न दैन्यं न पलायनम्

श्रेणी: विचार

सोने के पहले

बच्चों की नींद अधिक होती है, दोनों बच्चे मेरे सोने के पहले सो जाते हैं और मेरे उठने के बाद उठते हैं। जब बिटिया पूछती है कि आप सोते क्यों नहीं और इतनी मेहनत क्यों करते रहते हो? बस यही कहता हूँ कि बड़े होने पर नींद कम हो जाती है, इतनी सोने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, आप लोगों को बढ़ना है, हम लोगों को जितना बढ़ना था, हम लोग बढ़ चुके हैं। बच्चों को तो नियत समय पर सुला देते हैं, कुछ ही मिनटों में नींद आ जाती है उनकी आँखों में, मुक्त भाव से सोते रहते हैं, सपनों में लहराते, मुस्कराते, विचारों से कोई बैर नहीं, विचारों से जूझना नहीं पड़ता हैं उन्हें।

न जाने किन राहों पर नींद की यात्रा 

पर मेरे लिये परिस्थितियाँ भिन्न हैं। घड़ी देखकर सोने की आदत धीरे धीरे जा रही है। नियत समय आते ही नींद स्वतः आ जाये, अब शरीर की वह स्थिति नहीं रह गयी है। बिना थकान यदि लेट जाता हूँ तो विचार लखेदने लगते हैं, शेष बची ऊर्जा जब इस प्रकार विचारों में बहने लगती है तो शरीर निढाल होकर निद्रा में समा जाता है। आयु अपने रंग दिखा रही है, नींद की मात्रा घटती जा रही है। जैसे नदी में जल कम होने से नदी का पाट सिकुड़ने लगने लगता है, नींद का कम होना जीवन प्रवाह के क्षीण होने का संकेत है। अब विचारों की अनचाही उठापटक से बचने के लिये कितनी देर से सोने जाया जाये, किस गति से नींद कम होती जा रही है, न स्वयं को ज्ञात है, न समय बताने वाली घड़ी को।

जब समय की जगह थकान ही नींद का निर्धारण करना चाहती है तो वही सही। अपनी आदतें बदल रहा हूँ, अब बैठा बैठा कार्य करता रहता हूँ, जब थकान आँखों में चढ़ने लगती है तो उसे संकेत मानकर सोने चला जाता हूँ। जाते समय बस एक बार घड़ी अवश्य देखता हूँ, पुरानी आदत जो पड़ी है। पहले घड़ी से आज्ञा जैसी लेता था, अब उसे सूचित करता हूँ। हर रात घड़ी मुँह बना लेती है, तरह तरह का, रूठ जाती है, पर शरीर ने थकने का समय बदल दिया, मैं क्या करूँ?

क्या अब सोने के पहले विचारों ने आना बन्द कर दिया है? जब बिना थकान ही सोने का यत्न करता था, तब यह समस्या बनी रहती थी, कभी एक विचार पर नींद आती थी तो कभी दूसरे विचार पर। जब से थकान पर आधारित सोने का समय निश्चित किया है, सोने के पहले आने वाले विचार और गहरे होते जा रहे हैं। कुछ नियत विचारसूत्र आते हैं, बार बार। सारे अंगों के निष्क्रियता में उतरने के बाद लगता है कि आप कुछ हैं, इन सबसे अलग। कभी लगता है इतने बड़े विश्व में आपका होना न होना कोई महत्व नहीं रखता है, आप नींद में जा रहे हैं पर विश्व फिर भी क्रियारत है।

हर रात सोने के पहले लगता है कि शरीर का इस प्रकार निढाल होकर लुढ़क जाना, एक अन्तिम निष्कर्ष का संकेत भी है, पर उसके पहले पूर्णतया थक जाना आवश्यक है, जीवन को पूरा जीने के पश्चात ही। हमें पता ही नहीं चल पाता है और हम उतर जाते हैं नींद के अंध जगत में, जगती हुयी दुनिया से बहुत दूर। एक दिन यह नींद स्थायी हो जानी है, नियत समय पर सोने की आदत तो वैसे ही छोड़ चुके है। एक दिन जब शरीर थक जायेगा, सब छोड़कर चुपचाप सो जायेंगे, बस जाते जाते घड़ी को सूचित कर जायेंगे।

चित्र साभार – http://www.toonjet.com/

पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण

पढ़ा था, यदि घर्षण नहीं होता तो आगे बढ़ना असंभव होता, पुस्तक में उदाहरण बर्फ में चलने का दिया गयाथा, बर्फीले स्थानों पर नहीं गयाअतः घर में ही साबुन के घोल को जमीन पर फैला कर प्रयोग कर लिया। स्थूल वस्तुओं परकिया प्रयोग तो एक बार में सिद्ध हो गया था, पर वही सिद्धान्त बौद्धिकता के विकास में भी समुचित लागू होता है, यह समझने में दो दशक और लग गये।

कौन दृश्य, कौन दृष्टा
विचारोंके क्षेत्र में प्रयोग करने की सबसे बड़ी बाधा है, दृष्टा और दृश्य काएक हो जाना। जब विचार स्वयं ही प्रयोग में उलझे हों तो यह कौन देखेगा कि बौद्धिकताबढ़ रही है, कि नहीं। इस विलम्ब केलिये दोषी वर्तमान शिक्षापद्धति भी है, जहाँ पर तथ्यों का प्रवाह एक ही दिशा में होता, आप याद करते जाईये, कोईप्रश्न नहीं, कोई घर्षण नहीं। यहसत्य तभी उद्घाटित होगा जब आप स्वतन्त्र चिन्तन प्रारम्भ करेंगे, तथ्यों को मौलिक सत्यों से तौलना प्रारम्भकरेंगे, मौलिक सत्यों को अनुभव सेजीना प्रारम्भ करेंगे। बहुधा परम्पराओं में भी कोई न कोई ज्ञान तत्व छिपा होता है, उसका ज्ञान आपके जीवन में उन परम्पराओं कोस्थायी कर देता है, पर उसके लियेप्रश्न आवश्यक है।
स्वस्थलोकतन्त्र में विचारों का प्रवाह स्वतन्त्र होता है और वह समाज की समग्र बौद्धिकताके विकास में सहायक भी होता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी सभ्यता में लोकतन्त्र कीमात्रा कितनी रही, इसका ज्ञान वहाँकी बौद्धिक सम्पदा से पता चल जाता है। जीवन तो निरंकुश साम्राज्यों में भी रहा हैपर इतिहास ने सदा उन्हें अंधयुगों की संज्ञा दी है।
बौद्धिकताके क्षेत्र में घर्षण का अर्थ है कि जो विचार प्रचलन में है, उसमें असंगतता का उद्भव। प्रचलित विचारपूर्वपक्ष कहलाता है, असंगतिप्रतिपक्ष कहलाती है, विवेचना तबआवश्यक हो जाती है और जो निष्कर्ष निकलता है वह संश्लेषण कहलाता है। संश्लेषितविचार कालान्तर में प्रचलित हो जाता है और आगामी घर्षण के लिये पूर्वपक्ष बन जाताहै। यह प्रक्रिया चलती रहती है, ज्ञानआगे बढ़ता रहता है, ठीक वैसे हीजैसे आप पैदल आगे बढ़ते हैं जहाँ घर्षण आपके पैरों और जमीन के बीच होता है।
समाजमें जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होनेलगता है, लोग इसे अपनी अपनीपरम्पराओं पर आक्षेप के रूप में लेने लगते हैं। जब तक पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष कासंश्लेषण नहीं होगा, अंधयुग बनारहेगा, लोग प्रतीकों पर लड़तेरहेंगे, सत्य अपनी प्यास लियेतड़पता रहेगा। साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेतिका उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।
उपनिषदपहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परेलगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञानके उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।
शंकालुदृष्टि प्रश्न उठाने तक ही सीमित है, ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।


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चंचलम् हि मनः कृष्णः

मैं मननहीं हूँ, क्योंकि मन मुझे उकसातारहता है। मैं मन नहीं हूँ, क्योंकिमन मुझे भरमाता रहता है। मैं स्थायित्व चाहता हूँ तो मन मुझ पर कटाक्ष करता है।मैं वर्तमान में रह जीवन को अनुभव करना चाहता हूँ तो मन मुझे आलसी जैसे विशेषणोंसे छेड़ता है, मुझ पर महत्वाकांक्षीन होने के आरोप लगाता है, मैं सहलेता हूँ क्योंकि मैं मन नहीं हूँ। किसी कार्य के प्रति दृढ़ निश्चय होकर पीछेपड़ता हूँ तो संशयात्मक तरंगें उत्पन्न करने लगता है मन, बाधा बन सहसा सामने आता है, निश्चय की हुंकार भरता हूँ तो सुन कर सहम सा जाता है मन, छिप जाता है कहीं कुछ समय के लिये। दिन भर यहलुकाछिपी चलती रहती है, रात भर यहलुकाछिपी स्वप्नों में परिलक्षित होती रहती है, कभी सुखद, कभी दुखद, कभी सम, कभी विषम, संवाद बना रहताहै। संवाद के एक छोर पर मैं हूँ और दूसरी ओर है मन। मन से मेरा सतत सम्बन्ध है परमैं मन नहीं हूँ।

आश्चर्यहोता है कि इतनी ऊर्जा कहाँ से आ जाती है मन में, विचारों का सतत प्रवाह, एकके बाद एक। आश्चर्य ही है कि न जाने कितने विचार ऐसे हैं जिनकी उत्पत्ति प्रायिकताके सिद्धान्त से भी सिद्ध नहीं की जा सकती, विज्ञान के घुप्प अँधेरों के पीछे से निकल आते हैं वे विचार। सच में यह एकरहस्यमयी तथ्य है कि जिन विचारों के आधार पर विज्ञान ने अपना आकार पाया है, वही विचार अपने उद्गम की वैज्ञानिकता को जाननेको व्यग्र हैं। विज्ञान के जनक वे विचार अनाथ हैं, क्योंकि वे अपना स्रोत नहीं जानते हैं, यद्यपि सारा श्रेय हम मानव लिये बैठे हैं, पर हम मन नहीं हैं।

इन तथ्यों का स्रोत कहाँ है
हमकृतघ्न हो जाते हैं और सृजन का श्रेय ले लेते हैं, हम साहित्य के पुरोधा बन ज्ञान उड़ेल देते हैं, पर जब एकान्त में बैठ विचारों का आमन्त्रणमन्त्र जपते हैं तो मन ही उन लड़ियों को एक के बाद एक धीरे धीरे आपकीचेतना में पिरोता जाता है। श्रेय कहीं और अवस्थित है क्योंकि आप मन नहीं हैं।
सम्प्रतिगूगल की इस बात के लिये आलोचना हो रही है कि वह आपके विषय से सम्बन्धित विज्ञापनआपको दिखाने लगता है, गूगल आपकेलेखन व पठन के अनुसार वह सब प्रस्तुत करता रहता है, आपको पता ही नहीं चलता है, सबस्वाभाविक लगता है। यह बात अलग है कि इसके लिये गूगल लाखों सर्वर और करोड़ों टनऊर्जा सतत झोंकता रहता है इण्टरनेटीय प्रवाह में। आपका मन वही कार्य करता है, सूक्ष्म रूप से, विषय से सम्बन्धित विचार और स्मृतियाँ मनसपटल पर एक के बाद एक आती रहती हैं, आप चाहें न चाहें। विज्ञान की आधुनिकतम क्षमतायें रखता है आपका मन, हमें स्वाभाविक लगता रहता है, पर हम तो मन नहीं हैं।
अपेक्षायेंजब धूलधूसरित होने लगती हैं तोसंभवत: मन ही प्रथम आघात सहता है।अस्थिर हो जाता है, भय और आशंका मेंगहराता जाता है, भय आगत का और आशंकाअनपेक्षितों की। अस्थिर मन दृढ़ अस्तित्वों को भी झिंझोड़ कर रख देता है, चट्टान को भी चीर कर पानी बहा देता है। हमारेनिहित भय के तन्तुओं से ही बँधा है मन का तार्किक तन्त्र। इतना संवेदनशील है किहमारे ही भयों की प्रतिच्छाया हमें चिन्ताओं के रूप में बताने लगता है हमारा मन।
मन चंचलहै, ऊर्जा से परिपूर्ण है, वैज्ञानिक है, सृजनशील है, संवेदनशील है, तो निश्चय ही कभी न कभी बहकेगा भी।
सदियोंसे मन को आध्यात्मिक उन्नति में बाधा माना जाता रहा है, अध्यात्म स्वयं की स्थिरता को ढूढ़ने का प्रयास है। मन अपनी प्रकृति नहींछोड़ता है, क्या करे, उसका काम ही वही है, जगत को गतिमान रखना।
मन सेबड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं। चलिये, अर्जुन की तरह ही कृष्ण से पूछते हैं,
चंचलम्हि मनः कृष्णः …….


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बकर बकर

कई दिन पहले मोबाइल से अपना पसंदीदा टीवी कार्यक्रम रिकार्ड करने का एयरटेल का विज्ञापन देखा। करीना कपूर बकर बकर करना प्रारम्भ करती है और बात में पता लगता है कि प्रेरणा टीवी के कार्यक्रम से प्राप्त हो रही है।

जितनी बार भी यह बकर बकर जैसा एकालाप देखता हूँ, अच्छा लगता है और हँसी आती है। पता नहीं क्यों? कुछ जाना पहचाना सा लगता है यह प्रलाप।
हम लोग दिन भर जो कुछ भी बोलते रहते हैं यदि उसे बिना किसी अन्तराल के पुनः सुने तो यही लगेगा कि करीना कपूर की बकर बकर तो फिर भी सहनीय है। पर हम स्वयं ऐसा करते हुये भी विज्ञापन देखकर हँसते हैं। केवल गति का ही तो अन्तर है!
विचार-श्रंखला बह रही है। मन ने जो विचार चुन लिये, उन्हें वाणी मिल गयी। कई अन्य विचार मन से मान न पा सरक जाते हैं अवचेतन के अँधेरों में।
शब्द आते हैं विचारों से। विचारों के प्रवाह की गति होती है और उन विचारों की गुणवत्ता होती है।
कौन है जो विचारों का भाड़ झोंके जा रहा है और मन मस्ती में स्वीकार-अस्वीकार का खेल आनन्दपूर्वक खेल रहा है। कोई जोर है आपका अपने विचारों पर, उनकी गति पर या अपने मन पर?
जब कभी भी इतना साहस व चेतना हुयी कि स्वयं को कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर सकूँ उन विचारों पर जो मन को उलझाये रहे, तो मुख्यतः तीन तरह के उद्गम दिखायी पड़े इन विचारों के।
पहले उन कार्यों से सम्बन्धित जिन्हें आप वर्तमान में ढो रहे हैं।
दूसरे आपके जीवन के किसी कालक्षण से सम्बन्धित रहे हैं और सहसा फुदक कर सामने आ जाते हैं।
तीसरे वे जो आपसे पूर्णतया असम्बद्ध हैं पर सामने आकर आपको भी आश्चर्यचकित कर देते हैं।
पहले दो तो समझ में आते हैं पर तीसरा स्रोत कभी गणित का कठिन प्रश्न हल करने की विधि बता देता है, कभी आपसे एक सुन्दर कविता लिखवा देता है या कभी आपकी किसी गम्भीर समस्या का सरल उत्तर आपके हाथ पर लाकर रख देता है। सहसा, यूरेका।
मन बहका है। यदि आप ‘चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम् …… अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते’, समझते हैं और उस पर अभ्यासरत हैं तो आपके विचारों की गुणवत्ता बनी रहेगी। अच्छों को सहेज कर रखिये और बुरों के बारे में निर्णय ले लीजिये, भले ही मन आपसे कितनी वकालत करे, तभी गुणवत्ता बनी रहेगी।
विचारों के प्रवाह की गति हमारे ज्ञान व सरलता से कम होती है। जीवन आपको ऐसे मोड़ों पर खड़ा कर देगा जहाँ आपको या तो कुछ सीखने को मिलेगा या आपको सरल कर देगा। प्रौढ़ता या परिपक्वता सम्भवतः इसी को कहते हों।
उन मनीषियों को क्या कहेंगे जिनकी चेतना इतनी विकसित है कि हर विचार अन्दर आने से पहले उनसे अनुमति माँगता हो। मेरे विचार तो सुबह शाम मुझे लखेदे रहते हैं।

चित्र साभार – http://www.spiderpic.com/

7 लेखक, 36 पुस्तकें, एक सूत्र

एक लेखक की कई पुस्तकें एक सूत्रीय विचारधारा व्यक्त करती हुयी लग सकती हैं। दो लेखकों की पुस्तकों में भी कुछ न कुछ साम्य निकल ही आता है, तीन लेखकों में यही समानता उत्तरोत्तर कम होती जाती है, पर जब लगातार 7 लेखकों की लगभग 36 पुस्तकों में एक ही सिद्धान्त रह रह कर उभरे तब सन्देह होने लगता है, ईश्वर की योजना पर। वही प्रारूप, वही योजना, वही सन्देश, कहाँ ले जाने का षड़यन्त्र रच रहे हो, हे प्रभु। मान लिया कि पढ़ने में रुचि है, पर उसका यह अर्थ तो नहीं कि अब पुस्तकों के माध्यम से वही बात बार बार संप्रेषित करते रहोगे !
मेरे जीवन की जिज्ञासा आपकी भी बनकर न रह जाये अतः पहले ही आगाह कर देना चाहता हूँ इस पोस्ट के माध्यम से। पहला तो यह कि कितनी भी रोचक हों, इनमें से किसी भी लेखक की सारी पुस्तकें न पढ़ें, यह लेखक के विचारों को आपके मन में सान्ध्र नहीं होने देगा। दूसरा यह कि इन 7 लेखकों में से किन्ही दो या तीन लेखकों को न पढ़ें, यह उस विचार को आपके मन में धधकने से बचा लेगा। पिछले तीन वर्षों में 36 पुस्तकें पढ़, हम यह दोनों भूल कर बैठे हैं, आप न करें अतः शीघ्रातिशीघ्र आगाह कर अपनी आत्मीयता प्रदर्शित कर रहे हैं।
सर्वप्रथम तो सन्दर्भार्थ उन पुस्तकों का विवरण यहाँ पर दे रहा हूँ।
लेखक
पुस्तकें
रॉबिन शर्मा
द मोन्क व्हू सोल्ड हिज़ फेरारी से द ग्रेटनेस गाइड तक 9 पुस्तकें
मार्शल गोल्ड स्मिथ
मोज़ो
रहोन्डा बर्न
सीक्रेट
पॉलो कोल्हो
द एलकेमिस्ट से विनर स्टैंड एलोन तक 14 पुस्तकें
जेम्स रेडफील्ड
द सेलेस्टाइन प्रोफेसी से द सीक्रेट ऑफ सम्भाला तक 4 पुस्तकें
ब्रायन वीज़
मैनी लाइफ, मैनी मास्टर्स से मेडीटेशन तक 6 पुस्तकें
वेद व्यास
श्रीमद भगवतगीता
भगवतगीता को छोड़कर सारी पुस्तकें अंग्रेजी में पढ़ीं, अंग्रेजी सीखने में हुये कष्ट का मूल्य अधिभार सहित वसूल जो करना है। साथ ही सारी पुस्तकें मेरे शुभचिन्तकों द्वारा भिन्न भिन्न कालखण्डों में सुझायी गयीं। पढ़ना जिस क्रम में हुआ, उस क्रम में लेखकों को न रख विचार सूत्र के क्रम में व्यवस्थित किया है। सभी पुस्तकें अपने प्रस्तुत पक्ष में पूर्ण हैं और चिन्तन की जो भावी राहें खोल जाती हैं, उसे आगे ले जाने का कार्य अन्य पुस्तकें करती हैं। सभी पुस्तकों का विवरण एक साथ देने का उद्देश्य उस विचार सूत्र को उद्घाटित करना है जो उसे तार्किकता के निष्कर्ष तक ले जाने में सक्षम है। सार यह है।
वैचारिक विश्व भौतिक विश्व से अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आपकी वैचारिक प्रक्रिया भौतिक जगत बदल देने की क्षमता रखती है। वैचारिक दृढ़निश्चय से आप कुछ भी कर सकने में सक्षम हैं। अतः आपकी मनःस्थिति का उपयोग परिवेश में उत्साह और प्रसन्नता भरने के लिये किया जाना चाहिये, इसके निष्कर्ष आश्चर्यजनक होते हैं। विचारों का एक अपना जगत है, आप जो सोचते हैं वह विचारजगत से अपने जैसे अन्य विचारों को आकर्षित कर लेता है जिससे उस विषय में आपके विचार प्रवाह को बल मिलता है। नकारात्मक विचार अपने जैसा प्रभाव आकर्षित करते हैं। आप यदि भयग्रस्त हैं तो आपके विरोधी को उस विचार से मानसिक बल मिलेगा आपको और सताने का, आपकी आशंकायें इसी कारण से सच होने लगती हैं। नकारात्मक विचारों को सकारात्मकता से पाट दें। आपका दृढ़निश्चय जितना घनीभूत होता जाता है, परिस्थितियाँ उतनी ही अनुकूल होती जाती हैं, कई बार तो आपको विश्वास ही नहीं होता कि सारा विश्व आपके विचारानुसार कार्यप्रवृत्त है। आपका जीवन, आपका विश्व आपके विचारों से ही निर्धारित है, सृजनात्मक शक्तियाँ प्रचुर मात्रा में अपना आशीर्वाद लुटाने को व्यग्र हैं। मृत्यु के समय की यह विचार स्थिति आपका अगला जीवन, आपका परिवेश और यहाँ तक कि आपके सम्बन्धियों का भी निर्धारण करती है। आप माने न माने, आप जिनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं या अत्यधिक घृणा करते हैं, वह आपके अगले जीवन में आपके संग उपस्थित रहने वाले हैं। आपके जीवन की अनुत्तरित विशेष घटनायें आपके आगामी जीवन में कुछ न कुछ प्रभाव लिये उपस्थित रहती हैं। अतः विचारों को महत्तम मानें और पूरा ध्यान रखें उनकी गुणवत्ता पर।
इतनी पुस्तकों को कुछ शब्दों में व्यक्त करना कठिन है, पर भारतीय दर्शन के वेत्ताओं को यह विचार सूत्र बहुत ही जाना पहचाना लगता है। भगवतगीता को घर की मुर्गी दाल बराबर समझने की मानसिकता उस समय वाष्पित हो जायेगी जब शेष 35 पुस्तकों के निष्कर्ष आपको भगवतगीता पुनः समझने को उत्प्रेरित करेंगे। इन पुस्तकों को पढ़ने का श्रेष्ठतम लाभ भगवतगीता में मेरी आस्था का पुनः दृढ़ होना है।
आपको पुनः चेतावनी दे रहा हूँ, एक तो इतना व्यस्त रहें कि पुस्तकों की दुकान जाने का समय न मिले। यदि मिले भी तो आप याद कर के इन पुस्तकों को न खरीदे। यदि लोभ संवरण न कर पायें तो घर में लाकर बस सजाने के लिये रख दीजिये। अन्ततः इतने भौतिक प्रपंच पल्लवित कर लीजिये कि पढ़ने का समय न मिले। फिर भी यदि आप नहीं माने और पढ़ ही लिया तो आपके अन्दर आये परिवर्तन का दोष मुझे मत दीजियेगा क्योंकि वह विचार भौतिक जगत से अधिक ठोस होगा।
(निशान्त के द्वारा अंग्रेजी के कई श्रेष्ठ विचारों को हिन्दी में अनुवाद कर प्रस्तुत करने का एक महत कार्य हो रहा है, उन जैसे अन्य प्रयासों को समर्पित है यह पोस्ट।)