क्या हुआ तेरा वादा ?

by प्रवीण पाण्डेय

पुस्तकें बड़ी प्रिय हैं, जब भी कभी बाहर जाता हूँ दो पुस्तकें अवश्य रख लेता हूँ। पढ़ने का समय हो न हो, यात्रा कितनी भी छोटी हो, एक संबल बना रहता है कि यदि विश्राम के क्षण मिले तो पुस्तक खोल कर पढ़ी जा सकती है। बहुत बार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिल जाता है पर शेष समय पुस्तकें ढोकर ही अपना ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। पुस्तक साथ रहती है तो एक संतुष्टि बनी रहती है कि सहयात्री यदि मुँह बनाये बैठे रहे तो समय काटना कठिन नहीं होगा, यद्यपि बहुत कम ऐसा हुआ है कि शेष पाँच सहयात्री ठूँठ निकले हों। अन्ततः कुछ ही न पढ़कर पुस्तकें सुरक्षित वापस आ जाती हैं। पुस्तकस्था तु या विद्या का श्लोक पढ़ा था पर सारा ज्ञान पुस्तक में लिये घूमते रहते हैं और ज्ञानी होने का मानसिक अनुभव भी करते हैं।
पहले समय अधिक रहता था, पुस्तके पढ़ने और समाप्त करने का समय मिल जाता था। मुझे अभी भी याद है कि कई पुस्तकें मैने एक बार में ही बैठ कर समाप्त की हैं। जिस लेखक की कोई पुस्तक अच्छी लगती थी, उसकी सारी पुस्तकें पढ़ डालने का उपक्रम अपने निष्कर्ष तक चलता रहता था। कभी भी किसी विषय पर रोचक शैली में लिखा कुछ भी अच्छा लगने लगता है, सब क्षेत्रों में कुछ न कुछ आता है पर किसी क्षेत्र विशेष में शोधार्थ समय बहाने की उत्सुकता संवरण करता रहता हूँ। किसी पुस्तक को मेरे द्वारा पुनः पढ़वा पाने का श्रेय बस कुछ गिने चुने लेखकों को ही जाता है।
उपरिलिखित बाध्यताओं के कारण घर में पुस्तकों का अम्बार सजा है। श्रीमती जी को भी यह अभिरुचि भा गयी है, पर उनके विषय अलग होने के कारण एक नयी अल्मारी लेनी पड़ गयी है। पुस्तकें पढ़ने की गति से पुस्तकें खरीदी भी जानी चाहिये नहीं तो समय में व मस्तिष्क में निर्वात सा उत्पन्न होने लगता है। धीरे धीरे पुस्तकें घर आने लगीं, जब कभी भी मॉल जाना होता था, कुछ भी लाने के लिये, पर वापस आते समय हाथ में एक दो पुस्तकें आ ही जाती हैं। अल्मारी भरने लगती हैं, पढ़ी हुयी पुस्तकें उस पर सजने लगती हैं, आते जाते जब पढ़ी हुयी पुस्तकों पर दृष्टि पड़ती है तो अपने अर्जित ज्ञान पर विश्वास बढ़ने लगता है, किसी ने सच ही कहा है कि जिस घर में पुस्तकें रहती हैं उस घर का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है।
आजकल अन्य कार्यों में व्यस्तता बढ़ जाने के कारण पुस्तकें घर तो आ रही हैं, पढ़ी नहीं जा पा रही हैं। अब अल्मारी के पास से निकलते समय कुछ अनपहचाने चेहरे मुलकते हैं तो ठिठक कर वहीं रुक जाता हूँ क्षण भर के लिये। कई बार ऐसे ही हो गया तो अगली बार उनसे मुँह चुराने लगा। घर यदि बड़े नगरों की तरह कई रास्तों का होता तो राह बदल कर निकल जाते, यहाँ तो नित्य भेंट की संभावना बनी रहती है।
राह निहारूँ बड़ी देर से

जब एक दिन न रहा गया तो लगभग १२ अनपढ़ी पुस्तकों को समेटा, मेज पर सामने रख कर बहुत देर तक देखता रहा, गहरी साँसे ली और निश्चय किया कि आने वाले ६ महीनों में इन्हें पढ़ा जायेगा, अर्थात १५ दिन में एक। स्मृति बनी रहे, अतः १२ पुस्तकों को मेज पर रख दिया गया। जहाँ एक ओर आपकी शिथिलता को तो प्रकृति सहयोग करती है वहीं दूसरी ओर आपके विश्वास को परखने बैठ जाती है। जो नहीं होना था, हो गया, व्यस्तता अधिक बढ़ गयी और शरीर ढीला पड़ कर अपना ही राग अलापने लगा, या तो कार्य होता था या फिर शयन। कोल्हू के बैल सम अनुभव करने लगा।

कई दिन से मेज पर बैठा ही नहीं, कि कहीं पुस्तकें दिख न जायें, सोफे पर ही बैठकर ब्लॉगिंग आदि का कार्य कर लेता था। आज याद नहीं रहा और किसी कार्यवश मेज के पास पहुँच गया। सारी पुस्तकें एक स्वर में बोल उठीं….
 क्या हुआ तेरा वादा ?

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@ संतोष त्रिवेदी, @ डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ , @ Rahul Singh, @ Dr. shyam gupta
संभवतः अनपढ़ी पुस्तकों में हिन्दी की पुस्तक न पाना आप लोगों को निराश कर गया और यह अवधारणा दे गया कि मेरा पुस्तकीय प्रेम अंग्रेजी में ही सिमटा हुआ है। हिन्दी पुस्तकें बहुत पढ़ता हूँ और खरीदने के बाद अतिशीघ्र पढ़ लेता हूँ, इसीलिये कोई हिन्दी पुस्तक बची नहीं थी। यह तथ्य ध्यान दिलाकर आपने मेरा सुख बढ़ाया है।