विदुर स्वर

by प्रवीण पाण्डेय

महाभारत का एक दृश्य जो कभी पीछा नहीं छोड़ता है, एक दृश्य जिस पर किसी भी विवेकपूर्ण व्यक्ति को क्रोध आना स्वाभाविक है, एक दृश्य जिसने घटनाचक्र को घनीभूत कर दिया विनाशान्त की दिशा में, एक दृश्य जिसका स्पष्टीकरण सामाजिक अटपटेपन की पराकाष्ठा है, कितना कुछ सोचने को विवश कर देता है वह दृश्य।
राजदरबार जहाँ निर्णय लिये जाते थे गम्भीर विषयों पर, बुद्धि, अनुभव, ज्ञान और शास्त्रों के आधार पर, एक परम-भाग्यवादी खेल चौपड़ के लिये एकत्र किया गया था। विशुद्ध मनोरंजन ही था वह प्रदर्शन जिसमें किसी सांस्कृतिक योग्यता की आवश्यकता न थी, भाग लेने वालों के लिये। आमने सामने बैठे थे भाई, राज परिवार से, जिन्हें समझ न थी कि वह किसके भविष्य का दाँव खेल रहे हैं क्योंकि योग्यता तो जीत का मानक थी ही नहीं। जिस गम्भीरता और तन्मयता से वह खेल खेला गया, राजदरबारों की आत्मा रोती होगी अपने अस्तित्व पर।
जीत-हार के उबड़खाबड़ रास्तों से चलकर बढ़ता घटनाक्रम जहाँ एक ओर प्रतिभागियों का भविष्य-निष्कर्ष गढ़ता गया, वहीं दूसरी ओर दुर्भाग्य की आशंका से उपस्थित वयोवृद्धों दर्शकों का हृदय-संचार अव्यवस्थित करता गया। सहसा विवेकहीनता का चरम आता है, अप्रत्याशित, द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हार जाना और दुर्योधन का द्रौपदी को राजदरबार लाये जाने का आदेश।
मौन-व्याप्त वातावरण, मानसिक स्तब्धता, एक मदत्त को छोड़ सब किंकर्तव्यविमूढ़, पाण्डवों के अपमान की पराकाष्ठा, भीम का उबलता रक्त, न जाने क्या होगा अब? सर पर हाथ धर बैठे राजदरबार के सब पुरोधा। सिंहासन पर बैठा नेतृत्व अपनी अंधविवशता को सार्थक करता हुआ।
विदुर
एक स्वर उठता है, विदुर का, दासी-पुत्र विदुर का, पराक्रमियों के सुप्त और मर्यादित रक्त से विलग। यदि यह स्वर न उठता उस समय, महाभारत का यह अध्याय अपना मान न रख पाता, इतिहास के आधारों में, निर्भीकता को भी आनुवांशिक आधार मिल जाता। सत्यमेव जयते से सम्बन्धित पृष्ठों को शास्त्रों से हटा दिया जाता दुर्योधन-वंशजों के द्वारा। ऐसे स्वर जब भी उठते हैं, निष्कर्ष भले ही न निकलें पर आस अवश्य बँध जाती है कोटि कोटि सद्हृदयों की। सबको यही लगता है कि भगवान करे, सबके सद्भावों की सम्मिलित शक्ति मिल जाये उस स्वर को।
विदुर का क्या अपनी मर्यादा ज्ञात नहीं थी? क्या विदुर को भान नहीं था कि दुर्योधन उनका अहित कर सकता है? क्या विदुर को यह ज्ञान नहीं था कि उनका क्रम राजदरबार में कई अग्रजों के पश्चात आता है? जहाँ सब के सब, राजनिष्ठा की स्वरलहरी में स्वयं को खो देने के उपक्रम में व्यस्त दिख रहे थे, यदि विदुर कुछ भी न कहते तब भी इतिहास उनसे कभी कोई प्रश्न न पूछता, उनके मौन के बारे में। इतिहास के अध्याय, शीर्षस्थ को दोषी घोषित कर अगली घटना की विवेचना में व्यस्त हो जाते।
ज्ञान यदि साहसविहीन हो तो ज्ञानी और निर्जीव पुस्तक में कोई भेद नहीं।
महाभारत के इस दृश्य का महत-दुख, विदुर के स्पष्ट स्वर से कम हो जाता है। हर समय बस यही लगता है कि हाथ से नियन्त्रण खोती परिस्थितियों को कोई विदुर-स्वर मिल जाये। यह स्वर समाज के सब वर्गों का संबल हो और सभी इस हेतु सबल हों।
इतिहास आज आस छोड़ चुका है, अपने अस्तित्व पर अश्रु बहाने का मन बना चुका है। अब तक तो भीष्म ही निर्णय लेने से कतरा रहे थे, सुना है, विदुर भी अब रिटायर हो चुके हैं।