न दैन्यं न पलायनम्

पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण

पढ़ा था, यदि घर्षण नहीं होता तो आगे बढ़ना असंभव होता, पुस्तक में उदाहरण बर्फ में चलने का दिया गयाथा, बर्फीले स्थानों पर नहीं गयाअतः घर में ही साबुन के घोल को जमीन पर फैला कर प्रयोग कर लिया। स्थूल वस्तुओं परकिया प्रयोग तो एक बार में सिद्ध हो गया था, पर वही सिद्धान्त बौद्धिकता के विकास में भी समुचित लागू होता है, यह समझने में दो दशक और लग गये।

कौन दृश्य, कौन दृष्टा
विचारोंके क्षेत्र में प्रयोग करने की सबसे बड़ी बाधा है, दृष्टा और दृश्य काएक हो जाना। जब विचार स्वयं ही प्रयोग में उलझे हों तो यह कौन देखेगा कि बौद्धिकताबढ़ रही है, कि नहीं। इस विलम्ब केलिये दोषी वर्तमान शिक्षापद्धति भी है, जहाँ पर तथ्यों का प्रवाह एक ही दिशा में होता, आप याद करते जाईये, कोईप्रश्न नहीं, कोई घर्षण नहीं। यहसत्य तभी उद्घाटित होगा जब आप स्वतन्त्र चिन्तन प्रारम्भ करेंगे, तथ्यों को मौलिक सत्यों से तौलना प्रारम्भकरेंगे, मौलिक सत्यों को अनुभव सेजीना प्रारम्भ करेंगे। बहुधा परम्पराओं में भी कोई न कोई ज्ञान तत्व छिपा होता है, उसका ज्ञान आपके जीवन में उन परम्पराओं कोस्थायी कर देता है, पर उसके लियेप्रश्न आवश्यक है।
स्वस्थलोकतन्त्र में विचारों का प्रवाह स्वतन्त्र होता है और वह समाज की समग्र बौद्धिकताके विकास में सहायक भी होता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी सभ्यता में लोकतन्त्र कीमात्रा कितनी रही, इसका ज्ञान वहाँकी बौद्धिक सम्पदा से पता चल जाता है। जीवन तो निरंकुश साम्राज्यों में भी रहा हैपर इतिहास ने सदा उन्हें अंधयुगों की संज्ञा दी है।
बौद्धिकताके क्षेत्र में घर्षण का अर्थ है कि जो विचार प्रचलन में है, उसमें असंगतता का उद्भव। प्रचलित विचारपूर्वपक्ष कहलाता है, असंगतिप्रतिपक्ष कहलाती है, विवेचना तबआवश्यक हो जाती है और जो निष्कर्ष निकलता है वह संश्लेषण कहलाता है। संश्लेषितविचार कालान्तर में प्रचलित हो जाता है और आगामी घर्षण के लिये पूर्वपक्ष बन जाताहै। यह प्रक्रिया चलती रहती है, ज्ञानआगे बढ़ता रहता है, ठीक वैसे हीजैसे आप पैदल आगे बढ़ते हैं जहाँ घर्षण आपके पैरों और जमीन के बीच होता है।
समाजमें जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होनेलगता है, लोग इसे अपनी अपनीपरम्पराओं पर आक्षेप के रूप में लेने लगते हैं। जब तक पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष कासंश्लेषण नहीं होगा, अंधयुग बनारहेगा, लोग प्रतीकों पर लड़तेरहेंगे, सत्य अपनी प्यास लियेतड़पता रहेगा। साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेतिका उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।
उपनिषदपहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परेलगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञानके उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।
शंकालुदृष्टि प्रश्न उठाने तक ही सीमित है, ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।


चित्र साभार – http://godwillbegod.com/http://people.tribe.net

तरणताल में ध्यानस्थ

तैरनाएक स्वस्थ और समुचित व्यायाम है, शरीरके सभी अंगों के लिये। यदि विकल्प हो और समय कम हो तो नियमित आधे घंटे तैरना हीपर्याप्त है शरीर के लिये। पानी में खेलना एक स्वस्थ और पूर्ण मनोरंजन है, मेरे बच्चे कहीं भी जलराशि या तरणताल देखते हैंतो छप छप करने के लिये तैयार हो जाते हैं, घंटों खेलते हैं पर उन्हें पता ही नहीं चलता है, अगले दिन भले ही नाक बहाते उठें। सूरज की गर्मी और दिनभर की थकान मिटानेके लिये एक स्वस्थ साधन है, तरणतालमें नहाना। गर्मियों में एक प्रतीक्षा रहती है, शाम आने की, तरणताल मेंसारी ऊष्मा मिटा देने की। कोई भी कारण हो, तैरना आये न आये, आकर्षणबना रहता है, तरणताल, झील, नदी या ताल के प्रति।
उपर्युक्तकारणों के अतिरिक्त, एक और कारण हैमेरे लिये। पानी के अन्दर उतरते ही अस्तित्व में एक अजब सा परिवर्तन आने लगता है, एक अजब सी ध्यानस्थ अवस्था आने लगती है। माध्यमका प्रभाव मनःस्थिति पर पड़ता हो या हो सकता है कि पिछले जन्मों में किसी जलचर काजीवन बिताया हो मैंने। मुझे पानी में उतराना भाता है, बहुत लम्बे समय के लिये, बिनाअधिक प्रयास किये हुये निष्क्रिय पड़े रहने का मन करता है। मन्थर गति सेब्रेस्टस्ट्रोक करने से बिना अधिक ऊर्जा गँवाये बहुत अधिक समय के लिये पानी मेंरहा जा सकता है। लगभग दस मिनट के बाद शरीर और साँसें संयत होने लगते हैं, एक लय आने लगती है, उसके बाद घंटे भर और किया जा सकता है यह अभ्यास।
क्या चल रहा है आपके मन में
प्रारम्भिकदिनों में एक व्यग्रता रहती थी तैरने में, कि किस तरह जलराशि पार की जाये। तब न व्यायाम हो पाता था, न ही मनोरंजन, होती थी तो मात्र थकान। तब एक बड़े अनुभवी और दार्शनिक प्रशिक्षक ने यहतथ्य बताया कि जलराशि शीघ्रतम पार कर लेने से तैरना नहीं सीखा जा सकता है, तैरना चाहते हो तो पानी में लम्बे समय के लियेरहना सीखो, पानी से प्रेम करो, पानी के साथ तदात्म्य स्थापित करो। शारीरिकसामर्थ्य(स्टैमना) बढ़ाने और पानी के अन्दर साँसों में स्थिरतालाने के लिये प्रारम्भ किया गया यह अभ्यास धीरे धीरे ध्यान की ऐसी अवस्था में लेजाने लगा जिसमें अपने अस्तित्व के बारे में नयी गहराई सामने आने लगी। इस विधि मेंशरीर हर समय पानी के अन्दर ही रहता है, बस न्यूनतम प्रयास से केवल सर दोतीन पल के लिये बाहर आता है, वह भी साँस भर लेने के लिये। पानी के माध्यम मेंलगभग पूरा समय रहने से जो विशेष अनुभव होता है उसका वर्णन कर पाना कठिन है, तन और मन में जलमय तरलता और शीतलता अधिकार करलेती है। पता नहीं इसे क्या नाम दें, जलयोग ही कह सकते हैं।
कभी कभीइस अवस्था को जीवन में ढूढ़ने का प्रयास करता हूँ। समय बिताना हो या समय में रमनाहो, समय बिताने की व्यग्रता हो यासमय में रम जाने का आनन्द, जीवनभारसम बिता दिया जाये या एक एक पल से तदात्म्य स्थापित हो,जीवन से सम्बन्ध सतही हो या गहराई में उतर कर देखा जाये इसकारंग? यदि व्यग्रता से जीने काप्रयास करेंगे तो वैसी ही थकान होगी जैसे कि तैरते समय पूरे शरीर को पानी के बाहररखने के प्रयास में होती है। साँस लेने के लिये पूरे शरीर को नहीं, केवल सर को बाहर निकालने की आवश्यकता है। जिसप्रकार डूबने का भय हमें ढंग से तैरने नहीं देता है, उसी प्रकार मरने का भय हमें ढंग से जीने नहीं देता है।
तैरने काआनन्द उठाना है तो ढंग से तैरना सीखना होगा। जीवन का आनन्द उठाना है तो ढंग सेजीना सीखना होगा।
चित्र साभार – http://www.flickriver.com/

हिन्दी उत्थान और सहजता

घर में सबचैनल के कार्यक्रम अधिक चलते हैं, हल्के फुल्के रहते हैं, परिवारके साथ बैठ कर देखे जा सकते हैं, बच्चोंको भी सुहाते हैं, भारतीय परिवेश कीसामान्य जीवनशैली पर आधारित होते हैं, स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करते हैं और कृत्रिमता से कोसों दूर होते हैं।मनोरंजन का अर्थ ही है कि आपके मन के कोमल भावों को गुदगुदाया जाये, कभी किसी परिस्थिति द्वारा, कभी किसी चरित्र के हाव भाव द्वारा, कभी किसी उहापोह से, कभी हास्य से, कभी बलवतीआशाओं से, कभी क्षणिक निराशाओं से।
हो सकताहै कि कभी हास्य का कोई रूप आपको थोड़ा हीन लगे पर संदर्भों के प्रवाह में वहभी मनोरंजन बनकर बह जाता हो, बिनाकोई विशेष क्षोभ उत्पन्न किये हुये। ऐसा ही कुछ मुझे भी खटकता है, सामान्य हास्य नहीं लगता है। कुछ धारावाहिकोंमें एक ऐसा चरित्र दिखाया जाता है जो बड़ी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोलता है, छोटी बातों को भारी भरकम शब्दों से व्यक्त करताहै, औरों को वह समझ में नहीं आता है, तब कोई समझदार सा लगने वाला चरित्र उसे सरलहिन्दी या अंग्रेजी में बता देता है, अन्य हँस देते हैं। आपके सामने वह हास्य और विनोद समझ कर परोस दिया जाताहै।
धीरेधीरे यह धारणा बनायी जा रही है कि हिन्दी एक ऐसी भाषा है जो संवाद और संप्रेषणयोग्य नहीं है, जो वैज्ञानिक नहींहै, जो आधुनिक नहीं हैं। किसीतार्किक आधार की अनुपस्थिति में भी यह हल्का सा लगने वाला परिहास ही उस धारणा कोस्थायी रूप देने लगता है। 

सरल भव, सहज भव
अति उत्साही हिन्दीबुद्धिजीवियों को अपने संश्लिष्ट ज्ञान से हिन्दी को पीड़ा पहुँचाते हुयेदेखता हूँ, सरल से शब्दों कोक्लिष्टता के आवरण से ढाँकते हुये देखता हूँ, शब्दों के अन्दर ही क्रियात्मकता और इतिहास ठूँस देने का प्रयास करतेहुये देखता हूँ। उपर्युक्त कारणों से जब हिन्दी का मजाक उड़ाया जाता है, तो क्रोध भी आता है और दुख भी होता है। क्रिकेटऔर रेलगाड़ी जैसे सरल शब्दों पर किये गये अनुप्रयोग इस मूढ़ता के जीवन्त उदाहरणहैं, समझ में नहीं आता है कि वेभाषा का भला कर रहे हैं या उपहास कर रहे हैं। आप ही बताईये कि माइक्रोसॉफ्टको हिन्दी में अतिनरमक्यों लिखा जाये?
अगलीबार इस तरह की मूढ़ता सुने तो विरोध अवश्य करे और प्रयास कर उन्हें सही शब्द भीबतायें। जो अवधारणायें नयी हैं, उनसे सम्बद्ध शब्द अन्य भाषाओं से लेते रहनाचाहिये, उन अवधारणाओं के स्थानीयविकास के लिये। अंग्रेजी भी तो न जाने कितनी भाषाओं के शब्दों से भरी पड़ी है।बिना हलचल भाषाओं को भी स्वास्थ्य प्राप्त ही नहीं हो सकता, सजा कर रख दीजिये किसी जीवित प्राणी कोकुछ हीदिनों में कृशकाय हो जायेगा। हम अपनी माँदों से बाहर निकलेंप्रयोगोंके खेल खेलेंनये शब्दों के खेल खेलेंसरलता आयेगी भाषा में, जनप्रियता आयेगी भाषा में, संभवतः वही भाषा का स्वास्थ्य भी होगा।
यह भीउचित नहीं होगा कि जिसका जैसा मन हो वह हिन्दी में अनुप्रयोग करे और हिन्दी में जोशब्द प्रचलित है उन्हें भी अन्य भाषाओं से बदल दे। अपनी तिजोरी देखने के पहले औरोंसे भीख माँगने की आदत, जो कई अन्यक्षेत्रों में है, हिन्दी में नलायी जाये। जिस देश में 12% जन भीअंग्रेजी नहीं समझते हैं, उन्हेंनये अंग्रेजी शब्द याद कराने से अधिक सरल होगा उपस्थित हिन्दी शब्दों को अधिकउपयोग में लाना। जब अन्य भारतीय भाषाओं में उन शब्दों का प्रयोग हो रहा हो तोअंग्रेजी शब्द आयातित करना बौद्धिक भ्रष्टाचार सा लगता है। कई तथाकथित प्रबुद्धहिन्दी समाचार पत्र इस प्रवृत्ति के पोषक बने हुये हैं।
हो सकताहै कि हिन्दी उत्थान पर यह पोस्ट आपको उपदेशात्मक लगे, हिन्दी जैसे व्यक्तिगतविषयों पर टीका टिप्पणी करने जैसी लगे, क्रोध भी आये, पर इस पर विचार अवश्य हो किक्या हिन्दी भाषा इस प्रकार के हास्य का विषय हो सकती है?

चित्र साभार – lalitdotcom.blogspot.com

पानीदार कहाँ है पानी?

पानी कासाथ बचपन से प्रिय है, तैरने मेंविशेष रुचि है। कारण कोई विशेष नहीं, बस जहाँ जन्म हुआ और प्रारम्भिक जीवन बीता उस नगर हमीरपुर में दो नदियोंका संगम है, यमुना और बेतवा। यमुना, रेतीले तट, गतिमान प्रवाह, पानी का रंगसाफ। बेतवा, बालू के तट, मध्यम प्रवाह, पानी का रंग हरा।
यमुना, बेतवा, संगम और हमीरपुर
तैरनेके लिये बेतवा ही उपयुक्त थी, वहींपर ही तैरना सीखा। गर्मियों की छुट्टियों में नित्य घंटों पानी में पड़े रहना, नदी पार जाकर ककड़ी, तरबूज आदि खाना, दोपहर कोजीभर सोना और सायं घर की छत से बेतवा को बहते हुये देखना,सूर्यास्त के समय बेतवा सौन्दर्य का प्रतिमान हो जाती थी।बेतवा के साथ जुड़ी आनन्द की हिलोरें बचपन की मधुरिम स्मृतियाँ हैं। बचपन केघनिष्ठ मित्र सी लगती है बेतवा।
यमुनाके रेतीले तटों पर पूर्ण शक्ति लगा सवेग दौड़ लगाना, फिर थक कर किनारे पर डरी डरी सी हल्की सी डुबकी। यमुना के गतिमान प्रवाहऔर उसकी शास्त्रवर्णित पवित्रता के लिये सदा ही आदर रहा मन में। संगम पर लगने वालेमेलों, धार्मिक स्नानों व अन्यअनुष्ठानों के समय मिला यमुना का मातृवत स्नेह आज भी स्मृतियों की सुरेख खींच जाताहै।
मूल यमुना और उसकी पवित्रता तो दिल्लीवाले ही पी जाते हैं। अपने आकार को अपने आँसुओंसे सप्रयास बनाये रखती यमुना, कान्हाके साथ बिताये दिनों को याद कर अपने अस्तित्व में और ढह जाती है, ताजमहल से भी आँख बचाकर चुपचाप निकल जाती है।यदि चंबल और बेतवा राह में न मिलती तो जलराशि के अभाव में यमुना प्रयाग में गंगासे भेंट करने की आस कब की छोड़ चुकी होती, त्रिवेणी की दूसरी नदी भी लुप्त हो गयी होती।
कुछवर्ष पहले तक तो बेतवा का प्रवाह स्थिर था। बालू की खुदाई तटों से ही कर ली जातीथी, बाढ़ आने पर पुनः और बालू आजाती थी, वर्षों यही क्रम चलता था, नदी का स्वरूप भी बचा रहता था और विकास को अपनाअर्घ्य भी मिल जाता था। आज विकास की बाढ़ में बालू का दोहन अपने चरम पर पहुँच गयाहै, जहाँ पहले मजदूर ही बालू कालदान करते थे, अब बड़ी बड़ी मशीनोंसे नदी के तट उखाड़े जाने लगे। विकास की प्यास और बढ़ी, मशीनें नदी के भीतर घुस आयीं, जो मिला सब निकाल लिया, बेतवासहमी सी एक पतली सी धारा बन बहती रही। वेत्रवती(बेतवा) आज असहाय सी बहती है, एक नाले जैसी, देखकर मन क्षुब्ध हो जाता है।
इस विषयपर भावनात्मक हूँ, मेरे बचपन केप्रतीकों का विनाश करने पर तुला है यह विकास। कुछ दिन पहले घर गया था, यमुना तट पर खड़ा खड़ा अपनी आँखों से उसकाखारापन बढ़ाता रहा। यमुना, काशवृन्दावन की अन्य जलराशियों की तरह कान्हा ने तुम्हें भी खारा कर दिया होता, स्रोत से ही, कम से कम तुम्हारा स्वरूप तो बचा रहता। बेतवा, काश तुम्हारी बालू में भवनों को स्थायित्व देने वाला लौहतत्व न होता, तुम्हारी भेंट ही तुम्हारे स्वरूप को ले डूबी।
हमीरपुरबुन्देलखण्ड में है, कहीं पढ़ा था बुन्देलखण्ड के विषय में,
बुन्देलोंकी सुनो कहानी, बुन्देलों की बानीमें,
पानीदारयहाँ का पानी, आग यहाँ के पानी में।
अब न वहकहानी रही, न पानी रहा, न उस पानीमें जीवन की आग रही और न ही रही वह पानीदारी।

डैडी दा पैसा, पुतरा मौज कर ले

स्पष्टरूप से याद है, आईआईटी के प्रारंभिकदिन थे, रैगिंग अपने उफान पर थी, दिन भर बड़ी उलझन रहती थी और सायं होते होते मनमें ये विचार घुमड़ने लगते थे कि आज पता नहीं क्या होगा?
दिन भरकक्षाओं में प्रोफेसरों की भारी भारी बातें, नये रंगरूटों को अपने बौद्धिक उत्कर्ष से भेदती उनकी विद्वता, चार वर्षों में आपके भीतर के सामान्यव्यक्तित्व को आइन्स्टीन में बदल देने की उनकी उत्कण्ठा, श्रेष्ठता की उन पुकारों में सीना फुलाने का प्रयास करती आपकी आशंका और उसपर हम जैसे न जाने कितनों के लिये अंग्रेजी में दिये व्याख्यानों को न पचा पाने कीगरिष्ठता। ऐसी शैक्षणिक जलवायु में दिन बिताने का भारीपन मन में बड़ी गहरी थकानलेकर आता था।
हम तोसात वर्षों के छात्रावास के अनुभव के साथ वहाँ पहुँचे थे पर कईयों के लिये किसीनये स्थान पर अपरिचितों से पहला संपर्क उस भारीपन को और जड़ कर रहा था। यह भी ज्ञातथा कि रात्रि के भोजन के बाद ही रैगिंग के महासत्र प्रारम्भ होते हैं। कई मित्र इनसबसे बचने के लिये 5 किमी दूर स्थितगुरुदेव टाकीज़ में रात्रि का शो देखने निकल जाते थे और वह भी पैदल, न जाने की जल्दी और न ही आने की, बस किसी तरह वह समय निकल जाये। कुछ मित्रस्टेडियम में जाकर रात भर के लिये सो जाते थे, नील गगन और वर्षाकाल के उमड़े बादलों के तले।
तुलसीबाबा के हुइहे वही जो राम रचिराखाके उपदेश को मन में बसाकर हम तो अपने कमरे में जाकर सो जाते थे। जब रात में जगाई और रगड़ाई होनी ही है तोकमाण्डो की तरह कहीं भी और कभी भी सोने की आदत डाल लेनी चाहिये। जैसी संभावना थी, रात्रि के द्वितीय प्रहर में सशक्त न्योता आजाता है, आप भी पिंक फ्लॉयड के एनादर ब्रिक इन द वालकी तरह अनुभव करते हुये उस परिचयप्रवृत्त समाज का अंग बन जाते हैं।
रैगिंगपर विषयगत चर्चा न कर बस इतना कहना है कि उस समय औरों के कष्ट के सामने अपने कष्टबौने लगने लगते हैं और विरोध न कर चुपचाप अनुशासित बने रहने में आपको रैगिंग करनेवालों से भी अधिक आनन्द आने लगता है। परम्पराओं ने हर क्षेत्र में संस्कृति कोकितना कुछ दिया है, इसकी पुष्टिघंटों चला धाराप्रवाह अथक कार्यक्रम कर गया।
पुतरा, मौज कर ले

उस पूरेसमय में मेरा ध्यान एक सीनियर पर ही था, एक सरदार जी थे, आनन्दपानमें पूर्ण डूबे, वातावरण को अपनेजीवन्त व्यक्तित्व से सतत ऊर्जस्वित करते हुये, उनकी भावगंगा के प्रवाहमें संगीत का सुर मिल रहा था, पीछेएक पंजाबी गाना बज रहा था।

डैडी दापैसा पुतरा मौज कर ले, तेरा जमानापुतरा मौज कर ले…..
उनकेपास तो प्रोफेसरों के द्वारा सताये दिन को भुलाने का बहाना था, गले के नीचे उतारने को सोम रस था, उड़ाने के लिये डैडी दा पैसा था, आनन्दउत्सव में सर झुकाये सामने खड़े जूनियरों का समूह था, मित्रों का जमावड़ा था,युवावस्था की ऊर्जा थी। उनकी मौज के सारे कारक उपस्थित थे।
हमारेपास तो कुछ भी नहीं था, पर उस दिन विपरीत परिस्थितियों में भी हमें उन सरदार जी से अधिक आनन्द आया होगा क्योंकिहमें तो उनकी मौज पर भी मौज आ रही थी। अब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं हैतो क्या मौज नहीं कर सकते?

चित्र साभार – http://noraggingfoundation.blogspot.com/

हाईवे के ट्रक

कभीभारी भरकम ट्रकों को राष्ट्रीय राजमार्ग पर भागते देखा है?देखा होगा और उससे पीड़ित भी हुये होंगे पर उनके चरित्र परध्यान नहीं दिया होगा। सामने से आतेट्रक आपको अपनी गति कम करने और बायें सरक लेने को विवश कर देते हैं, बड़ा भय उत्पन्न करते हैं ये ट्रक सड़क पर, आप चाहें न चाहें एक आदर देना पड़ता है, जब तक ये निकल न जाये आप निरीह से खड़े रहतेहैं, सड़क से आधे उतरे।
यदि आपभी इन ट्रकों की दिशा में जा रहे हों तो संभवतः भय नहीं रहता है। आपके वाहन की गतिबहुधा इन भारी भरकम ट्रकों से बहुत अधिक रहती है, यदि आप उन्हें एक बार पार कर लें तो उनसे पुन: भेंट होने की संभावना कम ही होती है। थोड़ी सावधानी बस उन्हें पार करनेमें रखी जाये तो निरीह से ही लगते हैं ये ट्रक।
कभी कभीयही ट्रक प्रतियोगिता पर उतर आते हैं। पिछले दिनों मैसूर से बंगलोर आते समय लगभगएक घंटे तक यह प्रतियोगिता देखी भी और उससे पीड़ित भी होते रहे। दो भारी भरकम ट्रकआगे चल रहे थे, एक दूसरे से होड़लगाते हुये। एक दूसरे से सट कर चल रहे थे, कभी एक थोड़ा आगे जाने का प्रयास करता तो कभी दूसरा, कोई भी स्पष्ट रूप से आगे नहीं निकल पा रहा था।दोनों की ही गति 50 के आसपास थीक्योंकि मेरा वाहन भी लगातार वही गति दिखा रहा था। सड़क 100की गति के लिये सपाट है, आपका वाहन भी उन्नत तकनीक के इंजन से युक्त है और 150 की गति छूने की क्षमता रखता है। उन ट्रकों कीप्रतियोगिता के आनन्द के सामने आपके वाहन की गति धरी की धरी रह जाती है। 50 की गति सड़क खा जाती है, 50 की गति हाईवे के ये ट्रक। आप कितना उछलकूदमचा लीजिये, आपका वाहन कितना हार्नफूँक ले, जापानी विशेषज्ञों नेकितना ही शक्तिशाली इंजन बनाया हो, आपकेवाहन का आकार कितना ही ऐरोडायनिमिक हो, आप अपनी एक तिहाई क्षमता से आगे बढ़ ही नहीं सकते।

आगे निकलो तो जाने
यह सबदेख रागदरबारी के प्रथम दृश्य का स्मरण हो आया। सड़क पर और आने वाले यातायात परअपना जन्मसिद्ध बलात अधिकार जमाये इन ट्रकों का कुछ नहीं किया जा सकता है। अपनेआगे दसियों किलोमीटर का खाली मार्ग उन्हें नहीं दिखता है,पीछे से सवेग चले आ रहे वाहनों की क्षमताओं का भी भान नहींहै उन्हें, यदि उन्हें कुछ दिखता हैतो उनके बगल में चल रहा उनके जैसा ही भारी भरकम और गतिहीन ट्रक, आपसी प्रतियोगितालगा उनका मन और उसी खेल में बीतता उनका जीवन।
उपयुक्ततो यही होता कि दोनों ही एक ही लेन में आ जाते और पीछे से आने वाले गतिशील वाहनोंको आगे निकल जाने देते, जिससे उनकीभी चाल अवरोधित नहीं होती। वे ट्रक नहीं माने, स्वयं तो प्रतियोगिता का आनन्द उठाया और हम सबको पका दिया। वह तो भला होकि एक जगह पर तीन लेन का रास्ता मिल गया, वहाँ पर थोड़ी गति बढ़ाकर कई वाहन उन मदमत्त ट्रकों से आगे निकल गये।
जातेजाते बस पीछे देख ट्रकों को यही कह पाये कि भैया जब दम नहीं है तो काहे सड़क घेरे चल रहे हो।

चित्र साभार – http://tlhtc.blogspot.com

प्रार्थना

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो न।

चेहरों का संवाद

बंगलोरमें जहाँ मेरा निवास है, उससे बस 50 मीटर की दूरी पर ही है फ्रीडम पार्क। एकपुराना कारागार था, बदल करस्वतन्त्रता सेनानियों की स्मृति में पार्क बना दिया गया। पार्क को बनाते समय एकबड़ा भाग छोड़ दिया गया जहाँ पर लोग धरना प्रदर्शन कर सकें। यहीं से नित्य आनाजाना होता है क्योंकि यह स्थान कार्यालय जाने की राह में पड़ता है। सुबह टहलने औरआगन्तुकों को घुमाने में भी यह स्थान प्रयोग में आता है।
फ्रीडम पार्क
लगभग हरतीसरे दिन यहाँ पर लोगों का जमावड़ा दिखता है। कभी पढ़े लिखे, कभी किसान, कभी आँगनवाड़ी वाले, कभीशिक्षक, कभी वकील, और न जाने कितने लोग, समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुये। सुबह से एकत्र होते है, सायं तक वापस चले जाते हैं। पुलिस और ट्रैफिककी व्यवस्था सुदृढ़ रहती है, बसथोड़ी भीड़ अधिक होने पर वाहन की गति कम हो जाती है।
इतनासमय या उत्साह कभी नहीं रह पाता है कि उनकी समस्याओं को सुना और समझा जा सके। उनविषयों को समस्यायें खड़े करने वाले और उन्हें सहने वाले समझें, मैं तो धीरे से पढ़ लेता हूँ कि बैनर आदि मेंक्या लिखा है, यदि नहीं समझ में आताहै तो अपने चालक महोदय से पूछ लेते हैं कि कौन लोग हैं और किन माँगों को मनवानेआये हैं। अब तो चालक महोदय हमारे पूछने से पहले ही विस्तार से बता देते हैं।
इसप्रकार समस्याकोश का सृजन होने के साथ साथ, प्रदर्शनकारियों के चेहरों से क्या भाव टपक रहे होते हैं, उनका अवलोकन कर लेता हूँ। कवियों और उनकीरचनाओं में रुचि है अतः वह स्थान पार होते होते मात्र एक या दो पंक्तियाँ ही मनमें आ पाती हैं।
कभीव्यवस्था से निराश भाव दिखते है,
जग कोबनाने वाले, क्या तेरे मन में समायी,
तूनेकाहे को दुनिया बनायी?
कभीव्यवस्था का उपहास उड़ाते से भाव दिखते है,
बर्बादगुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था,
हर शाखपे उल्लू बैठा है, अंजामगुलिस्तां क्या होगा?
कभीव्यवस्था के प्रति आक्रोश के भाव दिखते हैं,
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही 
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ।
पिछले तीन दिनों से यहाँ से निकल रहा हूँ, लोग बहुत हैं, युवा बहुत हैं, उनके भी चेहरेके भाव पढ़ने का प्रयास करता हूँ। किन्तु पुराने तीन भावों से मिलती जुलती नहींदिखती हैं वे आँखें। मन सोच में पड़ा हुआ था। आज ध्यान से देखा तो और स्पष्ट हुआ, सहसा राम प्रसाद बिस्मिल का लिखा याद आ गया। हाँ, उनकी आँखें बोल रही थीं,
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है।



मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था

मिला थामुझे एक सुन्दर सबेरा,

मैंतजकर तिमिरयुक्त सोती निशा को,
प्रथमजागरण को बुलाने चला था,
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।
विचारोंने जगकर अँगड़ाइयाँ लीं,
सूरज कीकिरणों ने पलकें बिछा दीं,
मैंबढ़ने की आशा संजोये समेटे,
विरोधों केकोहरे हटाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।१।।
अजब सीउनींदी अनुकूलता थी,
तिमिरमें भी जीवित अन्तरव्यथा थी,
निराशाके विस्तृत महल छोड़कर,
मैं आशा कीकुटिया बनाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।२।।
प्रतीक्षितफुहारें बरसती थीं रुक रुक,
पंछी थेफिर से चहकने को उत्सुक,
तपितग्रीष्म में शुष्क रिक्तिक हृदय को,
मैं वर्षा केरंग से भिगाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।३।।
कहीं मनउमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
कहींभाववीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकरपुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैंगुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।४।।
 मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था

चित्र साभार – http://www.indiamike.com/

वननोट और आउटलुक

एक बारलिख लेने के बाद सूचना को व्यवस्थित रखना और समय आने पर उसको ढूढ़ निकालना, इन दो कार्यों के लिये वननोट और आउटलुक काप्रयोग बड़ा ही उपयोगी रहा है मेरे लिये। प्रोग्रामों की भीड़ में अन्ततः इन दोनोंपर आकर स्थिर होना, मेरे लियेप्रयोगों और सरलीकरण के कई वर्षों का निष्कर्ष रहा है। 1985में बालसुलभ उत्सुकता से प्रारम्भ कर आज तक की नियमितआवश्यकता तक का मार्ग देखा है मेरे कम्प्यूटरों ने, न जाने कहाँ और कब यह साथ दार्शनिक हो गया, पता ही नहीं चला।
आउटलुक का लुक
हरव्यक्ति के पास मोबाइल, दूरप्रदेशों और विदेशों में जाकर पढ़ते सम्बन्धी, विद्यालय, आईआईटी और नौकरीमें बढ़ती मित्रों की संख्या, धीरेधीरे संपर्कों की संख्या डायरी के बूते के बाहर की बात हो गयी। प्रारम्भिकसिमकार्डों और मोबाइलों की भी एक सीमा थी, समय 2001 के पास का था।संपर्क, उनकी जन्मतिथियाँ, वैवाहिक वर्षगाठें, बैठकें, कार्यसूची आदि कीबढ़ती संख्या और आवश्यकता थी एक ऐसे प्रोग्राम की जिस पर सब डाल कर निश्चिन्त बैठाजा सके। माइक्रोसॉफ्ट के ऑफिस आउटलुक में मुझे वह सब मिल गया और आज दस वर्ष होनेपर भी वह सूचना का सर्वाधिक प्रभावी अंग है मेरे लिये। न जाने कितने मोबाइल बदले, नोकिया, सोनी, ब्लैकबेरी, विन्डोज, हर एक के साथ आउटलुक का समन्वय निर्बाध रहा। अनुस्मारक लगा देने के बादकम्प्यूटर एक सधे हुये सहयोगी की तरह साथ निभाता रहा। यही नहीं, कई खातों के ईमेल और एसएमएस स्वतः आउटलुक केमाध्यम से फीड में आते रहे, आवश्यककार्य व बैठक में परिवर्तित होते रहे।
2007तक अपनी सारी फाइलों को अलग अलग फोल्डरों में विषयानुसाररखने का अभ्यास हो चुका था। मुख्यतः वर्ड्स, एक्सेल, पॉवरप्वाइण्ट, पीडीएफ, एचटीएमएल। यह बातअलग है कि हर बार किसी फाइल को खोलने और बन्द करने में ही इतना समय लग जाता था किविचारों का तारतम्य टूटता रहता था। माइक्रोसॉफ्ट के ऑफिस वननोट की अवधारणा संभवतःयही देखकर की गयी होगी। वननोट का ढाँचा देखें तो आपको इसका स्वरूप किसी पुस्तकालय सेमिलता जुलता लगता है, उसकी तुलनामें अन्य प्रोग्राम कागज के अलग अलग फर्रों जैसे दिखते हैं। संग्रहण के कई स्तरहैं इसमें, प्रथमस्तर वर्कबुक कहलाता है,आप जितनी चाहें वर्कबुक बना सकते हैं, विभिन्न क्षेत्रों के लिये जैसे व्यक्तिगत, प्रशासनिक, लेखन, पठन, तकनीक, मोबाइल समन्वय आदि। हर वर्कबुक में आप कई सेक्शन्स रख सकते हैं जैसे लेखनके अन्दर ब्लॉग, कविता, कहानी, पुस्तकें, संस्मरण, डायरी, टिप्पणी इत्यादि, यही नहींआप कई सेक्शन्स को समूह में रखकर एक सेक्शनसमूह बना सकते हैं। हर सेक्शन में आप कितने ही पृष्ठ रख सकते, एक तरह के विषयों से सम्बन्धित उपपृष्ठ भी।
हरपृष्ठ पर आप कितने ही बॉक्स बनाकर अपनी जानकारी रख सकते हैं, उन बाक्सों के कहीं पर भी रखा जा सकता है। शब्द, टेबल, चित्र, ऑडियो, कुछ भी उनमें सहेजा जा सकता है। आप स्क्रीन परआये किसी भी भाग को चित्र के रूप में सहेज सकते हैं, किसी भी सेक्शन को पासवर्ड से लॉक कर सकते हैं। मेरी सारी सूचनायें इस समयवननोट में ही स्थित हैं।
वननोट का ढाँचा
अबसंक्षिप्त में इसके लाभ गिना देता हूँ। इसमें बार बार सेव करने की आवश्यकता नहींपड़ती है, स्वयं ही होता रहता है।मैंने अपनी कई वर्कबुकों को इण्टरनेट में विण्डोलाइव से जोड़ रखा है, कहीं पर कुछ भी बदलाव करने से स्वतः समन्वय होजाता है। एक वर्कबुक मेरे विण्डो मोबाइल से भी सम्बद्ध है,मोबाइल पर लिखा इसमें स्वतः आ जाता है। यदि कभी किसी बैठकमें किसी आलेख की आवश्यकता पड़ती है तो उसे मोबाइल की वर्कबुक में डाल देता हूँ, वह मोबाइल में स्वतः पहुँच जाती है। सूचना कातीनों अवयवों में निर्बाध विचरण।
आउटलुकमें ईमेल, ब्लॉग फीड या अन्य अवयवोंको सहेज कर पढ़ना चाहें तो सेण्डटु वननोटका बटन दबाते ही सूचनावननोट में संग्रहित हो जाती है। इसी प्रकार कोई भी वेब पृष्ठ स्वतः ही वननोट मेंसहेज लेता हूँ। यदि उसे मोबाइल में पढ़ना है तो उसे मोबाइल की वर्कबुक में भेजदेता हूँ।
आप किसीभी वाक्य को कार्य में बदल सकते हैं, वह स्वतः ही आउटलुक में पहुँच जायेगा और वननोट के उस पृष्ठ से सम्बद्धरहेगा। किसी भी वाक्य या शब्द में टैग लगाने की सुविधा होने के कारण आप जब भी सारदेखेंगे तो सारे टैगयुक्त वाक्य एक पृष्ठ में आ जायेंगे। मैं उसी पृष्ठ को उस दिन की कार्यसूची के रूप में नित्य सुबह मोबाइल में सहेज लेता हूँ।

मेरे पंच प्यारे
लगभगतीन वर्षों से मैं कागज और पेन लेकर नहीं चला हूँ। बैठकों में अपने मोबाइल पर हीटाइप कर लेता हूँ और यदि समय कम हो तो हाथ से भी लिख लेता हूँ। एक सूचना को कभीदुबारा डालने की आवश्यकता अभी तक नहीं पड़ी है। दो वर्ष पहले किसी विषय पर आयेविचार अब तक संदर्भ सहित संग्रहित हैं। किसी भी शब्द को डालने भर से वह किन किनपृष्ठों पर है, स्वतः सामनेप्रस्तुत हो जाता है।
हाथ सेलिखा बहुत ही ढंग से रखता है वननोट, आने वाले समय में हाथ से लिखी हिन्दी को भी यूनीकोड में बदलेगा कम्प्यूटरतब हम अपने बचपन के दिनों में वापस चले जायेंगे और सब कुछ स्लेट पर ही उताराकरेंगे।
लाभ अभीऔर भी हैं, आपकी उत्सुकता जगा दी है, शेष भ्रमण आपको करना है। या कहें कि दोइक्के आपको दे दिये हैं, तीसराआपको अपना फिट करना है, सोच समझ करकीजियेगा।