हे विधाता !

by प्रवीण पाण्डेय

सुबह परिचालन के मानक सुदृढ़ थे, आवश्यक जानकारी प्राप्त कर व समुचित दिशा निर्देश देकर जब कार्यालय पहुँचा तो मन बड़ा ही हल्का था, मंडल भी हल्का था और गतिमय भी। तभी एक परिचित वरिष्ठ अधिकारी का फोन आया और जो समाचार मिला, उसे सुनने के बाद पूरा शरीर शिथिल पड़ गया, ऐसा लगा कि कान में खौलता लौह उड़ेल दिया गया। पल भर पहले का हल्कापन जड़ता में परिवर्तित हो गया, पैरों में बँधा विधि का पाथर पूरे अस्तित्व को विषाद की गहराई में खींच ले गया, बस एक आह ही निकल पायी, हे विधाता!
क्या कहें, हम अश्रु डूबे
हिमांशु मोहनजी के असामयिक देहावसान का समाचार विधि के अन्याय के प्रति इतना क्षोभ उत्पन्न कर गया कि ज्ञान, निस्सारता, तर्क आदि शब्द असह्य से प्रतीत होने लगे। जीवन है, नहीं तो सब घटाटोप, अंधमय, शून्य, रिक्त, लुप्त। सुख-दुख का द्वन्द्व तो सहन हो जाता है, पर जीवन-मरण का द्वन्द्व तो छल है ईश्वर का, सहसा सब निर्द्वन्द्व, सब निस्तेज, सब निष्प्रयोज्य, सब निरर्थ।
जिसने कभी किसी के हृदय को पीड़ा न दी हो, जिसका हृदय शान्त और स्थिर हो, जिसका सानिध्य आपका हृदय उल्लास से भर दे, उसे हृदयाघात? कहाँ का न्याय है यह, हे भगवन्? क्या दूसरे की पीड़ा हल्का करने का दण्ड दे गये उन्हें। यही न, कि क्या अधिकार था उन्हें कलियुग में सतयुगी स्वांग रचाने का, सदाशयता फैलाने का, क्या उन सबकी सम्मिलित पीड़ा दे दी उन्हें, हृदय में?   
स्तब्ध हूँ, दुखी हूँ और बहुत खिन्न भी। जब से पता चला है, किसी कार्य में मन नहीं लग रहा है। जिस चेहरे पर छिटकी प्रसन्नता सारे अवसाद वाष्पित कर उड़ा देती थी, विश्वास ही नहीं हो रहा है कि वह चेहरा शान्त हो गया है। अब क्या वह स्मित मुस्कान फिर न दिखेगी जो मेरी इलाहाबाद की असहज यात्राओं में एक आस रेख बन चमकती रहती थी? अब इलाहाबाद की यात्रा के हर उन दो घंटों में कौन सी रिक्तता ढोये घूमूँगा जिसमें कभी उन्मुक्त हँसी, नीबू की चाय, छोटे समोसे और ढेर सा स्नेह भरा रहता था।
९ वर्ष अग्रज होने का तथ्य, उनके सहज और मित्रवत स्नेह के सम्मुख भयवश कभी नहीं आया। जब भी मिला, लगा कि सब कुछ छोड़ बस मेरी ही राह तक रहे हैं, मेरी समस्याओं से पहले से ही अवगत हैं और उसी के निवारण के लिये आज कार्यालय भी आये हैं। इतनी आत्मीयता कि अविश्वसनीय लगे, मेरे लिये ही नहीं, सबके साथ। जब सब परिचित यही विचार संचारित करने लगें तो संभवतः ईश्वर को भी अधिक कठिनाई नहीं हुयी हो, हिमांशुजी को अपना आत्मीय सहचर बनाने में। तब पहले ही आगाह कर देना था कि अधिक प्रेम घातक है।  
सहृदय की साहित्य में रुचि स्वाभाविक है। गज़ल से अप्रतिम प्रेम, प्रकृति का स्फूर्त सानिध्य, इतिहास अवलोकन का सारल्य, कलात्मक सृजनीयता, तकनीक प्रदत्त नवीनता, शब्दों और अर्थों की लुकाछिपी सुलझाती बौद्धिकता और उस पर से व्यक्तित्व की तरलता। भैया, स्वयं को धरा के योग्य बनाये रखना था, ईश्वर को भी बहाना न मिलता, हमारा स्वार्थ भी रह जाता।
दुख आज विशेष रूप लेकर आया है, मन के भाव छिपाने के लिये चेहरे पर गाढ़ी कालिमा पोत कर आया है, उसे आज कुछ भी नहीं दीखता है, अम्मा की पीड़ा भी नहीं, परिवार की स्तब्धता भी नहीं, मित्रों की पुकार भी नहीं। प्रकृति खड़ी संग में निर्दय स्वर बाँच रही है।
आपने गज़ल में रुचि जगायी थी, मार्गदर्शन किया था, आपकी पोस्ट पर की टिप्पणी स्मृति-स्वरूप अर्पित है।   
आपने तो चादरें फ़ाका-ए-मस्ती ओढ़ ली,
हमसे बोले ढूढ़ लाओ कुछ लकीरें आग की।