न दैन्यं न पलायनम्

आनन्द मनाओ हिन्दी री

पिछला एक माह परिवर्तन का माह रहा है मेरे लिये, स्वनिर्मित आवरणों से बाहर आकर कुछ नया स्वीकार करने का समय। स्थिरता की अकुलाहट परिवर्तन का संकेत है पर बिना चरम पर पहुँचे उस अकुलाहट में वह शक्ति नहीं होती जो परिवर्तन को स्थिर रख सके, अगली अकुलाहट तक। मन संतुष्ट नहीं रहता है, सदा ही परिवर्तनशील, सदा उसकी सुनेगे तो भटक जायेंगे, अकुलाहट तक तो रुकना होगा। विकल्प की उपस्थिति, उसकी आवश्यकता और उसे स्वयं में समाहित कर पाने की क्षमता परिवर्तन के संकेत हैं, यदि वे संकेत मिलने लगें तो आवरण हटा कर बाहर आया जा सकता है।

एक माह पहले मैक पर जाने के बाद से समय बड़ा गतिशील रहा है, पहले मेरे लिये, फिर एप्पल के लिये और अब हिन्दी के लिये। नये परिवेश को समझने के साथ साथ प्रशासनिक व साहित्यिक गतिशीलता बनाये रखना कहीं अधिक ऊर्जा माँगती है। आत्मीयों का प्रयाण, पहले हिमांशुजी, फिर स्टीव जॉब, मन को विचलित और दृष्टि को दार्शनिक रखने वाली घटनायें थीं। नये एप्पल आईफोन के साथ में आईओएस५ और आईक्लाउड का आगमन नयी संभावनाओं से पूर्ण था, पिछला सप्ताह उन संभावनाओं को खोजने और उस पर आधारित कार्यशैली की रूपरेखा बनाने में निकल गया।

ऐसा नहीं है कि एप्पल हर कार्य को सबसे पहले कर लेने हड़बड़ी में रहता हो, यद्यपि कई नयी तकनीकों व उत्पादों का श्रेय उसे जाता है। जिस बात के लिये उसे निश्चयात्मक श्रेय मिलना चाहिये, वह है उसकी अनुकरणीय गुणवत्ता और उत्पादों को सरलतम और गहनतम बना देने का विश्वास। मैकिन्टॉस, आईपॉड, आईफोन, आईपैड, मैकबुकएयर, सब के सब अपने क्षेत्रों के अनुकरणीय मानक हैं। आईओएस५ और आईक्लाउड के माध्यम से वही कार्य क्लॉउड कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में भी किया गया है। आईओएस५ में अन्य तत्वों के अतिरिक्त आईक्लाउड ऐसा तत्व है जो क्लॉउड कम्प्यूटिंग के आगामी मानक तय करेगा।

अन्तर्बद्ध अवयव
क्लॉउड कम्प्यूटिंग अपनी सूचनाओं और प्रोग्रामों को इण्टरनेट पर रखने व वहीं से सम्पादित करने का नाम है। मूलतः दो लाभ हैं इसके, पहला तो आपकी सूचनायें सुरक्षित रहती हैं, इण्टरनेट पर जो कि आप कहीं से भी देख सकते हैं और साझा कर सकते हैं। दूसरा लाभ उन लोगों के लिये है जो मोबाइल और कम्प्यूटर, दोनों पर सहजता से कार्य करते हैं और उन्हें दोनों के ही बीच एक सततता की आवश्यकता होती है। कई स्थूल विधियाँ हैं, या तो आप याद रखें कि कहाँ पर क्या सहेजा है और उसे हर बार विभक्तता से प्रारम्भ करें, या आप अपना सारा कार्य बस इण्टरनेट पर ही निपटायें, या एक पेन ड्राइव के माध्यम से अपनी सूचनायें स्थानान्तरित करते रहें। उपरोक्त विधियाँ आपका कार्य तो कर देंगी पर अनावश्यक ऊर्जा भी निचोड़ लेंगी।

अब आईक्लाउड की सूक्ष्म प्रक्रिया देखिये, मैं अपने आईपॉड में एक अनुस्मारक लगाता हूँ, वाहन में, कार्यालय आते समय। कार्यालय आकर बैठकों में व्यस्त हो जाता हूँ, आकर लैपटॉप पर देखता हूँ, तो वही अनुस्मारक उपस्थित रहता है उसमें। सायं बैठकर बारिश में कविता की कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ लैपटॉप पर, अगली सुबह एयरपोर्ट जाते समय झमाझम होती बारिश में आधी पंक्तियों को पूरी करने की प्रेरणा मिलती है, आईपॉड पर स्वतः आ चुकी कविता पर लिखना प्रारम्भ कर देता हूँ। जितनी सूक्ष्मता से सततता बनी रहती है, उतनी ही विधि की गुणवत्ता होती है। प्रयोग कर के देखा, एक अनुस्मारक को मोबाइल से लैपटॉप पर पहुँचने में केवल १६ सेकण्ड लगे, अविश्वसनीय!

हिन्दी कीबोर्ड, अन्ततः
आईक्लाउड मेरे लिये संभवतः अर्धोपयोगी ही रहता यदि आईओएस५ में हिन्दी न आती। हिन्दी कीबोर्ड, अन्तर्निहित शब्दकोष और आईक्लाउड ने मेरी मैकबुक एयर और मेरे आईपॉड में न केवल प्रेरणात्मक ऊर्जा भर दी वरन उनको सृजनात्मकता से अन्तर्बद्ध कर दिया है। अब न कभी कोई विचार छूट पायेगा कहीं, कोई प्रयास न व्यर्थ जायेगा कहीं, बनी रहेगी उत्पादक सततता सभी अवयवों के बीच। आपने यदि अब तक अनुमान लगा लिया हो कि यह नया आईफोन खरीदने की बौद्धिक प्रस्तावना बनायी जा रही है, तो आप मेधा अब तक गतिशील है।

आईफोन की उमड़ती इच्छाओं के अब चाहें जो भी निष्कर्ष हों, पर हिन्दी लेखन के लिये निसन्देह एक उत्सवीय क्षण आया है, वह भी इतनी प्रतीक्षा के पश्चात, भरपूर प्रसन्न होने के लिये, मुदित हो मगन होने के लिये।

आनन्द मनाओ हिन्दी री..

मेरी बिटिया पढ़ा करो

माना तुमको गुड्डे गुड़िया पुस्तक से प्रिय लगते हैं,

माना अनुशासन के अक्षर अनमन दूर छिटकते हैं,
माना आवश्यक और प्यारी लगे सहेली की बातें,
माना मन में कुलबुल करती बकबक शब्दों की पातें,
पर पढ़ने के आग्रह सम्मुख, प्रश्न न कोई खड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।१। 
विद्यालय जाना बचपन का एक दुखद निष्कर्ष सही,
रट लेने की पाठन शैली लिये कोई आकर्ष नहीं,
उच्छृंखल मंगल में कैसे भाये सध सधकर चलना,
बाहर झमझम बारिश, सूखे शब्दों से जीवन छलना,
पर भविष्य को रखकर मन में, वर्तमान से लड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।२।
बालमना हो, बहुत खिलौने तुमको भी तो भाते हैं,
मन में दृढ़ हो जम जाते हैं, सर्वोपरि हो जाते हैं,
पढ़ने का आग्रह मेरा यदि, तो तुम राग वही छेड़ो,
केवल अपनी बातें मनवाने को दोष तुरत मढ़ दो, 
आज नहीं तो कल आयेंगे, हठ पर न तुम अड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।३।
नहीं अगर कुछ हृदय उतरता, झरझर आँसू बहते क्यों,
बस प्रयास कर लो जीभर के, ‘न होगा यह’ कहते क्यों,
देखो सब धीरे उतरेगा, प्रकृति नियम से वृक्ष बढ़े,
बीजरूप से महाकाय बन, नभ छूते हैं खड़े खड़े,
बस कॉपी में सुन्दर लेखन, हीरे मोती जड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।४।
शब्द शब्द से वाक्य बनेंगे, वाक्य तथ्य पहचानेंगे,
तथ्य संग यदि, निश्चय तब हम जग को अच्छा जानेंगे,
ज्ञान बढ़े, विज्ञान बढ़े, तब आधारों पर निर्णय हो,
दृष्टि वृहद, संचार सुहृद, तब क्षुब्ध विषादों का क्षय हो,
आनन्दों का आश्रय होगा, शब्दों से नित जुड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।५।
है अधिकार पूर्ण हम सब पर, घर में जो है तेरा है,
एक समस्या, आठ हाथ हैं, संरक्षा का घेरा है,
सबका बढ़ना सब पर निर्भर, यह विश्वास अडिग रखना,
संसाधन कम पड़ते रहते, मन का धैर्य नहीं तजना,
छोटे छोटे अधिकारों पर, भैया से मत लड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।६।
यही एक गुण भेंट करूँगा, और तुम्हें क्या दे सकता,
जितना संभव होगा, घर की जीवन नैया खे सकता,
एक सुखद बस दृश्य, खड़ी तुम दृढ़ हो अपने पैरों पर,
सुख दुख तो आयें जायेंगे, रहो संतुलित लहरों पर, 
निर्बन्धा हो, खुला विश्व-नभ, पंख लगा लो, उड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।७।
क्या बनना है, निर्भर तुम पर, स्वप्न तुम्हे चुन लाने हैं,
मन की अभिलाषा पर तुमको अपने कर्म चढ़ाने हैं,
साथ रहूँगा, साथ चलूँगा, पर निर्भरता मान्य नहीं,
राह कठिनतम आये, आये, तुम भी हो सामान्य नहीं,
तुम सब करने में सक्षम हो, स्वप्न हृदय का बड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।८।
है पितृत्व का बोध हृदय में, ध्यान तुम्हारा रखना है,
मिला दैव उपहार, पालना सृष्टि श्रेष्ठ संरचना है,
रीति यही मैं रीत रहूँ, लेकिन तू जिस घर भी जाये,
प्रेम हृदय में संचित जितना, उस घर जाकर बरसाये,
मेरे मन में, यह दृढ़निश्चय, नित-नित थोड़ा बड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।९।

मेरी बिटिया…पढ़ा करो

मैकपूर्ण अनुभव का एक माह

पिछली पोस्ट में मैकबुक एयर की विस्तृत समीक्षा नहीं कर पाया था, कारण था उसकी कार्यप्रणाली को समझने में लगने वाला समय। अपनी आवश्यकतानुसार सही लैपटॉप पा जाने के बाद उस पर कार्य करना अभी शेष था। दो विकल्प थे, पहला पुराने लैपटॉप पर कार्य करते करते नये के बारे में धीरे धीरे ज्ञान बढ़ाना, दूसरा था सारा कार्य नये में स्थानान्तरित कर पूर्णरूपेण कार्य प्रारम्भ कर देना। यद्यपि मुझे मैकबुक में विण्डो चलाने की तीन विधियाँ ज्ञात थीं पर मैक पर बिना प्रयास करे उसे छोड़ देना मुझे स्वीकार नहीं था। एक शुभचिन्तक ने भी कम से कम एक माह मैक उपयोग करने के पश्चात ही कोई निर्णय लेने को कहा था। मैने मैकपूर्ण अनुभव का एक माह जीने का निश्चय किया।

सब स्थानान्तरित
सर्वप्रथम कार्य था, अपने सारे सम्पर्क, बैठक, कार्य व नोट का मोबाइल व मैक के बीच समन्वय करना। ब्लैकबेरी के डेक्सटॉप मैनेजर के माध्यम से वह कार्य कुछ ही मिनटों में हो गया। विण्डो के आउटलुक के स्थान पर मैक में तीन प्रोग्राम होते हैं, मेल, एड्रेस बुक व आईकैल। मेरा मोबाइल अब दो लैपटॉपों के बीच का समन्वय सूत्र भी है।
दूसरा था ब्रॉउज़र का चुनाव, सफारी में थोड़ा कार्य कर के देखा, क्रोम जितना सहज नहीं लगा। अन्ततः क्रोम डाउनलोड कर लिया, सारे बुकमार्क्स आदि के सहित। देवनागरी इन्स्क्रिप्ट लेआउट मैक में है, कीबोर्ड पर दो कारणों से स्टीकर नहीं लगाये, पहला अभ्यास और दूसरा कीबोर्ड का बैकलिट होना। मैं पिछले कई दिनों से आपके ब्लॉग पर टिप्पणियाँ मेरे मैक से ही बरस रही हैं, उसमें से अधिकांशतः बच्चों के सोने के बाद रात के अँधेरे में बैकलिट कीबोर्ड के माध्यम से टाइप की गयी हैं।
वननोट जैसा ही
तीसरा था अपने समस्त लेखन को वननोट के समकक्ष किसी प्रोग्राम में सहेजना। इण्टरनेट पर चार सम्भावितों में ग्राउलीनोट्स लगभग वननोट जैसा ही था। वननोट से सभी लेखों को वर्ड्स में बदल कर मैक पर ले गया। नये रूप में उन्हें व्यवस्थित करने का कार्य लगभग आधा दिन खा गया। पिछली चार पोस्टें ग्राउलीनोट्स में ही लिखी गयी हैं। यद्यपि ऑफिस सूट का अधिक उपयोग नहीं करता हूँ पर किसी संभावित आवश्यकता के लिये ओपेन ऑफिस डाउनलोड कर लिया है।

मुक्त व्यक्त हों भाव सभी

एक टैबलेट पैड का उपयोग पुराने लैपटॉप के साथ करता था, मुक्त हाथ से लिखने व चित्रों पर आड़ी तिरछी रेखायें बनाने के लिये। अपने भावों को शब्दों के अतिरिक्त रेखाओं से व्यक्त करने के लिये वह मैक में अनिवार्य था मेरे लिये। निर्माता की साइट पर गया, उस मॉडल से सम्बद्ध मैक पर चलने वाला ड्राइवर डाउनलोड किया और इन्स्टॉल कर दिया। ६x८ इंच का पैड मैकबुक की स्क्रीन के ही आकार का है। टैबलेट पैड दोनों बच्चों को बहुत सुहाता है, बहुधा ही चित्र बनाने के लिये उसका अधिग्रहण होता रहता है, किसी प्रकार मैने भी आवारगी में बह रहे विचारों को मुक्त हस्त से व्यक्त कर दिया।

११.६ इंच की स्क्रीन में शब्द मोती से स्पष्ट दिखते हैं, फोन्ट का आकार बढ़ाना, पृष्ठों पर तीव्र भ्रमण व अन्य स्थान पर पहुँचने का कार्य उन्नत ट्रैकपैड की सहायता से आशातीत सहज हो जाता है। ४ जीबी रैम व १२८ जीबी सॉलिड स्टेट हार्डड्राईव में फाइलें व प्रोग्राम पलक झपकते ही प्रस्तुत हो जाते हैं। १ किलो के सर्वाधिक पतले लैपटॉप को कहीं भी रखकर ले जाने व कहीं भी खोलकर उस पर लिखने की सुविधा किसी सुखद अनुभव का स्थायी हो जाना है।
बैटरी एक सुखद आश्चर्य रही मेरे लिये। जब लेखन करता हूँ तो वाई फाई बन्द कर देता हूँ। विशुद्ध लेखन में ६ घंटे व विशुद्ध इण्टरनेटीय भ्रमण में ४ः३० घंटे का समय उत्पाद पर दी गयी समय सीमा से कहीं अधिक था। बैटरी को पुनः पूरा चार्ज करने में मात्र १ः३० घंटे का ही समय लगता है। इस उत्कर्ष मानक को पाने के लिये मैक ने कई महत्वपूर्ण सफल प्रयोग किये हैं जिसका शोध एक अलग पोस्ट में लिखूँगा। यह शोध भविष्य में एक अवरोध रूप में खड़ा रहेगा, विण्डो में वापस लौटने के विचारों के सम्मुख।
दमदार बैटरी
अभी तक की यात्रा तो संतुष्टिपूर्ण है, पूरे निष्कर्षों पर पहुँचने तक अनुप्रयोग होते रहेंगे, मैकपूर्ण अनुभव का माह प्रवाहमय बना रहेगा।

मैकपुरुष का प्रयाण

स्टीव जॉब्स(१९५५-२०११)
स्टीव जॉब्स का निधन हो गया, एक युग का सहसा अन्त हो गया। कम्प्यूटर व मोबाइल के क्षेत्र में आधुनिकतम तकनीकों की समग्र परिकल्पना के वाहकों में उनका नाम अग्रतम है। प्रॉसेसर की चिप डिजाइन, हार्डड्राइव का चयन, वाह्य संरचना, उन्नत धातुतत्वों का प्रयोग, ओएस का स्वरूप, प्रोग्रामों की गुणवत्ता, उपयोगकर्ताओं की सुविधा, सतत क्रमिक उन्नतीकरण, नये उत्पाद का प्रस्तुतीकरण, विपणन नीति, बाजार की समझ, तकनीक की क्षमता, इन सभी क्षेत्रों में समग्रता से नायकत्व को निभाने वाले युगपुरुष थे स्टीव जॉब्स।
किसी की क्षमता उसकी कथनी से नहीं वरन करनी से जानी जाती है। आईफोन, आईपैड, मैकबुक जैसे एप्पल के उत्पाद हों या टॉय स्टोरी जैसी पिक्सार की फिल्में, स्टीव जॉब्स ने सदा ही अपने प्रतिद्वन्दियों को, अनमने ही सही, पर अपना अनुकरण करने को बाध्य कर दिया। यदि उत्पादों की गुणवत्ता न देखी होती तो संभवतः उनके जीवन के बारे में जानने का प्रयास भी न करता। उनके जीवन के बारे में पढ़कर उस प्रखरता को समझना सरल हो गया जो उनकी हर रचना में स्पष्ट रूप से झलकती है।
लगभग छह वर्ष पूर्व, स्टैनफोर्ड में नवस्नातकों को दिये अपने संदेश में स्टीव जॉब्स ने मृत्यु की दार्शनिकता पर आधारित जीवन का सिद्धान्त समझाया था, तर्कसंगत, व्यवहारिक व आनन्ददायी। पश्चिमी सभ्यता व युवावस्था के उन्माद के आवरण में भले ही वह दर्शन छात्रों के हृदय में न उतरा हो पर स्वयं स्टीव जॉब्स का जीवन उस दर्शन का साक्षात प्रमाण रहा है। इतिहास में वह दर्शन परीक्षित के उस निर्णय में भी दिखा था जब शेष बचे सात दिनों को उन्होंने जीवन का सत्य समझने व्यतीत किया पर आधुनिक युग में उसे अभिव्यक्त करने और ढंग से निभाने का श्रेय निसंदेह स्टीव जॉब्स को जायेगा।
मृत्यु जीवन के मौलिक परिवर्तन का एकमेव कारक है। जब एक दिन मृत्यु की लहर सब बहाकर ले जाने वाली है तो भय किसका और किससे? जब भय नहीं तो औरों की मानसिक संरचनाओं में अपना जीवन तिरोहित कर देने की मूढ़ता हम क्यों करें? अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने का आनन्द मृत्यु तक ही है आपके पास, वह भला क्यों गवाँया जाये। वह नित्य दर्पण के सामने खड़े होकर सोचते थे कि यदि आज उनका अन्तिम दिन हो तो वह किन कार्यों को प्राथमिकता देंगे और किन व्यर्थ कार्यों को तिलांजलि। उनका मृत्यु-दर्शन-जनित यह चिन्तन ५-१०-२०११ को सत्य तो हो गया पर उसके पहले उन्होने जीवन अपने अनुसार जिया, पूर्ण जिया, उनके द्वारा किये कर्म और प्राप्त की गयी महानता इसका साक्षात प्रमाण है।
जिस युगपुरुष को हर दिन पूर्ण जीवन जी लेने का भान हो, जिसके निर्णय और कर्म उसके मन की बात सुनते हों, जिसके हृदय में विश्व-तकनीक की दिशा को निर्धारित करते रहने की संतुष्टि हो, जिसका अनुकरण कर पाने का सपना लिये लाखों युवा अपने जीवन की योजना बनाते हों, जिसका धन और यश उसके कर्म की उपलब्धि रही हो, उसके स्वयं के लिये भले ही मृत्यु उतनी पीड़ासित न हो पर परिवार, मित्र, कम्पनी के सहयोगी, प्रशंसक तो सदा ही उनके द्वारा रिक्त स्थान निहारते रहेंगे। ५६ वर्ष का जीवन भले ही युग न कहा जाये पर उनका कृतित्व उन्हें युगपुरुष की श्रेणी में स्थापित करता है।
दो वर्ष पहले मेरा ब्लॉग जगत में आना और दूसरी पोस्ट में ही उनके इस दर्शन के बारे में चर्चा करना एक संयोग मात्र नहीं था। इस संदेश को सुनकर, उस पर बिना मनन किये न रह सका। जीवन की सीमितता में मन को भाने वाली सब चीजों को कर लेने की व्यग्रता से नित्य परिचित होता था, लेखन भी उसमें एक था। जहाँ एक ओर स्टीव जॉब का यह संदेश प्रेरणा था वहीं ज्ञानदत्तजी का उत्साहवर्धन एक दैवीय संकेत। इन सबका सम्मिलित प्रभाव ही था कि अस्पष्ट और छुटपुट लेखन छोड़, लघु स्वरूप में ही सही, पर नियमित लेखन प्रारम्भ किया। हर पोस्ट अपनी अन्तिम पोस्ट मान उस पर अपना प्रयास व सृजन छिड़कना चाहता हूँ। पिछले दो वर्षों में समय की गुणवत्ता और जीवन के सरलीकरण के माध्यम से आये सार्थक बदलावों में जिस लेखनकर्म ने मेरी सहायता की है, उसका श्रेय स्टीव जॉब्स को ही है।

यदि मैकबुक एयर जैसी  बनावट की सरलता, सौन्दर्यपूर्ण स्थायित्व, सृजनात्मक कलात्मकता, प्रक्रियागत एकाग्रता व व्यवहारिक उपयोगिता अपने जीवन में  सप्रयास उतार पाया तो उसका भी श्रेय स्टीव जॉब्स को ही जायेगा।

नमन मैकपुरुष, नमन युगपुरुष।

मधुरं मधुरं, स्मृति मधुरं

कल देवेन्द्रजी के ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ी, पढ़ते ही चेहरे पर एक स्मित सी मुस्कान खिंच आई। विषय था गृहणियों के बारे में और प्रसंग था उनकी एक २५ वर्ष पुरानी सहपाठी का। होनहार छात्रा होने के बाद भी उन्होने कोई नौकरी न करते हुये एक गृहणी के दायित्व को स्वीकार किया और उसे सफलतापूर्वक निभाया भी। पता नहीं वह त्याग था या सही निर्णय पर हमने वह आलेख अपनी श्रीमतीजी को पढ़ाकर उनका अपराधबोध व अपने मन का बोझ कम कर लिया। 
देवेन्द्रजी के लिये, २५ वर्ष पुरानी स्मृति में उतराते हुये अपनी मित्र के लिये निर्णयों को सही ठहराना तो ठीक था पर विषय से हटकर उनकी सुन्दरता का जो उल्लेख वे अनायास ही कर बैठे, वह उनके मन में अब भी शेष मधुर स्मृतियों की उपस्थिति का संकेत दे गया। आदर्शों की गंगा में यह मधुर लहर भी चुपचाप सरक गयी होती पर अपनी श्रीमतीजी को वह आलेख पढ़ाने की प्रक्रिया में वह लहर पुनः उत्श्रंखल सी लहराती दिख गयी। इस तथ्य पर उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिये जब उन्हें फोन किया तो मुझे लग रहा था कि स्मृतियों की मधुरता पर उन्हें छेड़ने वाला मैं पहला व्यक्ति हूँ, पर उनके उत्तर से पता लगा कि उनकी श्रीमतीजी इस विषय को लेकर उन पर अर्थपूर्ण कटाक्ष पहले ही कर चुकी हैं। 
पुष्प दोष है या स्मृति है
इस पूरी घटना से भारतीय विवाहों के बारे में दो तथ्य तो स्पष्ट हो गये। पहला यह कि विवाह के कितने भी वर्ष हो जायें, विवाह पूर्व की स्मृतियाँ हृदय के गहनतम कक्षों में सुरक्षित पड़ी रहती हैं और सुखद संयोग आते ही चुपके से व्यक्त हो जाती हैं। न जाने किन तत्वों से बनती हैं स्मृतियाँ कि २५ वर्ष के बाद भी बिल्कुल वैसी ही संरक्षित रहती हैं, कोमल, मधुर, शीतल। कई ऐसी ही स्मृतियाँ विवाह के भार तले जीवनपर्यन्त दबी रहती हैं। दूसरा यह कि विवाह के कितने ही वर्ष हो जायें पर भारतीय गृहणियों को सदा ही यह खटका लगा रहता है कि उनके पतिदेव की पुरानी मधुर स्मृतियों में न जाने कौन से अमृत-बीज छिपे हों जो कालान्तर में उनके पतिदेव के अन्दर एक २५ वर्ष पुराने व्यक्तित्व का निर्माण कर बैठें। 
इतने सजग पहरे के बीच बहुत पति अपने उद्गारों को मन में ही दबाये रहते हैं और यदि कभी भूलवश वह उद्गार निकल जायें तो संशयात्मक प्रश्नों की बौछार झेलते रहते हैं। अब जब इतना सुरक्षात्मक वातावरण हो तो भारतीय विवाह क्यों न स्थायी रहेंगे। भारतीय पति भी सुरक्षित हैं, उनकी चंचलता भी और भारत का भविष्य भी। 
‘न मुझे कोई और न तुझे कहीं ठौर’ के ब्रह्मवाक्य में बँधे सुरक्षित भारतीय विवाहों में अब उन मधुर स्मृतियों का क्या होगा, जो जाने अनजाने विवाह के पहले इकठ्ठी हो चुकी हैं, उन कविताओं का क्या होगा जो उन भावों पर लिखी जा चुकी हैं? क्या उनको कभी अभिव्यक्ति की मुक्ति मिल पायेगी? मेरा उद्देश्य किसी को भड़काना नहीं है, विशेषकर विश्व की आधी आबादी को, पर एक कविमना होने के कारण इतनी मधुरता को व्यर्थ भी नहीं जाने दे सकता।
देवेन्द्रजी सरलमना हैं, भाभीजी उतनी ही सुहृदय, घर में एक सोंधा सा सुरभिमय खुलापन है, निश्चय ही यह हल्का और विनोदपूर्ण अवलोकन एक सुखतरंग ही लाया होगा। पर आप बतायें कि वो लोग क्या करें जो इन मधुर स्मृतियों में गहरे दबे हैं? क्या हम भारतीय इतने उदारमना हो पायेंगे जो  भूतकाल की छाया से वर्तमान को अलग रख सकें? 
प्रेम तो उदारता में और पल्लवित होता है।
चित्र साभार – http://www.123rf.com/

प्रयोग की वस्तु

कौन बताये रंग हमारा
एक अवलोकन सदा ही अचम्भित करता है। जब किसी भी वाद को उसके उद्गम से तुलना करने बैठता हूँ तो दोनों के बीच में भ्रान्ति की चौड़ी खाई दिखायी पड़ती हैं। अन्तर ठीक वैसा ही दिखता है जैसा गंगोत्री और गंगासागर के गंगाजल के बीच होता है। गंगा का नाम ही, अपने जल में वह धार्मिक पवित्रता बनाये रखता है, अन्त तक। कालान्तर में नाम और उसके अर्थ के बीच का अन्तर गहराने लगता है। अर्थ जब श्रेष्ठता धारण नहीं कर सकता है तो नाम का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है, धीरे धीरे वह प्रयोग की वस्तु बन जाती है।
ऐसे ही कई नाम हैं जिनका हम आज भी साधिकार बलात प्रयोग कर रहे हैं। आपकी कल्पना कुछ विवादित विषयों की ओर मुड़े, उसके पहले ही मैं कबीर का उदाहरण देना चाहता हूँ। कबीर के दोहे यद्यपि हिन्दी साहित्य के प्राथमिक प्रसंगों में आते हैं, हिन्दी विकास के प्रथम अर्पणों से सुशोभित हैं, पर मेरे लिये वे सत्य, सरलता और साहस के उत्कर्ष के प्रतीक हैं। इतनी निर्भयता से सत्य कहना और वह भी मौलिक सरलता से, यह कबीर का हस्ताक्षर है, यही कबीर का वास्तविक अर्थ है। सत्य पंथनिरपेक्ष होता है, निर्भयता सत्तानिरपेक्ष होती है और सरलता व्यक्तिनिरपेक्ष। ऐसी घटनायें जनमानस को प्रभावित करती हैं, बहुत लोग उनके अनुयायी बन गये, कबीरपंथ चल पड़ा। जिन गुणों के लिये यह ऐतिहासिक उभार जाना जाता है, वे कभी पुनः सम्मुख आये ही नहीं। नाम आज भी जीवित है, पर शिथिल है, अपने अनुनायियों के अर्थों को ढोने में।
कोई दूसरा कबीर आता तो कबीर की निर्भयता, सरलता व सत्यसाधना को सार्थकता मिल जाती। जिन हस्ताक्षरों को हर व्यक्तित्व पर होना था, उन्हें ऐतिहासिक और साहित्यिक बना कर छोड़ दिया गया है, एक प्रयोग की वस्तु बनाकर। इस दुर्दशा का कारण भी कबीर बता गये हैं, मरम न कोउ जाना। यही मर्म समझना है, नहीं तो कालान्तर में कितने ही श्रेष्ठ सिद्धान्तों व उससे सम्बद्ध नामों को हम प्रयोग की वस्तु बना देंगे।
महापुरुषों के नाम से परे उनके मर्म को समझना होगा। बिना मर्म समझे महापुरुषों के नाम का महिमामंडन और उनका अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये समुचित बटवारा। पता नहीं कि हम उनके बताये हुये मार्ग पर चलना चाह रहे हैं या उनके नामों को सीढ़ी की तरह प्रयोग कर ऊपर बढ़ना चाह रहे हैं। यदि कहीं वे ऊपर बैठे हमारे कर्मों को देख रहे होंगे तो निश्चय ही अपने नाम का प्रयोग देख विक्षुब्ध हो गये होंगे। उनके अपने जीवनों में भी सिद्धान्त सर्वोपरि थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।
आवरणों में जकड़े महापुरुष
नाम का स्वार्थ-प्रयोग भक्तिमार्गियों के लिये एक अक्षम्य अपराध है क्योंकि उनके लिये ईश्वर के नाम और स्वरूप में कोई भेद ही नहीं होता है। स्वरूप का निर्माण गुणों से होता है, अन्ततः गुण ही मर्म हैं शेष स्वार्थ का पोषण है। नाम-स्वरूप-गुण के प्रति व्यक्त श्रद्धा को एक प्रतीक का रूप दे दिया जाता है, प्रतीकों पर स्वार्थों के आवरण चढ़ा दिये जाते हैं, कालान्तर में आवरण प्रतीक से अधिक महत्व ग्रहण कर लेते हैं, आवरणों की जय जयकार होने लगती है, आवरण मलिन हो जाते हैं, नाम प्रयोग में बना रहता है।
गांधी की खादी प्रतीक बन गयी कोई उससे शरीर सुशोभित करता है, कोई उसे सर में धरता है, कोई उससे जूते भी साफ कर लेता है। सत्य कटु है पर गांधी प्रयोग की वस्तु हो गये हैं वर्तमान में।
आवरणों को हटायें, महापुरुषों का मर्म समझें, उन्हें स्वार्थवश प्रयोग की वस्तु न बनायें, आपको उनकी छटपटाहट देखनी ही होगी, अपनी स्वार्थ कारा से उन्हें मुक्ति दे दें।

हे विधाता !

सुबह परिचालन के मानक सुदृढ़ थे, आवश्यक जानकारी प्राप्त कर व समुचित दिशा निर्देश देकर जब कार्यालय पहुँचा तो मन बड़ा ही हल्का था, मंडल भी हल्का था और गतिमय भी। तभी एक परिचित वरिष्ठ अधिकारी का फोन आया और जो समाचार मिला, उसे सुनने के बाद पूरा शरीर शिथिल पड़ गया, ऐसा लगा कि कान में खौलता लौह उड़ेल दिया गया। पल भर पहले का हल्कापन जड़ता में परिवर्तित हो गया, पैरों में बँधा विधि का पाथर पूरे अस्तित्व को विषाद की गहराई में खींच ले गया, बस एक आह ही निकल पायी, हे विधाता!
क्या कहें, हम अश्रु डूबे
हिमांशु मोहनजी के असामयिक देहावसान का समाचार विधि के अन्याय के प्रति इतना क्षोभ उत्पन्न कर गया कि ज्ञान, निस्सारता, तर्क आदि शब्द असह्य से प्रतीत होने लगे। जीवन है, नहीं तो सब घटाटोप, अंधमय, शून्य, रिक्त, लुप्त। सुख-दुख का द्वन्द्व तो सहन हो जाता है, पर जीवन-मरण का द्वन्द्व तो छल है ईश्वर का, सहसा सब निर्द्वन्द्व, सब निस्तेज, सब निष्प्रयोज्य, सब निरर्थ।
जिसने कभी किसी के हृदय को पीड़ा न दी हो, जिसका हृदय शान्त और स्थिर हो, जिसका सानिध्य आपका हृदय उल्लास से भर दे, उसे हृदयाघात? कहाँ का न्याय है यह, हे भगवन्? क्या दूसरे की पीड़ा हल्का करने का दण्ड दे गये उन्हें। यही न, कि क्या अधिकार था उन्हें कलियुग में सतयुगी स्वांग रचाने का, सदाशयता फैलाने का, क्या उन सबकी सम्मिलित पीड़ा दे दी उन्हें, हृदय में?   
स्तब्ध हूँ, दुखी हूँ और बहुत खिन्न भी। जब से पता चला है, किसी कार्य में मन नहीं लग रहा है। जिस चेहरे पर छिटकी प्रसन्नता सारे अवसाद वाष्पित कर उड़ा देती थी, विश्वास ही नहीं हो रहा है कि वह चेहरा शान्त हो गया है। अब क्या वह स्मित मुस्कान फिर न दिखेगी जो मेरी इलाहाबाद की असहज यात्राओं में एक आस रेख बन चमकती रहती थी? अब इलाहाबाद की यात्रा के हर उन दो घंटों में कौन सी रिक्तता ढोये घूमूँगा जिसमें कभी उन्मुक्त हँसी, नीबू की चाय, छोटे समोसे और ढेर सा स्नेह भरा रहता था।
९ वर्ष अग्रज होने का तथ्य, उनके सहज और मित्रवत स्नेह के सम्मुख भयवश कभी नहीं आया। जब भी मिला, लगा कि सब कुछ छोड़ बस मेरी ही राह तक रहे हैं, मेरी समस्याओं से पहले से ही अवगत हैं और उसी के निवारण के लिये आज कार्यालय भी आये हैं। इतनी आत्मीयता कि अविश्वसनीय लगे, मेरे लिये ही नहीं, सबके साथ। जब सब परिचित यही विचार संचारित करने लगें तो संभवतः ईश्वर को भी अधिक कठिनाई नहीं हुयी हो, हिमांशुजी को अपना आत्मीय सहचर बनाने में। तब पहले ही आगाह कर देना था कि अधिक प्रेम घातक है।  
सहृदय की साहित्य में रुचि स्वाभाविक है। गज़ल से अप्रतिम प्रेम, प्रकृति का स्फूर्त सानिध्य, इतिहास अवलोकन का सारल्य, कलात्मक सृजनीयता, तकनीक प्रदत्त नवीनता, शब्दों और अर्थों की लुकाछिपी सुलझाती बौद्धिकता और उस पर से व्यक्तित्व की तरलता। भैया, स्वयं को धरा के योग्य बनाये रखना था, ईश्वर को भी बहाना न मिलता, हमारा स्वार्थ भी रह जाता।
दुख आज विशेष रूप लेकर आया है, मन के भाव छिपाने के लिये चेहरे पर गाढ़ी कालिमा पोत कर आया है, उसे आज कुछ भी नहीं दीखता है, अम्मा की पीड़ा भी नहीं, परिवार की स्तब्धता भी नहीं, मित्रों की पुकार भी नहीं। प्रकृति खड़ी संग में निर्दय स्वर बाँच रही है।
आपने गज़ल में रुचि जगायी थी, मार्गदर्शन किया था, आपकी पोस्ट पर की टिप्पणी स्मृति-स्वरूप अर्पित है।   
आपने तो चादरें फ़ाका-ए-मस्ती ओढ़ ली,
हमसे बोले ढूढ़ लाओ कुछ लकीरें आग की।

शब्द जो थपेड़े से थे

शब्दोंका बल नापा नहीं जा सकता है, पर जबउनका प्रभाव दिखता है तो अनुमान हो जाता है कि शब्द तीर से चुभते हैं, हृदय में लगते हैं, भावों को प्रेरित करते हैं, अस्तित्व उद्वेलित करते हैं। कुछ शब्दों में अथाह शक्ति थी, उन्होने इतिहास की दिशा बदल दी। पिता का वचन औरराम चौदह वर्ष के वनवास स्वीकार कर लेते हैं, पत्नी की झिड़की और तुलसीदास राम का चरित्र गढ़ने में जीवन बिता देते हैं, सौतेली माँ की वक्र टिप्पणी और ध्रुव विश्व मेंअपना स्थायी स्थान ढूढ़ने निकल जाते हैं। शब्दों का मान रखने के लिये के लियेवीरों ने राजपाट तो दूर, अपना रक्तभी बहा दिया है। शरणागत की रक्षा के लिये अपना सब कुछ स्वाहा करने के उदाहरणों सेहमारा इतिहास भरा पड़ा है।
वैसे तोकितना कुछ हम बोलते रहते हैं, सुनतेरहते हैं, बातें आयी गयी हो जातीहैं। शब्दों की उसी भीड़ में कब कौन सा वाक्य आपको झंकृत कर देन जानेकौन सा वाक्य कब आप पर प्रभाव डाल दे, चुभ जाये या जीवन की दिशा बदल दे, आपको भान नहीं रहता है। वह कौन सी मनःस्थिति होती है जिस पर शब्दप्रभावकारी हो जाते हैं? भारतीयजनमानस वैसे तो सहने के लिये विख्यात है, हम न जाने कितनी बातें पचा जाते हैं पर कब शब्दों के प्रवाह हमें बहाले जाये, इस पर बड़ी अनिश्चितता है।
जिनघरों में नित्य टोका टाकी होती है वहाँ के बच्चे इस प्रकार के शब्दप्रहारों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करलेते हैं, धीरे धीरे संवेदनशीलताकुंठित होने लगती है, किसी का कुछकहना बहुत अधिक प्रेरित या उद्वेलित नहीं करता है उन्हें। समस्या तब आती है जबआपको पहली बार कुछ सुनने को मिलता है, आपकी संवेदनशीलता पर पहली चोट पड़ती है। याद कीजिये, आप सबके जीवन में वह क्षण आया होगा जब शब्दोंने अपनी वाकऊर्जा से कई गुना कंपनआपके शरीर में उत्पन्न किया होगा, आपहिल गये होंगे, आप बहुत कुछ सोचनेलगे होंगे। ऐसे अवसर प्रकृति सबको देती है, भले ही कोई विद्यालय गया हो या न गयाहो, जीवन की पाठशाला में कोई निरक्षर नहीं है, ऐसी परिस्थितियों और घटनाओं केमाध्यम से सबकी समुचित शिक्षा और परीक्षा चलती रहती है। संवेदनशीलता यही है कि हमसदा ही सीखने और उसे व्यक्त करने को तत्पर रहें।
मन उलीचते शब्द थपेड़े

संवेदनशीलतायदि कुछ नयापन लाती है तो दुःख भी लाती है। जिन पर भावों का आश्रय टिका होता है, जिनसे अभिलाषाओं के सूत्र बँधे होते हैं, जिनसे आपको उत्तरों की प्रतीक्षा रहती है, उनसे यदि कुछ कठोर सा लगने वाला शब्द आपकोसुनायी देता है तो आपको संभावनाओं के सारे कपाट बंद से दिखते हैं। कई अतिभावुक जनइसे सहन नहीं कर पाते हैं और बहुधा अप्रिय कर बैठते हैं। जो शब्दों का मर्म समझतेहैं उनके लिये एक कपाट का बन्द होना उन प्रयत्नों का प्रारम्भ है जिसके द्वाराजीवन के उजले पक्ष खुलते जाते हैं।

भाग्यशालीहैं हम सब भाई बहन कि घर में सदा ही निर्णय लेने का अधिकार मिला है, स्वतन्त्र विचारशैली व जीवनशैली को सम्मान मिलाहै, मातापिता का स्नेहकवच सदा हीपल्लवित करता रहा है। यही कारण था कि लड़कपन तक एक हल्कापन और स्वच्छन्दताजीवनशैली में रची बसी रही। हाईस्कूल में सामान्य से अंक देख बस पिता ने यही कहा कियदि इतनी सुविधा उन्हें मिली होती तो उनका प्रदेश में कोई स्थान आया होता। ये शब्दपूरे अस्तित्व को झंकृत कर गये, आनेवाले वर्षों की दिशा निर्धारित कर गये। इण्टरमीडियेट में बोर्ड में स्थान आ गया, आईआईटी में पढ़ने का अवसर मिल गया, सिविल सेवा में चयन हो गया, जीवन में स्थायित्व भी आ गया, पर 25 वर्ष बाद भी वे शब्द स्मृति पटल पर स्पष्ट अंकित हैं।
न उसकेपहले पिता ने कभी कुछ कहा था, नउसके बाद पिता ने अभी तक कुछ कहा, परवे शब्द तो निश्चय ही थपेड़े से थे, अपने बल से आपका प्रवाह बदलने में सक्षम।


चित्र साभार – http://www.sportsillustrated.co.za

क्या हुआ तेरा वादा ?

पुस्तकें बड़ी प्रिय हैं, जब भी कभी बाहर जाता हूँ दो पुस्तकें अवश्य रख लेता हूँ। पढ़ने का समय हो न हो, यात्रा कितनी भी छोटी हो, एक संबल बना रहता है कि यदि विश्राम के क्षण मिले तो पुस्तक खोल कर पढ़ी जा सकती है। बहुत बार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिल जाता है पर शेष समय पुस्तकें ढोकर ही अपना ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। पुस्तक साथ रहती है तो एक संतुष्टि बनी रहती है कि सहयात्री यदि मुँह बनाये बैठे रहे तो समय काटना कठिन नहीं होगा, यद्यपि बहुत कम ऐसा हुआ है कि शेष पाँच सहयात्री ठूँठ निकले हों। अन्ततः कुछ ही न पढ़कर पुस्तकें सुरक्षित वापस आ जाती हैं। पुस्तकस्था तु या विद्या का श्लोक पढ़ा था पर सारा ज्ञान पुस्तक में लिये घूमते रहते हैं और ज्ञानी होने का मानसिक अनुभव भी करते हैं।
पहले समय अधिक रहता था, पुस्तके पढ़ने और समाप्त करने का समय मिल जाता था। मुझे अभी भी याद है कि कई पुस्तकें मैने एक बार में ही बैठ कर समाप्त की हैं। जिस लेखक की कोई पुस्तक अच्छी लगती थी, उसकी सारी पुस्तकें पढ़ डालने का उपक्रम अपने निष्कर्ष तक चलता रहता था। कभी भी किसी विषय पर रोचक शैली में लिखा कुछ भी अच्छा लगने लगता है, सब क्षेत्रों में कुछ न कुछ आता है पर किसी क्षेत्र विशेष में शोधार्थ समय बहाने की उत्सुकता संवरण करता रहता हूँ। किसी पुस्तक को मेरे द्वारा पुनः पढ़वा पाने का श्रेय बस कुछ गिने चुने लेखकों को ही जाता है।
उपरिलिखित बाध्यताओं के कारण घर में पुस्तकों का अम्बार सजा है। श्रीमती जी को भी यह अभिरुचि भा गयी है, पर उनके विषय अलग होने के कारण एक नयी अल्मारी लेनी पड़ गयी है। पुस्तकें पढ़ने की गति से पुस्तकें खरीदी भी जानी चाहिये नहीं तो समय में व मस्तिष्क में निर्वात सा उत्पन्न होने लगता है। धीरे धीरे पुस्तकें घर आने लगीं, जब कभी भी मॉल जाना होता था, कुछ भी लाने के लिये, पर वापस आते समय हाथ में एक दो पुस्तकें आ ही जाती हैं। अल्मारी भरने लगती हैं, पढ़ी हुयी पुस्तकें उस पर सजने लगती हैं, आते जाते जब पढ़ी हुयी पुस्तकों पर दृष्टि पड़ती है तो अपने अर्जित ज्ञान पर विश्वास बढ़ने लगता है, किसी ने सच ही कहा है कि जिस घर में पुस्तकें रहती हैं उस घर का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है।
आजकल अन्य कार्यों में व्यस्तता बढ़ जाने के कारण पुस्तकें घर तो आ रही हैं, पढ़ी नहीं जा पा रही हैं। अब अल्मारी के पास से निकलते समय कुछ अनपहचाने चेहरे मुलकते हैं तो ठिठक कर वहीं रुक जाता हूँ क्षण भर के लिये। कई बार ऐसे ही हो गया तो अगली बार उनसे मुँह चुराने लगा। घर यदि बड़े नगरों की तरह कई रास्तों का होता तो राह बदल कर निकल जाते, यहाँ तो नित्य भेंट की संभावना बनी रहती है।
राह निहारूँ बड़ी देर से

जब एक दिन न रहा गया तो लगभग १२ अनपढ़ी पुस्तकों को समेटा, मेज पर सामने रख कर बहुत देर तक देखता रहा, गहरी साँसे ली और निश्चय किया कि आने वाले ६ महीनों में इन्हें पढ़ा जायेगा, अर्थात १५ दिन में एक। स्मृति बनी रहे, अतः १२ पुस्तकों को मेज पर रख दिया गया। जहाँ एक ओर आपकी शिथिलता को तो प्रकृति सहयोग करती है वहीं दूसरी ओर आपके विश्वास को परखने बैठ जाती है। जो नहीं होना था, हो गया, व्यस्तता अधिक बढ़ गयी और शरीर ढीला पड़ कर अपना ही राग अलापने लगा, या तो कार्य होता था या फिर शयन। कोल्हू के बैल सम अनुभव करने लगा।

कई दिन से मेज पर बैठा ही नहीं, कि कहीं पुस्तकें दिख न जायें, सोफे पर ही बैठकर ब्लॉगिंग आदि का कार्य कर लेता था। आज याद नहीं रहा और किसी कार्यवश मेज के पास पहुँच गया। सारी पुस्तकें एक स्वर में बोल उठीं….
 क्या हुआ तेरा वादा ?

———————–

@ संतोष त्रिवेदी, @ डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ , @ Rahul Singh, @ Dr. shyam gupta
संभवतः अनपढ़ी पुस्तकों में हिन्दी की पुस्तक न पाना आप लोगों को निराश कर गया और यह अवधारणा दे गया कि मेरा पुस्तकीय प्रेम अंग्रेजी में ही सिमटा हुआ है। हिन्दी पुस्तकें बहुत पढ़ता हूँ और खरीदने के बाद अतिशीघ्र पढ़ लेता हूँ, इसीलिये कोई हिन्दी पुस्तक बची नहीं थी। यह तथ्य ध्यान दिलाकर आपने मेरा सुख बढ़ाया है।

अहा, लैपटॉप

पिछला एक माह उहापोह में बीता, कारण था नये लैपटॉप का चुनाव। पिछला लैपटॉप 5 वर्ष का होने को था और आधुनिक तकनीक में अपनी गति और भार की दृष्टि से मेरी यथा संभव सहायता कर रहा था। इतने दिन साथ घूमते घूमते थकान का अनुभव कर रहा था पर घर में शान्ति से बैठ सेवायें देने पर सहमत था। जिस यन्त्र पर हाथ सधा हुआ था, जिसके बारे में एक एक तथ्य ज्ञात था, जो मेरी सारी सूचनाओं को वर्षों को सहेजे हुये था, उसे छोड़ कुछ और अपनाना मेरे लिये कठिन था।
मेरे लिये कई निर्णय लेना आवश्यक था। 5 वर्ष पहले तक परिस्थितियाँ भिन्न थीं, लैपटॉप से अपेक्षायें भिन्न थीं, कई महत्वपूर्ण तत्व आकार ले रहे थे, तकनीकी क्षमतायें वर्तमान की आधी थीं, इण्टरनेट मोबाइल का प्रयोग विस्फोटित होने को तैयार बैठा था। उस समय जो मॉडल लिया था, वह अपने आप में सक्षम था, समयानुसार था, बाजार में अग्रणी था। उसकी पूर्ण क्षमताओं के उपयोग ने बहुत कुछ सिखाया है। जब भी जीवन को अधिक व्यवस्थित करने का समय आया या कम समय में अधिक निचोड़ने की आवश्यकता हुयी, लैपटॉप ने एक समर्थ सहयोगी की भूमिका निभायी है।
आधुनिक संदर्भों में लैपटॉप के चयन के लिये जिन बिन्दुओं पर निर्णय लेने थे उसे निर्धारित करने के लिये मुझे पिछले 5 वर्षों में हुये बदलाव को समझना आवश्यक हो गया। फैशन, सुन्दरता या आकार से प्रभावित होकर एक ऐसे लैपटॉप का चुनाव करना था जो आपके जीवन का अभिन्न अंग हो, आपकी कार्यशैली से सहज मेल खाता हो। अपनी रुचियों पर आधारित कार्यों को सरल और व्यवस्थित कर सकना, यही एकल उद्देश्य था चयन प्रक्रिया का। तीन महत्वपूर्ण बदलाव हुये, पहला ब्लॉग क्षेत्र में पदार्पण और नियमित लेखन, दूसरा कार्यक्षेत्र में गुरुतर दायित्व और निर्णय प्रक्रिया, तीसरा बच्चों के ज्ञानार्जन की तीव्रता में पिता का सहयोग। स्वाध्याय और जीवन का सरलीकरण पहले की ही तरह उपस्थित थे।
पहला था स्क्रीन का आकार, स्क्रीन का बड़ा होना अधिक बैटरी माँगता है, स्क्रीन का छोटा होना आँखों पर दबाव डालता है। बड़ी स्क्रीन में फिल्में देखने का सुख है तो छोटी स्क्रीन में लैपटॉप को कहीं भी ले जाने की सहजता। मध्यममार्ग अपनाकर 12-13 इंच की स्क्रीन निश्चित की गयी।
अगला निर्णय था, टैबलेट या नियमित कीबोर्ड। स्क्रीन पर वर्चुअल कीबोर्ड सदा ही एक विकल्प था पर अधिक टाईपिंग की स्थिति में स्क्रीन पर टाईप करना अनुपयुक्त और थका देने वाला था। आईपैड एचपी टचस्मार्ट की स्क्रीनों पर एक घंटे का समय बिताने के बाद नियमित कीबोर्ड अधिक सहज लगे। जहाँ अन्य टैबलेटों के ओएस कम क्षमता से युक्त थे वहीं विन्डोज के टैबलेट अपने नवजात स्वरूप में थे।
प्रॉसेसर की गति और क्षमता में आये परिवर्तन ने हम सबको अभिभूत किया है, संभवतः हमारी आवश्यकताओं से अधिक। भविष्य का ध्यान रखकर भी आई-5 और 4 जीबी रैम ही पर्याप्त लगा।
मेरी हार्ड डिस्क कभी भी 30 जीबी से अधिक भरी नहीं रही, कारण फिल्मों और गीतों के लिये 500 जीबी की वाह्य हार्ड डिस्क का होना। यदि कम हार्ड डिस्क में अच्छा लैपटॉप मिल सकता था तो उसका स्वागत था।
बैटरी का समय महत्वपूर्ण था, एक बार में कम से कम चार घंटे की बैटरी आवश्यक थी मेरे लिये। बड़ी बैटरी लैपटॉप का भार बढ़ाती हैं, छोटी बैटरी आपकी चिन्ता। 
इन सीमाओं में इण्टरनेट पर माह भर का शोध करने के पश्चात कई मॉल में जाकर उनका भौतिक अनुभव लिया।
पूरे घटनाक्रम में नाटकीय मोड़ तब आया जब एप्पल के शोरूम में नया मैकबुक एयर देखा। प्रेम विवाह नहीं किया अतः पहली दृष्टि  का प्रेम क्या होता था, ज्ञात नहीं था। इसे देखकर मन में जो भाव उमड़े उनका वर्णन कर पाना मेरे लिये संभव नहीं है, पर इतनी छोटी आकृति में उपरिलिखित क्षमतायें भर पाना एक चमत्कार से कम नहीं है। स्टीव जॉब को इस कार्य के लिये नमन।
यह मत पूछियेगा कि एप्पल के इस मँहगे मॉडल के लिये अतिरिक्त धन की पीड़ा आपसे कैसे सहन हुयी? श्रीमतीजी के वक्र नेत्रों की चिन्ता करते हुये मैं अपने नवोदित प्यार पर अतिरिक्त 15000 खर्च कर आया, प्यार किया तो डरना क्या? अब प्यार का पागलपन तो देखिये, 22 वर्षों के विण्डो के संचित ज्ञान को छोड़ मैं मैक ओएस सीखने बैठा हूँ, आशा है सारे नखरे सह लूँगा। 


आप बस एक चित्र देख लीजिये। आपको चेता रहा हूँ आपका मन डोल जाये तो दोष  दीजियेगा। 

प्यार तो होना ही था





नामानुरूप – हवामय
लिफाफे में – पुस्तक से भी पतला

अब बैटरी देख लें – लगभग ६ घंटे