट न हुई हो। जैसे जैसे नीचे पहुँचे, हृदयगति संयत हुयी।

जब बहुत बड़े पाइप में जल सौ मीटर तक नीचे गिर, टनों भारी टरबाइनों को सवेग घुमाता है, तब हमें विद्युत मिलती है। प्रकृति और विज्ञान, दोनों ही मनोयोग से लगे हैं, अपने श्रेष्ठ पुत्र की सेवा में, पर विद्युत का दुरुपयोग कर हम उस भाव का नित ही अपमान करते रहते हैं। पाइप से निकल रहे जल का नाद एक विचित्र ताल पैदा कर रहा था, हृदय की धड़कनों से अनुनादित।

वापस चढ़ने में ही प्राकृतिक सौन्दर्य को ठीक से निहार सके हम सब। गाइड महोदय ने बताया कि इसकी पूरी संरचना मैसूर के दीवान सर शेषाद्री अय्यर ने बनायी थी। मन उस निष्ठा, ज्ञान, गुणवत्ता और लगन को देख श्रद्धा से भर गया। संयन्त्र अभी भी निर्बाधता से विद्युत उत्पन्न कर रहा है।

यहाँ पर कावेरी एक पहाड़ीय समतल पर फैल कर दो जलप्रपातों के माध्यम से गिरती है, पश्चिम में गगनचुक्की व पूर्व में भाराचुक्की।
  
भोजनादि के बाद सायं जब भाराचुक्की देखने पहुँचे, पश्चिम में सूर्य डूब चुके थे और परिदृश्य पूर्ण रूप से स्पष्ट था। हरे जंगल के बीच दूधिया प्रवाह बन बहता जल का लहराता, मदमाता स्वरूप। जलफुहारें नीचे से ऊपर तक उड़ती हुयीं, उस ऊँचाई को देखने को उत्सुक जहाँ से गिरकर उनका निर्माण हुआ। बताया गया कि अभी इसका रूप सौम्य है, मनोहारी है, शिव समान। जब यह प्रपात अपने पूर्ण रूप में आता है, लगता है कि शिव अपनी जटा फैलाये, रौद्र रूप धरे दौड़े चले आते हों। पता नहीं इस प्रपात का नामकरण कैसे हुआ पर वहाँ पहुँचकर शिव का स्मरण हो आया।

वह दृश्य देखने में सारा समय चला गया और हम सब दूसरा प्रपात देखने से वंचित रह गये।

प्रकृति, विज्ञान और इतिहास की यात्रा कर सब के सब मुग्ध थे। यात्रायें हमारा ज्ञान बढ़ाती हैं और हमें एक नयी दृष्टि दे जाती हैं अपने अतीत को समझने के लिये, हर बार।
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दो चित्र साभार –  http://aramki.wordpress.com/2007/07/26/trip-to-shivasamudram/