लेखकीय मनःस्थिति

कहते हैं कि किसी लेखक की पुस्तक उसके व्यक्तित्व के बारे में सब स्पष्ट कर के रख देती है। सही भी है, जब लेखक किसी पुस्तक में अपना हृदय निकाल के रख दे तो उसके बारे में जानना कौन सा कठिन कार्य रह जाता है? वर्षों का अनुभव जब पुस्तक में आता हो, तो उन वर्षों में लेखक किन राहों से चलकर आया है, पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है। पुस्तकों को पढ़ना लेखक से बतियाने जैसा ही है और बात करने से कितना कुछ पता चल जाता है किसी के बारे में।
यह संभव है कि किसी पुस्तक में लेखक के व्यक्तित्व के सारे पक्ष व्यक्त न हो सकें। किसी विषय विशेष पर लिखी पुस्तक के बारे में यह संभव भी है। यदि ध्यान से देखा जाये तो कोई भी विषय अपने से संबद्ध विचारों के एकांत में नहीं जीता है, कहीं न कहीं उस पर लेखक के पूरे व्यक्तित्व का प्रक्षेप अवश्य पड़ता है। विषय को दूर से छूकर निकलती उन विचार तरंगों को समझने में संशय बना रहता है। यदि लेखक जीवित है तो वह संशय दूर कर देता है पर जो हमारे बीच में नहीं हैं वे सच में क्या कहना चाह रहे थे, इस पर सदा ही विवाद की स्थिति बनी रहती है। सर्वाधिक विवाद के बिन्दु मूल विषय से बहुत दूर इन्ही तटीय भँवरों में छिपे रहते हैं।
मन में जो, लेखन में होगा
लेखक से कालखंडीय-निकटता अधिक होने से पाठक उन संदर्भों को समझ लेता है जिन पर वह विषय अवस्थित रहा होगा। तत्कालीन परिवेश और परिस्थिति विषय पर हर ओर से प्रकाश डालते हैं। कालखंड में लेखक जितना हमसे दूर होता है, उसे समझने में अनुमान की मात्रा उतनी ही बढ़ जाती है। इतिहास में गहरे छिपे पन्ने, जो हमें दिग्भ्रमित करते हैं, अपना मंतव्य अपने उर में छिपाये रहते हैं, उनका मूल कहीं न कहीं लेखक के व्यक्तित्व में छिपा होता है।
यदि आपको लेखक के जीवन के बारे में ज्ञात है तो उनका लेखन समझने में जो स्पष्ट दृष्टि आपके पास रहती है, उसमें उनका लेखन और उभरकर सामने आता है। निराला की फक्कड़ जीवन शैली जानने के बाद जब आप सरोज-स्मृति पुनः पढ़ेंगे तो आपके आँसुओं की संख्या और गति, दोनों ही दुगने हो जायेंगे। मीरा के भजन साहित्य की शैली न होकर, अध्यात्म की रुपहली छाया बनकर आयेंगे। सूर, तुलसी, कबीर का व्यक्तिगत जीवन उनके कृतित्व के मर्म को गहराता जाता है।
अब किसी के लेखन से संबंधित विवादित विषयों का निर्णय कैसे हो? किसी महापुरुष व उनके लेखन को स्वार्थवश अपने अनुसार प्रचारित करना तो उन्हें प्रयोग की वस्तु बनाने जैसा हुआ। ग्रन्थों का निष्कर्ष अपने आग्रहों पर आधारित करना भला कहाँ का न्याय हुआ? गीता के ७०० श्लोकों पर हजार से ऊपर टीकायें, प्रत्येक में एक नया ही अर्थ निकलता हुआ, सत्य हजारमुखी कब से हो गया? यह सत्य है कि सत्य के कई पक्ष हो सकते हैं, पर दो सर्वथा विलोम पक्ष एक सत्य को कैसे परिभाषित कर सकते हैं? तर्कशास्त्र के अनुसार यदि किसी तंत्र में दो विरोधाभासी पक्ष एक साथ उपस्थित हैं तो वहाँ कुछ भी सत्य सिद्ध किया जा सकता है, कुछ भी।
किसी के लेखन पर अन्तिम निर्णय केवल लेखक ही दे सकता है, विवाद के विषयों पर अपना कोई आग्रह थोपने से पहले, हमें लेखक की मनःस्थिति समझनी होगी, स्थापित करनी होगी, तार्किक आधार पर, यही एकमात्र विधि है जिससे शब्द का मर्म समझा जा सकता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति के प्रभाव में शास्त्रों को दर्शनीय पिटारा मान चुके आधुनिकमना व्यक्तियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ग्रंथों की प्रस्तावना में विषयवस्तु, लेखक की योग्यता, पाठक की योग्यता, विषयवस्तु का पाठक से संबंध, लेखन का अभिप्राय, लेखकीय कारणों का वर्णन और अपेक्षित प्रभावों जैसे बिन्दुओं को स्थान मिलता था। यह लेखकीय मनःस्थिति की प्रथम अभिव्यक्ति होती है।
कहते हैं, पुस्तक का प्राकट्य मन में पहले ही हो जाता है, एक समूह के रूप में, एक संकेत के रूप मे, लेखन प्रक्रिया बस उसे शब्दों में क्रमबद्ध उतारने जैसा है, ठीक वैसे ही जैसे हम एक दूसरे से बातचीत करते हैं, ठीक वैसे ही जो पाठकों को समझ में आ सके। पॉलो कोहेलो तो कहते हैं कि पुस्तक लिखना तो किसी से प्यार करने जैसा होता है, आप पहले थोड़ा तटस्थ से रहते हैं, थोड़ा असमंजस सा होता है, थोड़ी शंकायें होती हैं, पर एक बार लेखकीय कर्म में पूर्णतया उतर जाने के पश्चात आपको लगता है कि किस तरह अपना श्रेष्ठ पक्ष रखना है, कैसे इस प्रक्रिया में आनन्द उड़ेलना है, कैसे आनन्द उठाना है? 
इस प्रक्रिया में जो तत्व प्रारम्भ से लेखन के साथ जुड़ा रहता है और जिसके आधार पर लेखन समझना श्रेयस्कर है, न्यायोचित है, तो वह है लेखकीय मनःस्थिति।

चित्र साभार – http://jameswoodward.wordpress.com/