विदाई संदेश

आदरणीय महाप्रबंधक महोदय, मैडम, उपस्थित महानुभावों और साथियों

श्री कुलदीप चतुर्वेदी

आज सुबह जब रेलवे क्लब के सचिव श्री हरिबाबू ने मुझे आपके विदाई समारोह में बोलने का आग्रह किया तो मन में एक अवरोध सा था। प्रमुखतः दो कारण होते हैं इस अवरोध के, या तो सेवानिवृत्त हो रहे व्यक्ति के पास उल्लेखनीय गुण ही न हों, या व्यक्तिगत कारण हों जिनके कारण आप उनके बारे में कुछ कहना न चाह रहे हों। मेरा कारण तीसरा था। आपके लिये मन में जितना आदर निहित है, उसे शब्दों में पिघला पाना मेरी सामर्थ्य के बाहर था। कैसे उस आदर को वाक्यों में संप्रेषित कर पाऊँगा, यह दुविधा थी मेरी। भाव शब्दों में ढल कहीं अपनी महक न खो दे, यह भय था मेरा। फिर भी मैंने बोलने का निश्चय किया, क्योंकि आज भी यदि मैं नहीं बोलता तो यह अन्तिम अवसर भी खो देता और वे सारे भाव मेरे हृदय और आँखों को सदा ही नम करते रहते, अप्रेषित और रुद्ध।

आने वाले कई वक्ता आपकी प्रशासनिक उपलब्धियों पर निश्चय ही प्रकाश डालेंगे, मैं केवल उन बातों की चर्चा करूँगा जिन्होंने मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया है।

एक ही सेवा में होने के कारण, अपने प्रशिक्षण के समय में, मैं आपसे पहली बार १९९६ में मिला था, उस समय आप पश्चिम रेलवे में मुख्य वाणिज्य प्रबन्धक थे। जिस तन्मयता से आपने हमारी समस्या सुनी और जिस सहज भाव से उसका समाधान किया, वह मेरे लिये प्रबन्धन की प्रथम शिक्षा थी। उसके पश्चात कई बार आपसे भेंट हुयी, पर दक्षिण-पश्चिम रेलवे में पिछले २ वर्षों के कार्यकाल में आपसे ३ बातें सीखी हैं। कहते हैं कि प्रसन्नता बाटने से बढ़ती है। मैं आपसे अपनी वह प्रसन्नता बाटना चाहता हूँ जो मुझे इन ३ शिक्षाओं के अनुकरण से मिली है।

पहला, आपके चेहरे का समत्व व स्मित मुस्कान किसी भी आगन्तुक को सहज कर देती है, अतुलनीय गुण है किसी के हृदय को टटोल लेने का। आगन्तुक का तनाव, पद का भय, बीच में आने का साहस भी नहीं कर पाता है। पूरा अस्तित्व और संवाद शान्तिमय सागर में उतराने लगता है। लोग कह सकते हैं कि यह एक व्यक्तिगत गुण है, प्रशासनिक नहीं, पर अपने कनिष्ठों को सहजता की अवस्था में ले आना, उन्हें उनकी सर्वोत्तम क्षमता के लिये प्रेरित करने की दिशा में पहला पग है। केवल अभागे और मूर्ख ही इस गुण का लाभ नहीं ले पाते हैं।

दूसरा, आपकी उपस्थिति पूरी टीम में ऊर्जा का संचार करती है। मुझे स्पष्ट रूप से याद है, दो वर्ष पूर्व जब मुझे वाणिज्य प्रबन्धक के रूप में मन्त्रीजी के द्वारा होने वाले एक साथ कई उद्घाटनों की व्यवस्था सम्हालनी थी। मंडल रेल प्रबन्धक किसी कार्यवश बाहर थे। कार्यक्रमों की अधिकता और कई स्थानों पर समन्वय करने के कारण गड़बड़ी की पूरी आशंका बनी हुयी थी। पर आपके वहाँ आ जाने से और अन्त तक बने रहने से सारे कार्यक्रम सुन्दरतम तरीके से सम्पन्न हो गये। इसी तरह न जाने कितने अन्य कार्यक्रमों में भी आपकी उपस्थिति हम सबकी ऊर्जा बढ़ाती रही, हम लोग सदा ही अपने चारों ओर एक अव्यक्त सुरक्षा कवच का अनुभव करते रहे।

तीसरा, यद्यपि नेतृत्व का अपने सारे कर्मचारियों से नियमित सम्पर्क न हो पर वह नेतृत्वशैली संस्था के हर कार्य में परिलक्षित होती है, ऊपर से नीचे सभी परतों पर। मैंने रेलवे सेवा में १५ वर्ष पूरे कर लिये हैं और २१ वर्ष और सेवारत रहना है। किसी का भी सेवाकाल एक बड़ी दौड़ के जैसा होता है और जिस प्रकार किसी भी बड़ी दौड़ में गति और स्टैमना का संतुलन बिठाना पड़ता है उसी प्रकार एक लम्बे सेवाकाल में कार्य, स्वास्थ्य और परिवार के बीच भी एक संतुलन आवश्यक होता है। यह संतुलन तब ही आ सकता है जब सब अपना अपना कार्य समझें और करें। किसी और के कार्य करने की व स्वयं के कार्यों को टालने की प्रवृत्ति न केवल आपका तनाव बढ़ाती है वरन औरों के विकास का मार्ग भी अवरुद्ध करती है। सब अपने अपने वेतन का औचित्य व सार्थकता सिद्ध करें, तभी संस्था को सामूहिक गति व दिशा मिल सकती है। आपकी नेतृत्वशैली में इस तथ्य की छाप स्पष्ट रूप से अंकित थी। आपने सबको इस बात की पूरी स्वतन्त्रता भी दी कि वे अपना कार्य अपनी पूर्ण क्षमता व नयेपन से कर सकें और सतत यह भी निश्चित किया कोई और उनके कार्य में दखल न दे पाये। प्रबन्धन का यह मूल तत्व नेतृत्व का स्थायी गुण है जो आपने बड़ी सहजता व सरलता से निष्पादित किया।

उपरोक्त तीन गुण, सामने वाले को तनावमुक्त कर देना, टीम में ऊर्जा का संचार करना और सबका कार्य उसके पदानुसार करते रहने देना, इन तीनों को मैं अपने जीवन में उतारने का प्रयास कर रहा हूँ और बड़े निश्चयात्मक रूप से कह सकता हूँ कि इसके लिये न केवल आप जैसी स्थिर और शान्तिमय बुद्धि चाहिये वरन आप जैसा ही एक हीरे का हृदय भी चाहिये।

ईश्वर करे, आप जहाँ भी रहें, हीरे की तरह चमचमाते रहें। आपका अनुसरण कर मैं भी हीर-कणिका बनने का प्रयास कर रहा हूँ, आवश्यक भी है क्योंकि मेरी श्रीमतीजी बहुधा हीरे की माँग करती रहती हैं।

मैं सच में बहुत बड़ा अन्याय करूँगा यदि आप जैसे विरल हीरे को तराशने में मैडम द्वारा प्रदत्त योगदान का उल्लेख नहीं करूँगा।

अन्ततः मेरा भय फिर भी सिद्ध हुआ, हृदय भरा सारा आदर शब्दों में नहीं पिघल पाया। वे कोमल मृदुल भाव मेरे हृदय और आँखों को सदा ही नम करते रहेंगे, अप्रेषित और रुद्ध।

धन्यवाद

(यह विदाई संदेश मैंने अपने महाप्रबन्धक श्री कुलदीप चतुर्वेदी के लिये पढ़ा था। श्री चतुर्वेदी पिछले माह सेवानिवृत्त हुये हैं और अभी कोलकता में उप चेयरमैन रेलवे दावा प्राधिकरण में पदस्थ हैं। उन्ही पर देवेन्द्रजी के भावमयी व काव्यमयी उद्गारों को भी रख रहा हूँ।)

कुलदीप हो 

गरिमामयी,सौम्यतामयी
करुणामयी व्यक्तित्व हो
नैनृत्य रेल कुटुम्ब के,
ज्योतिमय देवदीप हो
कुलदीप हो।

प्रदीप्त भाल देह विशाल
दिव्य प्रभाष गजमय चाल
मधुर संवाद करते निहाल
शुभ कांतिमय स्नेह हो,
कुलदीप हो।

प्रभातरवि सम कांति मय
शशि पूर्णिमा सम शांति मय
व्यवहार अमृत प्रेममय,
ज्ञानमय तुम कल्पनामय हो
कुलदीप हो।