न दैन्यं न पलायनम्

श्रेणी: जीवन

मल्टीटास्किंग

मल्टीटास्किंग एक अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है, एक समय में कई कार्य करना। इस शब्द का आधुनिक प्रयोग मोबाइलों की क्षमता आँकने के लिये होता रहा है, अर्थ यह कि एक समय में अधिक कार्य करने वाला मोबाइल अधिक शक्तिशाली। गाना भी चलता हो, ईमेल भी स्वतः आ रहा हो, मैसेज का उत्तर भी लिखा जा सके, और हाँ, फोन आये तो बात भी कर लें, वह भी सब एक ही समय में। कान में ठुसे ईयरफोन, कीबोर्ड पर लयबद्ध नाचती उँगलियाँ, छोटी सी स्क्रीन पर उत्सुकता से निहारती आँखें, एक समय में सब कुछ कर लेने को सयत्न जुटे लोगों के दृश्य आपको अवश्य प्रभावित करते होंगे। आपको भी लगता होगा कि काश हम भी ऐसा कुछ कर पाते, काश हम भी डिजिटल सुपरमैन बन पाते।

एक समय में कितना कुछ

ईश्वर ने आपको ५ कर्मेन्द्रियाँ व ५ ज्ञानेन्द्रियाँ देकर मल्टीटास्किंग का आधार तो दे ही दिया है। पर यह तो उत्पाद के निर्माता से ही पूछना पड़ेगा कि दसों इन्द्रियों को एक साथ उपयोग में लाना है या अलग अलग समय में। एक समय में एक कर्मेन्द्रिय और एक ज्ञानेन्द्रिय तो कार्य कर सकती हैं पर दो कर्मेन्द्रिय या दो ज्ञानेन्द्रिय को सम्हालना कठिन हो जाता है। दस इन्द्रियों के साथ एक ही मन और एक ही बुद्धि प्रदान कर ईश्वर ने अपना मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है।

खाना बनाते हुये गुनगनाना, रेडियो सुनते हुये पढ़ना आदि मल्टीटास्किंग के प्राथमिक उदाहरण हैं और बहुलता में पाये जाते हैं। जटिलता जैसे जैसे बढ़ती जाती है, मल्टीटास्किंग उतनी ही विरल होती जाती है। मोबाइल कम्पनियों को संभवतः पता ही न हो और वे हमारे लिये मल्टीटास्किंग के और सूक्ष्म तन्त्र बनाने में व्यस्त हों।

आप में से बहुत लोग यह कह सकते हैं कि मल्टीटास्किंग तो संभव ही नहीं है, समय व्यर्थ करने का उपक्रम। एक समय में तो एक ही काम होता है, ध्यान बटेगा तो कार्य की गुणवत्ता प्रभावित होगी या दुर्घटना घटेगी। एक समय में एक ही विषय पर ध्यान दिया जा सकता है। मैं तो आपकी बात से सहमत हो भी जाऊँ पर उन युवाओं को आप कैसे समझायेंगे जो एक ही समय में ही सब कुछ कर डालना चाहते हैं, ऊर्जा की अधिकता और अधैर्य में उतराते युवाओं को। जेन के अनुयायी इसे एक समय में कई केन्द्र बिन्दुओं पर मन को एकाग्र करने जैसा मानते हैं, जिसके निष्कर्ष आपको भटका देने वाले होते हैं। हमारे बच्चे जब भी भोजन करते समय टीवी देखते हैं, दस मिनट का कार्य आधे घंटे में होता है, पता नहीं क्या अधिक चबाया जाता है, भोजन या कार्टून।

थोड़ी गहनता से विचार किया जाये तो, मल्टीटास्किंग का गुण अभ्यास से ही आता है। अभ्यास जब इतना हो जाये कि वह कार्य स्वतः ही होने लगे, बिना आपके ध्यान दिये हुये, तब आप उस कार्य को मल्टीटास्किंग के एक अवयव के रूप में ले सकते हैं। धीरे धीरे यह कलाकारी बढ़ती जाती है और आप एक समय में कई कार्य सम्हालने के योग्य हो जाते हैं, आपकी उत्पादकता बढ़ जाती है और सामने वाले का आश्चर्य।

वाह रे वाह, इतना कुछ

क्या हमारे पास सच में समय की इतनी कमी है कि हमें मल्टीटास्किंग की आवश्यकता पड़े? क्या मल्टीटास्किंग में सच में समय बचता है? औरों के बारे में तो नहीं कह सकता पर मेरे पास इतना समय है कि एक समय में दो कार्य करने की आवश्यकता न पड़े। एक समय में एक कार्य, वह भी पूरे मनोयोग से, उसके बाद अगला कार्य। वहीं दूसरी ओर एक समय में एक कार्य को पूर्ण एकाग्रता से करने में हर बार समय बचता ही है। इस समय लैपटॉप पर लिख रहा हूँ तो वाई-फाई बन्द है, शेष प्रोग्राम बन्द हैं, एक समय में बस एक कार्य। मेरे लिये कम्प्यूटरीय या मोबाइलीय सहस्रबाहु किसी काम का नहीं।

आजकल कार्यालय आते समय एक तेलगू फिल्म का पोस्टर देखता हूँ, बड़ी भीड़ भी रहती है वहाँ, कोई बड़ा हीरो है। आप चित्र देख लें, मल्टीटास्किंग का बेजोड़ उदाहरण है यह, बदमाश की गर्दन पर पैर, खोपड़ी पर पिस्तौल तनी, मोबाइल से कहीं बातचीत और बीच सड़क पर ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’ का मंचन।

क्या आप भी हैं मल्टीटास्किंग के हीरो?

चित्र साभार – http://youoffendmeyouoffendmyfamily.com/

मैकपुरुष का प्रयाण

स्टीव जॉब्स(१९५५-२०११)
स्टीव जॉब्स का निधन हो गया, एक युग का सहसा अन्त हो गया। कम्प्यूटर व मोबाइल के क्षेत्र में आधुनिकतम तकनीकों की समग्र परिकल्पना के वाहकों में उनका नाम अग्रतम है। प्रॉसेसर की चिप डिजाइन, हार्डड्राइव का चयन, वाह्य संरचना, उन्नत धातुतत्वों का प्रयोग, ओएस का स्वरूप, प्रोग्रामों की गुणवत्ता, उपयोगकर्ताओं की सुविधा, सतत क्रमिक उन्नतीकरण, नये उत्पाद का प्रस्तुतीकरण, विपणन नीति, बाजार की समझ, तकनीक की क्षमता, इन सभी क्षेत्रों में समग्रता से नायकत्व को निभाने वाले युगपुरुष थे स्टीव जॉब्स।
किसी की क्षमता उसकी कथनी से नहीं वरन करनी से जानी जाती है। आईफोन, आईपैड, मैकबुक जैसे एप्पल के उत्पाद हों या टॉय स्टोरी जैसी पिक्सार की फिल्में, स्टीव जॉब्स ने सदा ही अपने प्रतिद्वन्दियों को, अनमने ही सही, पर अपना अनुकरण करने को बाध्य कर दिया। यदि उत्पादों की गुणवत्ता न देखी होती तो संभवतः उनके जीवन के बारे में जानने का प्रयास भी न करता। उनके जीवन के बारे में पढ़कर उस प्रखरता को समझना सरल हो गया जो उनकी हर रचना में स्पष्ट रूप से झलकती है।
लगभग छह वर्ष पूर्व, स्टैनफोर्ड में नवस्नातकों को दिये अपने संदेश में स्टीव जॉब्स ने मृत्यु की दार्शनिकता पर आधारित जीवन का सिद्धान्त समझाया था, तर्कसंगत, व्यवहारिक व आनन्ददायी। पश्चिमी सभ्यता व युवावस्था के उन्माद के आवरण में भले ही वह दर्शन छात्रों के हृदय में न उतरा हो पर स्वयं स्टीव जॉब्स का जीवन उस दर्शन का साक्षात प्रमाण रहा है। इतिहास में वह दर्शन परीक्षित के उस निर्णय में भी दिखा था जब शेष बचे सात दिनों को उन्होंने जीवन का सत्य समझने व्यतीत किया पर आधुनिक युग में उसे अभिव्यक्त करने और ढंग से निभाने का श्रेय निसंदेह स्टीव जॉब्स को जायेगा।
मृत्यु जीवन के मौलिक परिवर्तन का एकमेव कारक है। जब एक दिन मृत्यु की लहर सब बहाकर ले जाने वाली है तो भय किसका और किससे? जब भय नहीं तो औरों की मानसिक संरचनाओं में अपना जीवन तिरोहित कर देने की मूढ़ता हम क्यों करें? अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने का आनन्द मृत्यु तक ही है आपके पास, वह भला क्यों गवाँया जाये। वह नित्य दर्पण के सामने खड़े होकर सोचते थे कि यदि आज उनका अन्तिम दिन हो तो वह किन कार्यों को प्राथमिकता देंगे और किन व्यर्थ कार्यों को तिलांजलि। उनका मृत्यु-दर्शन-जनित यह चिन्तन ५-१०-२०११ को सत्य तो हो गया पर उसके पहले उन्होने जीवन अपने अनुसार जिया, पूर्ण जिया, उनके द्वारा किये कर्म और प्राप्त की गयी महानता इसका साक्षात प्रमाण है।
जिस युगपुरुष को हर दिन पूर्ण जीवन जी लेने का भान हो, जिसके निर्णय और कर्म उसके मन की बात सुनते हों, जिसके हृदय में विश्व-तकनीक की दिशा को निर्धारित करते रहने की संतुष्टि हो, जिसका अनुकरण कर पाने का सपना लिये लाखों युवा अपने जीवन की योजना बनाते हों, जिसका धन और यश उसके कर्म की उपलब्धि रही हो, उसके स्वयं के लिये भले ही मृत्यु उतनी पीड़ासित न हो पर परिवार, मित्र, कम्पनी के सहयोगी, प्रशंसक तो सदा ही उनके द्वारा रिक्त स्थान निहारते रहेंगे। ५६ वर्ष का जीवन भले ही युग न कहा जाये पर उनका कृतित्व उन्हें युगपुरुष की श्रेणी में स्थापित करता है।
दो वर्ष पहले मेरा ब्लॉग जगत में आना और दूसरी पोस्ट में ही उनके इस दर्शन के बारे में चर्चा करना एक संयोग मात्र नहीं था। इस संदेश को सुनकर, उस पर बिना मनन किये न रह सका। जीवन की सीमितता में मन को भाने वाली सब चीजों को कर लेने की व्यग्रता से नित्य परिचित होता था, लेखन भी उसमें एक था। जहाँ एक ओर स्टीव जॉब का यह संदेश प्रेरणा था वहीं ज्ञानदत्तजी का उत्साहवर्धन एक दैवीय संकेत। इन सबका सम्मिलित प्रभाव ही था कि अस्पष्ट और छुटपुट लेखन छोड़, लघु स्वरूप में ही सही, पर नियमित लेखन प्रारम्भ किया। हर पोस्ट अपनी अन्तिम पोस्ट मान उस पर अपना प्रयास व सृजन छिड़कना चाहता हूँ। पिछले दो वर्षों में समय की गुणवत्ता और जीवन के सरलीकरण के माध्यम से आये सार्थक बदलावों में जिस लेखनकर्म ने मेरी सहायता की है, उसका श्रेय स्टीव जॉब्स को ही है।

यदि मैकबुक एयर जैसी  बनावट की सरलता, सौन्दर्यपूर्ण स्थायित्व, सृजनात्मक कलात्मकता, प्रक्रियागत एकाग्रता व व्यवहारिक उपयोगिता अपने जीवन में  सप्रयास उतार पाया तो उसका भी श्रेय स्टीव जॉब्स को ही जायेगा।

नमन मैकपुरुष, नमन युगपुरुष।

शब्द जो थपेड़े से थे

शब्दोंका बल नापा नहीं जा सकता है, पर जबउनका प्रभाव दिखता है तो अनुमान हो जाता है कि शब्द तीर से चुभते हैं, हृदय में लगते हैं, भावों को प्रेरित करते हैं, अस्तित्व उद्वेलित करते हैं। कुछ शब्दों में अथाह शक्ति थी, उन्होने इतिहास की दिशा बदल दी। पिता का वचन औरराम चौदह वर्ष के वनवास स्वीकार कर लेते हैं, पत्नी की झिड़की और तुलसीदास राम का चरित्र गढ़ने में जीवन बिता देते हैं, सौतेली माँ की वक्र टिप्पणी और ध्रुव विश्व मेंअपना स्थायी स्थान ढूढ़ने निकल जाते हैं। शब्दों का मान रखने के लिये के लियेवीरों ने राजपाट तो दूर, अपना रक्तभी बहा दिया है। शरणागत की रक्षा के लिये अपना सब कुछ स्वाहा करने के उदाहरणों सेहमारा इतिहास भरा पड़ा है।
वैसे तोकितना कुछ हम बोलते रहते हैं, सुनतेरहते हैं, बातें आयी गयी हो जातीहैं। शब्दों की उसी भीड़ में कब कौन सा वाक्य आपको झंकृत कर देन जानेकौन सा वाक्य कब आप पर प्रभाव डाल दे, चुभ जाये या जीवन की दिशा बदल दे, आपको भान नहीं रहता है। वह कौन सी मनःस्थिति होती है जिस पर शब्दप्रभावकारी हो जाते हैं? भारतीयजनमानस वैसे तो सहने के लिये विख्यात है, हम न जाने कितनी बातें पचा जाते हैं पर कब शब्दों के प्रवाह हमें बहाले जाये, इस पर बड़ी अनिश्चितता है।
जिनघरों में नित्य टोका टाकी होती है वहाँ के बच्चे इस प्रकार के शब्दप्रहारों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित करलेते हैं, धीरे धीरे संवेदनशीलताकुंठित होने लगती है, किसी का कुछकहना बहुत अधिक प्रेरित या उद्वेलित नहीं करता है उन्हें। समस्या तब आती है जबआपको पहली बार कुछ सुनने को मिलता है, आपकी संवेदनशीलता पर पहली चोट पड़ती है। याद कीजिये, आप सबके जीवन में वह क्षण आया होगा जब शब्दोंने अपनी वाकऊर्जा से कई गुना कंपनआपके शरीर में उत्पन्न किया होगा, आपहिल गये होंगे, आप बहुत कुछ सोचनेलगे होंगे। ऐसे अवसर प्रकृति सबको देती है, भले ही कोई विद्यालय गया हो या न गयाहो, जीवन की पाठशाला में कोई निरक्षर नहीं है, ऐसी परिस्थितियों और घटनाओं केमाध्यम से सबकी समुचित शिक्षा और परीक्षा चलती रहती है। संवेदनशीलता यही है कि हमसदा ही सीखने और उसे व्यक्त करने को तत्पर रहें।
मन उलीचते शब्द थपेड़े

संवेदनशीलतायदि कुछ नयापन लाती है तो दुःख भी लाती है। जिन पर भावों का आश्रय टिका होता है, जिनसे अभिलाषाओं के सूत्र बँधे होते हैं, जिनसे आपको उत्तरों की प्रतीक्षा रहती है, उनसे यदि कुछ कठोर सा लगने वाला शब्द आपकोसुनायी देता है तो आपको संभावनाओं के सारे कपाट बंद से दिखते हैं। कई अतिभावुक जनइसे सहन नहीं कर पाते हैं और बहुधा अप्रिय कर बैठते हैं। जो शब्दों का मर्म समझतेहैं उनके लिये एक कपाट का बन्द होना उन प्रयत्नों का प्रारम्भ है जिसके द्वाराजीवन के उजले पक्ष खुलते जाते हैं।

भाग्यशालीहैं हम सब भाई बहन कि घर में सदा ही निर्णय लेने का अधिकार मिला है, स्वतन्त्र विचारशैली व जीवनशैली को सम्मान मिलाहै, मातापिता का स्नेहकवच सदा हीपल्लवित करता रहा है। यही कारण था कि लड़कपन तक एक हल्कापन और स्वच्छन्दताजीवनशैली में रची बसी रही। हाईस्कूल में सामान्य से अंक देख बस पिता ने यही कहा कियदि इतनी सुविधा उन्हें मिली होती तो उनका प्रदेश में कोई स्थान आया होता। ये शब्दपूरे अस्तित्व को झंकृत कर गये, आनेवाले वर्षों की दिशा निर्धारित कर गये। इण्टरमीडियेट में बोर्ड में स्थान आ गया, आईआईटी में पढ़ने का अवसर मिल गया, सिविल सेवा में चयन हो गया, जीवन में स्थायित्व भी आ गया, पर 25 वर्ष बाद भी वे शब्द स्मृति पटल पर स्पष्ट अंकित हैं।
न उसकेपहले पिता ने कभी कुछ कहा था, नउसके बाद पिता ने अभी तक कुछ कहा, परवे शब्द तो निश्चय ही थपेड़े से थे, अपने बल से आपका प्रवाह बदलने में सक्षम।


चित्र साभार – http://www.sportsillustrated.co.za

क्या हुआ तेरा वादा ?

पुस्तकें बड़ी प्रिय हैं, जब भी कभी बाहर जाता हूँ दो पुस्तकें अवश्य रख लेता हूँ। पढ़ने का समय हो न हो, यात्रा कितनी भी छोटी हो, एक संबल बना रहता है कि यदि विश्राम के क्षण मिले तो पुस्तक खोल कर पढ़ी जा सकती है। बहुत बार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिल जाता है पर शेष समय पुस्तकें ढोकर ही अपना ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। पुस्तक साथ रहती है तो एक संतुष्टि बनी रहती है कि सहयात्री यदि मुँह बनाये बैठे रहे तो समय काटना कठिन नहीं होगा, यद्यपि बहुत कम ऐसा हुआ है कि शेष पाँच सहयात्री ठूँठ निकले हों। अन्ततः कुछ ही न पढ़कर पुस्तकें सुरक्षित वापस आ जाती हैं। पुस्तकस्था तु या विद्या का श्लोक पढ़ा था पर सारा ज्ञान पुस्तक में लिये घूमते रहते हैं और ज्ञानी होने का मानसिक अनुभव भी करते हैं।
पहले समय अधिक रहता था, पुस्तके पढ़ने और समाप्त करने का समय मिल जाता था। मुझे अभी भी याद है कि कई पुस्तकें मैने एक बार में ही बैठ कर समाप्त की हैं। जिस लेखक की कोई पुस्तक अच्छी लगती थी, उसकी सारी पुस्तकें पढ़ डालने का उपक्रम अपने निष्कर्ष तक चलता रहता था। कभी भी किसी विषय पर रोचक शैली में लिखा कुछ भी अच्छा लगने लगता है, सब क्षेत्रों में कुछ न कुछ आता है पर किसी क्षेत्र विशेष में शोधार्थ समय बहाने की उत्सुकता संवरण करता रहता हूँ। किसी पुस्तक को मेरे द्वारा पुनः पढ़वा पाने का श्रेय बस कुछ गिने चुने लेखकों को ही जाता है।
उपरिलिखित बाध्यताओं के कारण घर में पुस्तकों का अम्बार सजा है। श्रीमती जी को भी यह अभिरुचि भा गयी है, पर उनके विषय अलग होने के कारण एक नयी अल्मारी लेनी पड़ गयी है। पुस्तकें पढ़ने की गति से पुस्तकें खरीदी भी जानी चाहिये नहीं तो समय में व मस्तिष्क में निर्वात सा उत्पन्न होने लगता है। धीरे धीरे पुस्तकें घर आने लगीं, जब कभी भी मॉल जाना होता था, कुछ भी लाने के लिये, पर वापस आते समय हाथ में एक दो पुस्तकें आ ही जाती हैं। अल्मारी भरने लगती हैं, पढ़ी हुयी पुस्तकें उस पर सजने लगती हैं, आते जाते जब पढ़ी हुयी पुस्तकों पर दृष्टि पड़ती है तो अपने अर्जित ज्ञान पर विश्वास बढ़ने लगता है, किसी ने सच ही कहा है कि जिस घर में पुस्तकें रहती हैं उस घर का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है।
आजकल अन्य कार्यों में व्यस्तता बढ़ जाने के कारण पुस्तकें घर तो आ रही हैं, पढ़ी नहीं जा पा रही हैं। अब अल्मारी के पास से निकलते समय कुछ अनपहचाने चेहरे मुलकते हैं तो ठिठक कर वहीं रुक जाता हूँ क्षण भर के लिये। कई बार ऐसे ही हो गया तो अगली बार उनसे मुँह चुराने लगा। घर यदि बड़े नगरों की तरह कई रास्तों का होता तो राह बदल कर निकल जाते, यहाँ तो नित्य भेंट की संभावना बनी रहती है।
राह निहारूँ बड़ी देर से

जब एक दिन न रहा गया तो लगभग १२ अनपढ़ी पुस्तकों को समेटा, मेज पर सामने रख कर बहुत देर तक देखता रहा, गहरी साँसे ली और निश्चय किया कि आने वाले ६ महीनों में इन्हें पढ़ा जायेगा, अर्थात १५ दिन में एक। स्मृति बनी रहे, अतः १२ पुस्तकों को मेज पर रख दिया गया। जहाँ एक ओर आपकी शिथिलता को तो प्रकृति सहयोग करती है वहीं दूसरी ओर आपके विश्वास को परखने बैठ जाती है। जो नहीं होना था, हो गया, व्यस्तता अधिक बढ़ गयी और शरीर ढीला पड़ कर अपना ही राग अलापने लगा, या तो कार्य होता था या फिर शयन। कोल्हू के बैल सम अनुभव करने लगा।

कई दिन से मेज पर बैठा ही नहीं, कि कहीं पुस्तकें दिख न जायें, सोफे पर ही बैठकर ब्लॉगिंग आदि का कार्य कर लेता था। आज याद नहीं रहा और किसी कार्यवश मेज के पास पहुँच गया। सारी पुस्तकें एक स्वर में बोल उठीं….
 क्या हुआ तेरा वादा ?

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@ संतोष त्रिवेदी, @ डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ , @ Rahul Singh, @ Dr. shyam gupta
संभवतः अनपढ़ी पुस्तकों में हिन्दी की पुस्तक न पाना आप लोगों को निराश कर गया और यह अवधारणा दे गया कि मेरा पुस्तकीय प्रेम अंग्रेजी में ही सिमटा हुआ है। हिन्दी पुस्तकें बहुत पढ़ता हूँ और खरीदने के बाद अतिशीघ्र पढ़ लेता हूँ, इसीलिये कोई हिन्दी पुस्तक बची नहीं थी। यह तथ्य ध्यान दिलाकर आपने मेरा सुख बढ़ाया है।

तरणताल में ध्यानस्थ

तैरनाएक स्वस्थ और समुचित व्यायाम है, शरीरके सभी अंगों के लिये। यदि विकल्प हो और समय कम हो तो नियमित आधे घंटे तैरना हीपर्याप्त है शरीर के लिये। पानी में खेलना एक स्वस्थ और पूर्ण मनोरंजन है, मेरे बच्चे कहीं भी जलराशि या तरणताल देखते हैंतो छप छप करने के लिये तैयार हो जाते हैं, घंटों खेलते हैं पर उन्हें पता ही नहीं चलता है, अगले दिन भले ही नाक बहाते उठें। सूरज की गर्मी और दिनभर की थकान मिटानेके लिये एक स्वस्थ साधन है, तरणतालमें नहाना। गर्मियों में एक प्रतीक्षा रहती है, शाम आने की, तरणताल मेंसारी ऊष्मा मिटा देने की। कोई भी कारण हो, तैरना आये न आये, आकर्षणबना रहता है, तरणताल, झील, नदी या ताल के प्रति।
उपर्युक्तकारणों के अतिरिक्त, एक और कारण हैमेरे लिये। पानी के अन्दर उतरते ही अस्तित्व में एक अजब सा परिवर्तन आने लगता है, एक अजब सी ध्यानस्थ अवस्था आने लगती है। माध्यमका प्रभाव मनःस्थिति पर पड़ता हो या हो सकता है कि पिछले जन्मों में किसी जलचर काजीवन बिताया हो मैंने। मुझे पानी में उतराना भाता है, बहुत लम्बे समय के लिये, बिनाअधिक प्रयास किये हुये निष्क्रिय पड़े रहने का मन करता है। मन्थर गति सेब्रेस्टस्ट्रोक करने से बिना अधिक ऊर्जा गँवाये बहुत अधिक समय के लिये पानी मेंरहा जा सकता है। लगभग दस मिनट के बाद शरीर और साँसें संयत होने लगते हैं, एक लय आने लगती है, उसके बाद घंटे भर और किया जा सकता है यह अभ्यास।
क्या चल रहा है आपके मन में
प्रारम्भिकदिनों में एक व्यग्रता रहती थी तैरने में, कि किस तरह जलराशि पार की जाये। तब न व्यायाम हो पाता था, न ही मनोरंजन, होती थी तो मात्र थकान। तब एक बड़े अनुभवी और दार्शनिक प्रशिक्षक ने यहतथ्य बताया कि जलराशि शीघ्रतम पार कर लेने से तैरना नहीं सीखा जा सकता है, तैरना चाहते हो तो पानी में लम्बे समय के लियेरहना सीखो, पानी से प्रेम करो, पानी के साथ तदात्म्य स्थापित करो। शारीरिकसामर्थ्य(स्टैमना) बढ़ाने और पानी के अन्दर साँसों में स्थिरतालाने के लिये प्रारम्भ किया गया यह अभ्यास धीरे धीरे ध्यान की ऐसी अवस्था में लेजाने लगा जिसमें अपने अस्तित्व के बारे में नयी गहराई सामने आने लगी। इस विधि मेंशरीर हर समय पानी के अन्दर ही रहता है, बस न्यूनतम प्रयास से केवल सर दोतीन पल के लिये बाहर आता है, वह भी साँस भर लेने के लिये। पानी के माध्यम मेंलगभग पूरा समय रहने से जो विशेष अनुभव होता है उसका वर्णन कर पाना कठिन है, तन और मन में जलमय तरलता और शीतलता अधिकार करलेती है। पता नहीं इसे क्या नाम दें, जलयोग ही कह सकते हैं।
कभी कभीइस अवस्था को जीवन में ढूढ़ने का प्रयास करता हूँ। समय बिताना हो या समय में रमनाहो, समय बिताने की व्यग्रता हो यासमय में रम जाने का आनन्द, जीवनभारसम बिता दिया जाये या एक एक पल से तदात्म्य स्थापित हो,जीवन से सम्बन्ध सतही हो या गहराई में उतर कर देखा जाये इसकारंग? यदि व्यग्रता से जीने काप्रयास करेंगे तो वैसी ही थकान होगी जैसे कि तैरते समय पूरे शरीर को पानी के बाहररखने के प्रयास में होती है। साँस लेने के लिये पूरे शरीर को नहीं, केवल सर को बाहर निकालने की आवश्यकता है। जिसप्रकार डूबने का भय हमें ढंग से तैरने नहीं देता है, उसी प्रकार मरने का भय हमें ढंग से जीने नहीं देता है।
तैरने काआनन्द उठाना है तो ढंग से तैरना सीखना होगा। जीवन का आनन्द उठाना है तो ढंग सेजीना सीखना होगा।
चित्र साभार – http://www.flickriver.com/

डैडी दा पैसा, पुतरा मौज कर ले

स्पष्टरूप से याद है, आईआईटी के प्रारंभिकदिन थे, रैगिंग अपने उफान पर थी, दिन भर बड़ी उलझन रहती थी और सायं होते होते मनमें ये विचार घुमड़ने लगते थे कि आज पता नहीं क्या होगा?
दिन भरकक्षाओं में प्रोफेसरों की भारी भारी बातें, नये रंगरूटों को अपने बौद्धिक उत्कर्ष से भेदती उनकी विद्वता, चार वर्षों में आपके भीतर के सामान्यव्यक्तित्व को आइन्स्टीन में बदल देने की उनकी उत्कण्ठा, श्रेष्ठता की उन पुकारों में सीना फुलाने का प्रयास करती आपकी आशंका और उसपर हम जैसे न जाने कितनों के लिये अंग्रेजी में दिये व्याख्यानों को न पचा पाने कीगरिष्ठता। ऐसी शैक्षणिक जलवायु में दिन बिताने का भारीपन मन में बड़ी गहरी थकानलेकर आता था।
हम तोसात वर्षों के छात्रावास के अनुभव के साथ वहाँ पहुँचे थे पर कईयों के लिये किसीनये स्थान पर अपरिचितों से पहला संपर्क उस भारीपन को और जड़ कर रहा था। यह भी ज्ञातथा कि रात्रि के भोजन के बाद ही रैगिंग के महासत्र प्रारम्भ होते हैं। कई मित्र इनसबसे बचने के लिये 5 किमी दूर स्थितगुरुदेव टाकीज़ में रात्रि का शो देखने निकल जाते थे और वह भी पैदल, न जाने की जल्दी और न ही आने की, बस किसी तरह वह समय निकल जाये। कुछ मित्रस्टेडियम में जाकर रात भर के लिये सो जाते थे, नील गगन और वर्षाकाल के उमड़े बादलों के तले।
तुलसीबाबा के हुइहे वही जो राम रचिराखाके उपदेश को मन में बसाकर हम तो अपने कमरे में जाकर सो जाते थे। जब रात में जगाई और रगड़ाई होनी ही है तोकमाण्डो की तरह कहीं भी और कभी भी सोने की आदत डाल लेनी चाहिये। जैसी संभावना थी, रात्रि के द्वितीय प्रहर में सशक्त न्योता आजाता है, आप भी पिंक फ्लॉयड के एनादर ब्रिक इन द वालकी तरह अनुभव करते हुये उस परिचयप्रवृत्त समाज का अंग बन जाते हैं।
रैगिंगपर विषयगत चर्चा न कर बस इतना कहना है कि उस समय औरों के कष्ट के सामने अपने कष्टबौने लगने लगते हैं और विरोध न कर चुपचाप अनुशासित बने रहने में आपको रैगिंग करनेवालों से भी अधिक आनन्द आने लगता है। परम्पराओं ने हर क्षेत्र में संस्कृति कोकितना कुछ दिया है, इसकी पुष्टिघंटों चला धाराप्रवाह अथक कार्यक्रम कर गया।
पुतरा, मौज कर ले

उस पूरेसमय में मेरा ध्यान एक सीनियर पर ही था, एक सरदार जी थे, आनन्दपानमें पूर्ण डूबे, वातावरण को अपनेजीवन्त व्यक्तित्व से सतत ऊर्जस्वित करते हुये, उनकी भावगंगा के प्रवाहमें संगीत का सुर मिल रहा था, पीछेएक पंजाबी गाना बज रहा था।

डैडी दापैसा पुतरा मौज कर ले, तेरा जमानापुतरा मौज कर ले…..
उनकेपास तो प्रोफेसरों के द्वारा सताये दिन को भुलाने का बहाना था, गले के नीचे उतारने को सोम रस था, उड़ाने के लिये डैडी दा पैसा था, आनन्दउत्सव में सर झुकाये सामने खड़े जूनियरों का समूह था, मित्रों का जमावड़ा था,युवावस्था की ऊर्जा थी। उनकी मौज के सारे कारक उपस्थित थे।
हमारेपास तो कुछ भी नहीं था, पर उस दिन विपरीत परिस्थितियों में भी हमें उन सरदार जी से अधिक आनन्द आया होगा क्योंकिहमें तो उनकी मौज पर भी मौज आ रही थी। अब यदि डैडी के पास उड़ाने वाला पैसा नहीं हैतो क्या मौज नहीं कर सकते?

चित्र साभार – http://noraggingfoundation.blogspot.com/

मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था

मिला थामुझे एक सुन्दर सबेरा,

मैंतजकर तिमिरयुक्त सोती निशा को,
प्रथमजागरण को बुलाने चला था,
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।
विचारोंने जगकर अँगड़ाइयाँ लीं,
सूरज कीकिरणों ने पलकें बिछा दीं,
मैंबढ़ने की आशा संजोये समेटे,
विरोधों केकोहरे हटाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।१।।
अजब सीउनींदी अनुकूलता थी,
तिमिरमें भी जीवित अन्तरव्यथा थी,
निराशाके विस्तृत महल छोड़कर,
मैं आशा कीकुटिया बनाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।२।।
प्रतीक्षितफुहारें बरसती थीं रुक रुक,
पंछी थेफिर से चहकने को उत्सुक,
तपितग्रीष्म में शुष्क रिक्तिक हृदय को,
मैं वर्षा केरंग से भिगाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।३।।
कहीं मनउमंगें मुदित बढ़ रही थीं,
कहींभाववीणा स्वयं बज रही थीं,
भुलाकरपुरानी कहीं सुप्त धुन को,
नया राग मैंगुनगुनाने चला था ।
मैं अस्तित्वतम का मिटाने चला था ।।४।।
 मैं अस्तित्व तम का मिटाने चला था

चित्र साभार – http://www.indiamike.com/

चंचलम् हि मनः कृष्णः

मैं मननहीं हूँ, क्योंकि मन मुझे उकसातारहता है। मैं मन नहीं हूँ, क्योंकिमन मुझे भरमाता रहता है। मैं स्थायित्व चाहता हूँ तो मन मुझ पर कटाक्ष करता है।मैं वर्तमान में रह जीवन को अनुभव करना चाहता हूँ तो मन मुझे आलसी जैसे विशेषणोंसे छेड़ता है, मुझ पर महत्वाकांक्षीन होने के आरोप लगाता है, मैं सहलेता हूँ क्योंकि मैं मन नहीं हूँ। किसी कार्य के प्रति दृढ़ निश्चय होकर पीछेपड़ता हूँ तो संशयात्मक तरंगें उत्पन्न करने लगता है मन, बाधा बन सहसा सामने आता है, निश्चय की हुंकार भरता हूँ तो सुन कर सहम सा जाता है मन, छिप जाता है कहीं कुछ समय के लिये। दिन भर यहलुकाछिपी चलती रहती है, रात भर यहलुकाछिपी स्वप्नों में परिलक्षित होती रहती है, कभी सुखद, कभी दुखद, कभी सम, कभी विषम, संवाद बना रहताहै। संवाद के एक छोर पर मैं हूँ और दूसरी ओर है मन। मन से मेरा सतत सम्बन्ध है परमैं मन नहीं हूँ।

आश्चर्यहोता है कि इतनी ऊर्जा कहाँ से आ जाती है मन में, विचारों का सतत प्रवाह, एकके बाद एक। आश्चर्य ही है कि न जाने कितने विचार ऐसे हैं जिनकी उत्पत्ति प्रायिकताके सिद्धान्त से भी सिद्ध नहीं की जा सकती, विज्ञान के घुप्प अँधेरों के पीछे से निकल आते हैं वे विचार। सच में यह एकरहस्यमयी तथ्य है कि जिन विचारों के आधार पर विज्ञान ने अपना आकार पाया है, वही विचार अपने उद्गम की वैज्ञानिकता को जाननेको व्यग्र हैं। विज्ञान के जनक वे विचार अनाथ हैं, क्योंकि वे अपना स्रोत नहीं जानते हैं, यद्यपि सारा श्रेय हम मानव लिये बैठे हैं, पर हम मन नहीं हैं।

इन तथ्यों का स्रोत कहाँ है
हमकृतघ्न हो जाते हैं और सृजन का श्रेय ले लेते हैं, हम साहित्य के पुरोधा बन ज्ञान उड़ेल देते हैं, पर जब एकान्त में बैठ विचारों का आमन्त्रणमन्त्र जपते हैं तो मन ही उन लड़ियों को एक के बाद एक धीरे धीरे आपकीचेतना में पिरोता जाता है। श्रेय कहीं और अवस्थित है क्योंकि आप मन नहीं हैं।
सम्प्रतिगूगल की इस बात के लिये आलोचना हो रही है कि वह आपके विषय से सम्बन्धित विज्ञापनआपको दिखाने लगता है, गूगल आपकेलेखन व पठन के अनुसार वह सब प्रस्तुत करता रहता है, आपको पता ही नहीं चलता है, सबस्वाभाविक लगता है। यह बात अलग है कि इसके लिये गूगल लाखों सर्वर और करोड़ों टनऊर्जा सतत झोंकता रहता है इण्टरनेटीय प्रवाह में। आपका मन वही कार्य करता है, सूक्ष्म रूप से, विषय से सम्बन्धित विचार और स्मृतियाँ मनसपटल पर एक के बाद एक आती रहती हैं, आप चाहें न चाहें। विज्ञान की आधुनिकतम क्षमतायें रखता है आपका मन, हमें स्वाभाविक लगता रहता है, पर हम तो मन नहीं हैं।
अपेक्षायेंजब धूलधूसरित होने लगती हैं तोसंभवत: मन ही प्रथम आघात सहता है।अस्थिर हो जाता है, भय और आशंका मेंगहराता जाता है, भय आगत का और आशंकाअनपेक्षितों की। अस्थिर मन दृढ़ अस्तित्वों को भी झिंझोड़ कर रख देता है, चट्टान को भी चीर कर पानी बहा देता है। हमारेनिहित भय के तन्तुओं से ही बँधा है मन का तार्किक तन्त्र। इतना संवेदनशील है किहमारे ही भयों की प्रतिच्छाया हमें चिन्ताओं के रूप में बताने लगता है हमारा मन।
मन चंचलहै, ऊर्जा से परिपूर्ण है, वैज्ञानिक है, सृजनशील है, संवेदनशील है, तो निश्चय ही कभी न कभी बहकेगा भी।
सदियोंसे मन को आध्यात्मिक उन्नति में बाधा माना जाता रहा है, अध्यात्म स्वयं की स्थिरता को ढूढ़ने का प्रयास है। मन अपनी प्रकृति नहींछोड़ता है, क्या करे, उसका काम ही वही है, जगत को गतिमान रखना।
मन सेबड़ा मित्र नहीं है और मन से बड़ा शत्रु भी नहीं। चलिये, अर्जुन की तरह ही कृष्ण से पूछते हैं,
चंचलम्हि मनः कृष्णः …….


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बिजली फूँकते चलो, ज्ञान बाटते चलो

सूर्यपृथ्वी के ऊर्जाचक्र का स्रोत है, हमारी गतिशीलता का मूल कहीं न कहीं सूर्य सेप्राप्त ऊष्मा में ही छिपा है, इसतथ्य से परिचित पूर्वज अपने पोषण का श्रेय सूर्य को देते हुये उसे देवतातुल्यमानते थे, संस्कृतियों कीश्रंखलायें इसका प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
पूर्वजोंने सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को बड़े ही सरल और प्राकृतिक ढंग से उपयोग किया, गोबर के उपलों व सूखी लकड़ी से ईंधन, जलप्रवाह से पनचक्कियाँ, पशुओं पर आधारित जीवन यापन, कृषि और यातायात। अन्य कार्यों में शारीरिकश्रम, पुष्ट भोजन और प्राकृतिक जीवनशैली।
संभवतःमानव को ऊर्जा को भिन्न भिन्न रूपों में उपयोग में लाना स्वीकार नहीं था। जिसप्रकार आर्थिक प्रवाह में वस्तुविनिमयकी सरल प्रक्रिया से निकल कई तरह की मुद्राओं चलन प्रारम्भ हो गया, लगभग हर वस्तु और सेवा का मूल्य निश्चित हो गया, उसी प्रकार प्राकृतिक जीवन शैली के हर क्रियाकलाप को बिजली पर आधारित कर दिया गया, हर कार्य के लिये यन्त्र और उसे चलाने के लिये बिजली।
बिजलीबनने लगी, बाँधों से, कोयले से, बन के तारों से बहने लगी, बिकनेभी लगी, मूल्य भी निश्चित हो गया।जिसकी कभी उपस्थिति नहीं थी मानव सभ्यता में, उसकी कमी होने लगी। संसाधनो का और दोहन होने लगा,धरती गरमाने लगी, हर कार्य में प्रयुक्त ऊर्जा की कार्बन मात्रा निकाली जाने लगी। पर्यावरणजागरण के नगाड़े बजने लगे।
जागरूकनागरिकों पर जागरण की नादों का प्रभाव अधिक पड़ता है, हम भी प्रभावित व्यक्तियों के समूह में जुड़ गये। बचपन में कुछ भी नव्यर्थ करने के संस्कार मिले थे पर बिजली के विषय में संवेदनशीलता सदा ही अपनेअधिकतम बिन्दु पर मँडराने लगती है। घर में बहुधा बिजली के स्विच बन्द करने काकार्य हम ही करते रहते हैं। डेस्कटॉप के सारे कार्य लैपटॉप पर, लैपटॉप के बहुत कार्य मोबाइल पर, थोड़ी थोड़ी बचत करते करते लगने लगा कि कार्बनके पहाड़ संचित कर लिये।

ऊर्जाका मूल फिर भी सूर्य ही रहा। अपने नये कार्यालय में एक बड़ी सी खिड़की पाकर उसमूलस्रोत के प्रति आकर्षण जाग उठा। स्थान में थोड़ा बदलाव किया, अपने बैठने के स्थान को खिड़की के पास ले जानेपर पाया कि खिड़की से आने वाला प्रकाश पर्याप्त है। अब कार्यालय के समय में कोईट्यूब लाइट इत्यादि नहीं जलती है हमारे कक्ष में, बस प्राकृतिक सूर्यप्रकाश।कार्यों के बीच के क्षण उस खिड़की से बाहर दिखती हरियाली निहारने में बीतते हैं।बंगलोर से वर्षा को विशेष लगाव है, जबजमकर फुहारें बरसती हैं तो खिड़की खोलकर वातावरण का सोंधापन निर्बाध आने देता हूँअपने कक्ष में। एक छोटे से प्रयोग से न केवल मेरा मन संतुष्ट हुआ वरन हमारेविद्युत अभियन्ता भी ऊर्जा संरक्षण के इस प्रयास पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर गये।
खिड़की के पास, सूर्य के निकट
प्राकृतिक प्रकाश, पर्याप्त प्रकाश

विकास के नामपर आविष्कार करते करते हम यह भूल गये हैं कि हमारी आवश्यकतायें तो कब की पूरी होचुकी हैं । इतनी सुविधा हर ओर फैली है कि दिनभर बिना शरीर हिलाये भी रहा जा सकताहै। घर में ऊर्जा चूसने वाले उपकरणों को देखने से यह लगता है कि बिना उनके भी जीवनथा और सुन्दर था। तनिक सोचिये,

माचिस के डब्बों से घर बना दिये हैं, उन्हें दिन में प्रकाशमय, गर्मियों में ठंडा और शीतमें गर्म रखने के लिये ढेरों बिजली फूँकनी पड़ती है।
निशाचरीआदतें डाल ली हैं, रात में बिजलीबहाकर दिन बनाते हैं और दिन में आँख बन्द किये हुये अपनी रात बनाये रखते हैं।
विकासबड़े शहरों तक ही सीमित कर दिया है, आनेजाने में वाहन टनों ऊर्जा बहा रहे हैं।
ताजा भोजनछोड़कर बासी खाना प्रारम्भ कर दिया है और बासी को सुरक्षित रखने में फ्रिज बिजलीफूँक रहा है, उसे पुनः गरम करने के लिये माइक्रोवेव ओवेन।
क्या विषय ले बैठा? जस्ट चिल। बिजली फूँकते चलो, ज्ञान बाटते चलो। 

आप उनको याद आयेंगे

जिनस्थानों पर आपका समय बीतता है, उसकीस्मृतियाँ आपके मन में बस जाती हैं। कुछ घटनायें होती हैं,कुछ व्यक्ति होते हैं। सरकारी सेवा में होने के कारण हर तीनचार वर्ष में स्थानान्तरण होता रहता है, धीरे धीरे स्मृतियों का एक कोष बनता जा रहा है, कुछ रोचकता से भरी हैं,कुछ जीवन को दिशा देने वाली हैं। स्मृतियाँ सम्पर्कसूत्र होती हैं, उनकी प्रगाढ़ता तब और गहरा जाती है जब उस स्थान का कोई व्यक्ति आपकेसम्मुख आकर खड़ा हो जाता है।
एकस्थान पर स्थायी कार्यकाल न होना, मेरेजैसे कई व्यक्तियों के लिये एक कारण रहता है, उस स्थान का यथासंभव और यथाशीघ्र विकास करने का, पता नहीं भविष्य में वहाँ पर आना हो न हो। सुप्त सा कार्यकाल बिताने काक्षणिक विचार भी स्वयं को दिये धोखे जैसा लगता है। तीनचार हजार कर्मचारियों की व्यक्तिगत और प्रशासनिक समस्याओं को हल करने कादायित्व आप पर होने से, कई बार आपसेवह न्याय और सहायता भी हो जाती है, जिसकाआपके लिये बहुत महत्व न हो पर वह कर्मचारी उसे भुला नहीं पाता है। उसका महत्व आपकोतब पता चलता है जब कई वर्ष बीतने के बाद भी, सहसा वह व्यक्ति आपके सामने खड़ा हो जाता है।
आत्मकथालिखने का विचार अभी नहीं है, परअवसर पाकर स्मृतियाँ मन से निकल भागना चाहेंगी, संवादक्षेत्रों में अपनानियत स्थान ढूढ़ने के लिये। यह भी आत्मकथा नहीं है, बस एक साथी अधिकारी से बातचीत के समय ये दो घटनायें सामने आयीं तो उसेआपसे कह देने का लोभ संवरण न कर पाया।
एकव्यक्ति कार्यालय खुलने के दो घंटे पहले से आपके कार्यालय के बाहर बैठे प्रतीक्षाकरते हैं, आपके आने की। आने का कोईकारण नहीं, इस नगर में किसी औरकार्यवश आये थे, ज्ञात था कि आपयहाँ हैं अतः मिलने चले आये। अपने गृहनगर की प्रसिद्ध मिठाईयाँ आपको मना करने परभी सयत्न देते हैं, पुरानी कुछघटनाओं को याद करते हैं औऱ अन्त में आपके लिये मुकेश का एक गीत गाकर सुनाते हैं, अपनी मातृभाषा की लिपि में लिखा हुआ। आप किसीनायक की तरह विनम्रता से सर झुकाये सुनते हैं, आपके व्यवहार ने उस व्यक्ति को एक नया जीवन दिया था 7-8 वर्ष पहले।
एकमहिला अपने पुत्र के साथ आपसे मिलने आती है, 7-8 वर्ष पहले की गयी आपकी सहायता से अभिभूत। साथ आये पुत्र के विवाह कानिमन्त्रणपत्र आपको देती है। आपकीआँखें यह सुनकर नम हो जाती हैं कि वह प्रथम निमन्त्रणपत्र था, आप संभवतः इस तथ्यको पचा नहीं पाते हैं कि आपकी कर्तव्यनिष्ठा में की गयी एक सहायता आपको देवतुल्यबना देती है।


यहदोनों घटनायें मेरी नहीं हैं पर जब भी पुराने कार्यस्थल के कर्मचारियों से बातचीतहोती है तो उनके स्वरों में खनकती आत्मीयता और अधिक संबल देती है कि कहीं किसी कीसहायता करने का कोई अवसर छूट न जाये। अधिकार के रूप में प्राप्त इसमहापुण्य का अवसर, पता नहीं, फिरमिले न मिले।
बहते जल मेंनिर्मलता होती है। यह हो सकता है कि यदि एक स्थान पर अधिक रहता तो भावों की नदी कोनिर्मल न रख पाता। एक असभ्य गाँव के लिये न बिखरने की और एक सहृदय गाँव के लिये विश्वभर मेंबिखर जाने की गुरुनानक की प्रार्थना, भले ही मुझे क्रूर लगती रही, भले ही बार बारघर समेटने और बसाने का उपक्रम कष्टकारी रहा हो, पर यही दो घटनायें पर्याप्त हैंगुरुनानक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेने के लिये।
जो किनारे छोड़ आया, वो वहीं हैं
चित्र साभार – http://bkmarcus.com/