प्रयोग की वस्तु
by प्रवीण पाण्डेय
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कौन बताये रंग हमारा |
एक अवलोकन सदा ही अचम्भित करता है। जब किसी भी वाद को उसके उद्गम से तुलना करने बैठता हूँ तो दोनों के बीच में भ्रान्ति की चौड़ी खाई दिखायी पड़ती हैं। अन्तर ठीक वैसा ही दिखता है जैसा गंगोत्री और गंगासागर के गंगाजल के बीच होता है। गंगा का नाम ही, अपने जल में वह धार्मिक पवित्रता बनाये रखता है, अन्त तक। कालान्तर में नाम और उसके अर्थ के बीच का अन्तर गहराने लगता है। अर्थ जब श्रेष्ठता धारण नहीं कर सकता है तो नाम का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है, धीरे धीरे वह प्रयोग की वस्तु बन जाती है।
ऐसे ही कई नाम हैं जिनका हम आज भी साधिकार बलात प्रयोग कर रहे हैं। आपकी कल्पना कुछ विवादित विषयों की ओर मुड़े, उसके पहले ही मैं कबीर का उदाहरण देना चाहता हूँ। कबीर के दोहे यद्यपि हिन्दी साहित्य के प्राथमिक प्रसंगों में आते हैं, हिन्दी विकास के प्रथम अर्पणों से सुशोभित हैं, पर मेरे लिये वे सत्य, सरलता और साहस के उत्कर्ष के प्रतीक हैं। इतनी निर्भयता से सत्य कहना और वह भी मौलिक सरलता से, यह कबीर का हस्ताक्षर है, यही कबीर का वास्तविक अर्थ है। सत्य पंथनिरपेक्ष होता है, निर्भयता सत्तानिरपेक्ष होती है और सरलता व्यक्तिनिरपेक्ष। ऐसी घटनायें जनमानस को प्रभावित करती हैं, बहुत लोग उनके अनुयायी बन गये, कबीरपंथ चल पड़ा। जिन गुणों के लिये यह ऐतिहासिक उभार जाना जाता है, वे कभी पुनः सम्मुख आये ही नहीं। नाम आज भी जीवित है, पर शिथिल है, अपने अनुनायियों के अर्थों को ढोने में।
कोई दूसरा कबीर आता तो कबीर की निर्भयता, सरलता व सत्यसाधना को सार्थकता मिल जाती। जिन हस्ताक्षरों को हर व्यक्तित्व पर होना था, उन्हें ऐतिहासिक और साहित्यिक बना कर छोड़ दिया गया है, एक प्रयोग की वस्तु बनाकर। इस दुर्दशा का कारण भी कबीर बता गये हैं, मरम न कोउ जाना। यही मर्म समझना है, नहीं तो कालान्तर में कितने ही श्रेष्ठ सिद्धान्तों व उससे सम्बद्ध नामों को हम प्रयोग की वस्तु बना देंगे।
महापुरुषों के नाम से परे उनके मर्म को समझना होगा। बिना मर्म समझे महापुरुषों के नाम का महिमामंडन और उनका अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये समुचित बटवारा। पता नहीं कि हम उनके बताये हुये मार्ग पर चलना चाह रहे हैं या उनके नामों को सीढ़ी की तरह प्रयोग कर ऊपर बढ़ना चाह रहे हैं। यदि कहीं वे ऊपर बैठे हमारे कर्मों को देख रहे होंगे तो निश्चय ही अपने नाम का प्रयोग देख विक्षुब्ध हो गये होंगे। उनके अपने जीवनों में भी सिद्धान्त सर्वोपरि थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।
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आवरणों में जकड़े महापुरुष |
नाम का स्वार्थ-प्रयोग भक्तिमार्गियों के लिये एक अक्षम्य अपराध है क्योंकि उनके लिये ईश्वर के नाम और स्वरूप में कोई भेद ही नहीं होता है। स्वरूप का निर्माण गुणों से होता है, अन्ततः गुण ही मर्म हैं शेष स्वार्थ का पोषण है। नाम-स्वरूप-गुण के प्रति व्यक्त श्रद्धा को एक प्रतीक का रूप दे दिया जाता है, प्रतीकों पर स्वार्थों के आवरण चढ़ा दिये जाते हैं, कालान्तर में आवरण प्रतीक से अधिक महत्व ग्रहण कर लेते हैं, आवरणों की जय जयकार होने लगती है, आवरण मलिन हो जाते हैं, नाम प्रयोग में बना रहता है।
गांधी की खादी प्रतीक बन गयी कोई उससे शरीर सुशोभित करता है, कोई उसे सर में धरता है, कोई उससे जूते भी साफ कर लेता है। सत्य कटु है पर गांधी प्रयोग की वस्तु हो गये हैं वर्तमान में।
आवरणों को हटायें, महापुरुषों का मर्म समझें, उन्हें स्वार्थवश प्रयोग की वस्तु न बनायें, आपको उनकी छटपटाहट देखनी ही होगी, अपनी स्वार्थ कारा से उन्हें मुक्ति दे दें।
बहुत ही विचारोत्तेजक ,सार्थक और सराहनीय आलेख
बहुत ही विचारोत्तेजक ,सार्थक और सराहनीय आलेख
आपका लिखा हमेशा बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है. सरल भाषा में इतना कुछ कहना…नाम में ना बांधें तो कबीरपंथ के सच्चे राही तो आप ही हुए. अनुशाशन जैसे विषय हों या तकनीकी, आप बेहद सुलझा हुआ लिखते हैं आप इसलिए आपको पढ़ना हमेशा सुखद होता है. विचार कहीं अटकते नहीं, तर्क वितर्क भी बेहद अनुशाषित…कहीं न कहीं आदर्श जीवन की रूपरेखा खींचते हुए दीखते हैं आपके आलेख. अक्सर आपको पढ़ कर इतना कुछ मन में उठता है कि लिखने को कुछ छांट ही नहीं पाती.
आज तो बाऊ जी, हमारे बस के बाहर है.आऊट ऑफ़ कोर्स!आशीष–लाईफ?!?
परमात्मा ने हम सबों में वो सब डाला है जो तथाकथित महापुरुषों में होता है, बस हम ही उसे चरम तक नहीं पहुंचाते है ,यहीं उलझ कर अनमोल जीवन यूँ ही बिता देते हैं . अब जीने के लिए लेबल तो चाहिए न..वो भी..ब्रांडेड.
अब महापुरुषों के नाम पर सिर्फ यही मर्म समझा जाता है कि किस महापुरुष के नाम पर किस समुदाय के वोट झटके जा सकते है|वर्तमान में वही महापुरुष प्रसांगिक रह गए है जिनकी स्तुति करने से वोट मिल सके|उनके मर्म को समझने की किसी को क्या पड़ी है!!
बहुत सही बात कही है. लोग अपनी विचारधारा का फ़्रेम लेकर चलते हैं, जिस महापुरुष की तस्वीर उसमें फ़िट हो सके, कर लेते हैं. वे उस महापुरुष की छवि बदलते हैं, अपना व्यक्तित्व नहीं। कितने उदाहरण हैं जहाँ अपने आदर्श के शब्द अपनी विचारधारा से भिन्न होने पर उन्हें क्षेपक बता दिया जाता है। इसी प्रकार मूल विचारधारा में से अपने या अपने अनुकूल उपनायक के नाम की शाखायें निकाली जाती हैं। वजह अक्सर वही होती है, अपने नायक को समझने के ईमानदार प्रयास का अभाव। स्वागतयोग्य और विचारणीय आलेख!
यहाँ कुछ लिखने से पहले बहुत सोचना होता है.. कि लिखूँ तो क्या लिखूँ?जितनी गहराई आप दिखा चुके होते हैं उससे गहरे उतरना हमारे बस की बात नही होती.. कमेंट करे तो क्या?मर्म समझने से पहले आशीष भैया भी बोल गये.. :)लेकिन उपर उपर समझ में आ जाता है..
बुद्ध से बौद्ध से हीनयान, महायान, वज्रयान, सहजयान, जेन हो कर ही जीवित है. हिन्दुओं के वैदिक इन्द्र, वरुण, दशावतारों में फिर ब्रह्मा-विष्णु-महेश की त्रिमूर्ति में (महत्व की दृष्टि से) बदले. फिर जमाना आया शिवलिंग और हनुमान का अब जीवित देवता भी हैं, शायद हमेशा रहे हैं, होते रहेंगे. महापुरुषों के विचारों का युगानुकूल इस्तेमाल होता है, वे प्रासंगिक रहते हैं और उनके अनुयाइयों को भी थोड़ा हक मिल जाता है शायद, जिसका असर भी होने लगता है. बुद्ध ने अपने जीवन काल में ही बौद्ध धर्म-संघ पर चिंता जताई और उसके भविष्य के प्रति संदेह व्यक्त कर दिया था.खैर… इस ओर फिर से सोचने के लिए आधार देती पोस्ट.''भ्रान्तियों की खाईयाँ'' का इस्तेमाल देख कर लगा कि आप सोचते अंग्रेजी में हैं, तात्पर्य कि यह हिन्दी में ''भ्रान्ति की खाई'' कहने से पूरा अर्थ दे सकता है, जिस तरह एक्जाम्स के लिए अक्सर परीक्षा शब्द पर्याप्त होता है, परीक्षाएं कहना खटकता है. आप भाषा के लिए सजग रहते हैं, इसलिए सुझाव स्वरूप ऐसा लिख रहा हूं.(ऐसे ढेरों ब्लाग हैं जहां ऐसी टिप्पणी निरर्थक होती है या विवाद को आमंत्रित करने वाली हो सकती है.)
सुन्दर प्रस्तुति ||आभार महोदय ||
मर्म दुर्लभ है.यह मर्म ही बताता है कि सूत की एक साधारण माला किसी के विनय, अनुग्रह, और आदर का प्रतीक है. इसका अनादर करने वाले व्यक्ति को मनुष्यता का पाठ पढना ज़रूरी है.पोस्ट सरल, चिंतन गहन.
सार्थक आलेख
हम नाम को आधार बनाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर रहे हैं.यह विविध रूपों में हो रहा है.राजनैतिक लाभ से लेकर हम अपनी जीवन-चर्या में भी यही सब कर रहे हैं.किसी की पूजा हम इसलिए कर रहे हैं कि हमें अभीष्ट मिल जाये,जबकि यदि हम किसी को पूजना चाहते हैं,उससे भक्ति करना चाहते हैं तो उसके बताये गए कर्मों के अनुरूप चलें.आज भक्ति दिखावे की हो गई है.कबीर और गाँधी इसीलिए आज अधिक प्रासंगिक हैं इस बनावटी समाज में !कबीर ने वही कहा जैसा वे सोचते और करते थे ,सत्य के समर्थक व पाखंड के विरुद्ध थे !निरक्षर होते हुए भी सबसे ज़्यादा साक्षर थे !
बहुत सुन्दर आलेख. चिंतन के लिए उत्प्रेरक.
कालान्तर में आवरण प्रतीक से अधिक महत्व ग्रहण कर लेते हैं, आवरणों की जय जयकार होने लगती है, आवरण मलिन हो जाते हैं, नाम प्रयोग में बना रहता है।बहुत ही महत्वपूर्ण बात सरल भाषा में कही है आपने, शुभकामनाएं.रामराम.
सार्थक आलेख
Pandey ji ,Bahut sundar aalekh, bahut sundar prastuti, badhai
महाजना येन गतः सः पन्थाः , शायद अब हम ये भूल चुके है और इन महापुरुषों को प्रयोग की वस्तु ही समझते है . विचार झकझोर गए . आभार.
नाम का स्वार्थ तो हमारे राजनेता खूब भुनाना जानते हैं।
विचारों का संगम है यह आलेख ..हमेशा की तरह प्रेरक ..।
बहुत ही महत्वपूर्ण बात सरल भाषा में कही है आपने| धन्यवाद|
वाद एक झण्डा है जिसे लेकर वादी चलते हैं। कई वाद फैशन भी हो गए हैं तो कई स्टेटस भी। असली मायने समझने वाले उस झंडे के नीचे जाने की फिक्र नहीं करते !
आपकी खोजपरक जानकारी के लिए आप बधाई के पात्र हैं
विचारणीय,वैसे भी आपको पढना एक सुखद अनुभव देता है।
विचारणीय,वैसे भी आपको पढना एक सुखद अनुभव देता है।
मर्म न जाने कोई ! यही बात सब कह जाती है… मर्म को जानने के लिए श्रम करना पडेगा पर आज तो सबको जल्दी है…
आशीष जी से टीप उधार मांगी है :आऊट ऑफ़ कोर्स!
आपके शब्दों के साथ बहते बहते,विचारों के बबंडर में खोते हुए जो किनारा मिला वो तब पार होगा जब विरोधाभासों से मुक्त होकर हम जो सोचें वो करें| किसी भी महापुरुष के नाम का उपयोग का दिखावा खुद से भी तो छल है …
zaruru hai …vicharniye
बढ़िया आलेख… मुझे भी कबीर के दोहे बहुत पसंद है।स्मार्ट इंडियन की बात से पूरी ट्राहा सहमत हूँ।
कबीर का शाब्दिक अर्थ होता है महान। कबीर सचमुच महान थे, क्योंकि उनके जैसा महान व्यक्ति ही सत्य व मर्म की बात को इतने डंके की चोट पर कहने का साहस कर सकता है।प्रवीण जी सुंदर प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई।
नाम यानी ब्रांड ,ट्रेडनेम,असल बात है गुण धर्म लक्षण फिर भी कहा गया राम से बड़ा राम का नाम .उलटा नाम जपाजाप जाना बाल्मीकि भये सिद्ध समाना .
प्रवीण जी नमस्कार, सार्थक आलेख सुन्दर विचारों के साथ जयहिन्द
फिलहाल तो देश के लगभग सभी नोटों (मुद्राओं) में गांधीजी विराजमान दिखते हैं और रिश्वत के प्रत्येक लेनदेन में धडल्ले से उनका उपयोग अनैतिक कार्यों के लिये चलता है । वाकई गांधीजी की आत्मा स्वयं के प्रति कैसे यह जुल्म बर्दाश्त कर रही होगी ।
अर्थ जब श्रेष्ठता धारण नहीं कर सकता है तो नाम का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है, धीरे धीरे वह प्रयोग की वस्तु बन जाती है..ekdam sahi baat..bahut badiya chintan manan ke dharatal par likhi prastuti…
क्षुद्र मानवों ने सबको उपभोग /उपयोग की वस्तु बना डाला है -हम खुद चाहे अनचाहे अपने बड़े बुजुर्ग या स्वर्गीय हो चुके स्वजनों के नामों का यूज करते हैं 🙂
बहुत गहरा उतर गये प्रभु…आप को बांचना अध्यात्म की तरफ मोड़ रहा है हमें. 🙂
कबीर, विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए।
'' सत्य पंथनिरपेक्ष होता है, निर्भयता सत्तानिरपेक्ष होती है और सरलता व्यक्तिनिरपेक्ष.''—-मन में संजोकर रखने लायक सूक्ति.जीवन के बड़े काम की भी .
निसंदेह उनकी छटपटाहट समझनी ही होगी…
समय के प्रवाह में विकृतियों का आ जाना एक स्वाभाविक क्रम है.स्थितियाँ निरंतर परिवर्तनशील हैं उन्हीं के अनुसार नवीन निर्धारण युग के महापुरुष करते रहे हैं .
बदलते समय के साथ पुराने की नई व्यख्या होना भी ज़रूरी है -और यह आदमी का दिमाग़ है जो खुराफ़ातें ज़्यादा करता है .
आवरणों को हटायें, महापुरुषों का मर्म समझें, उन्हें स्वार्थवश प्रयोग की वस्तु न बनायें, आपको उनकी छटपटाहट देखनी ही होगी, अपनी स्वार्थ कारा से उन्हें मुक्ति दे दें।सार्थक आलेख.
सुंदर व चुस्त लेख
a very apt post on 2nd Oct… u r right the name of leaders is being abused these dayz. One of the best post I read today !!
बहुत अच्छा लेख..प्रासंगिक.. टिपण्णी देने से न रोक पाया :-)गांधीजी को प्रणाम!
महापुरुषों के नाम से परे उनके मर्म को समझना होगा।बहुत सार्थक सन्देश ! बहुत सही विषय चुना है आपने….
प्रवीण जी बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति.विचारोत्तेजक और गहन लेख हेतु बहुत-बहुत बधाई।..
श्री जेके झा द्वारा प्राप्त टिप्पणीजरा सोचिये जो नेता ,गाँधी जी के विचारों को हर वक्त जूते तले रोंदते हैं वो राजघाट गाँधी की समाधी पर पुष्प चढाने का ढोंग इसलिए करते हैं जिससे उसकी शर्मनाक सत्ता में गाँधी जी के नाम का शक्ति प्राप्त हो जाय…जबकि होना ये चाहिये की ऐसे लोग जो देश व समाज को लूटकर सत्ता सुख भोग रहें हैं को गाँधी जी की समाधी पर तबतक पुष्प नहीं चढाने दिया जाय जबतक गाँधी जी के विचारों को पूरी तरह आत्मसात ना कर ले….ढोंगियों और शर्मनाक स्वार्थियों ने महापुरुषों को भी अपमानित करने का हर प्रयास किया है हरदम….
Yet another thought provoking article….!!Following somebody for namesake does not help in any way.Yes,indeed …we do need to act upon our thoughts ….and believe in what we say…मर्म समझना …बहुत ज़रूरी है ..
निबन्ध शैली में लिखी इस विशेष पोस्ट के लिए आभार .ब्लॉग दर्शन के लिए आपका शुक्रिया .
यह सत्य है कि हमनें अपने महापुरुषों को एक आवरण में छुपा दिया है और वह आवरण ही हमें उनके विचारों से विलग करता रहा है । सुंदर आलेख ।
बहुत ही विचारोत्तेजक आलेख …
जब लोंग या वस्तुएं ब्रांड बन जाती है तो उन्हें ढोने वालों के लिए उनका असली महत्व गौण हो जाता है …सुन्दर विचार!
आवरण ही तो मनुष्य की नियति बन गया है आवरण हट जाने पर तो सारे संशय दूर हो जाते हैं
विचार करना होगा.
यह एक ढाल है – जिसके पीछे छुप कर हम यह कहना तो चाहते हैं कि "मैं धार्मिक हूँ " या कि "मैं अमुक का अनुयायी हूँ" परन्तु दरअसल यह एक धोखा होता है – जो हम खुद को भी दे रहे होते हैं, दूसरों को भी | ठीक वैसे ही , जैसे अर्जुन गीता में बारम्बार कृष्ण से पूछता है कि "क्या करू" परन्तु करना वही चाहता है जो उसका मन चाह रहा है – युद्ध से मोह वश हो कर पलायन !!!
बारहा पढने को निमंत्रित करता निबंध .
बहुत ही सार्थक और विचारणीय आलेख…
I know i am so late to read this post. but thank you for this excellent information. I hope to get a lot of good information like this hereIndia is a land of many festivals, known global for its traditions, rituals, fairs and festivals. A few snaps dont belong to India, there's much more to India than this…!!!.Visit for India
Bhai aapke vicharon aur ubhe vyakt karne kii kala ki jitni tareef kii jaye kam hai,,,,bahut sundar
उन्हें स्वार्थवश प्रयोग की वस्तु न बनायें, आपको उनकी छटपटाहट देखनी ही होगी, अपनी स्वार्थ कारा से उन्हें मुक्ति दे दें।सच में बहुत आवश्यकता है ऐसे विचारों की आज ……विचारणीय लेख…
हम प्रतीकीकरण में माहिर हो गए हैं। आचरण के स्खलन को छुपाने के लिए प्रतीकों के सम्मान की दुहाई देने का प्रदर्शन करना अधिक आसान है।