पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण

by प्रवीण पाण्डेय

पढ़ा था, यदि घर्षण नहीं होता तो आगे बढ़ना असंभव होता, पुस्तक में उदाहरण बर्फ में चलने का दिया गयाथा, बर्फीले स्थानों पर नहीं गयाअतः घर में ही साबुन के घोल को जमीन पर फैला कर प्रयोग कर लिया। स्थूल वस्तुओं परकिया प्रयोग तो एक बार में सिद्ध हो गया था, पर वही सिद्धान्त बौद्धिकता के विकास में भी समुचित लागू होता है, यह समझने में दो दशक और लग गये।

कौन दृश्य, कौन दृष्टा
विचारोंके क्षेत्र में प्रयोग करने की सबसे बड़ी बाधा है, दृष्टा और दृश्य काएक हो जाना। जब विचार स्वयं ही प्रयोग में उलझे हों तो यह कौन देखेगा कि बौद्धिकताबढ़ रही है, कि नहीं। इस विलम्ब केलिये दोषी वर्तमान शिक्षापद्धति भी है, जहाँ पर तथ्यों का प्रवाह एक ही दिशा में होता, आप याद करते जाईये, कोईप्रश्न नहीं, कोई घर्षण नहीं। यहसत्य तभी उद्घाटित होगा जब आप स्वतन्त्र चिन्तन प्रारम्भ करेंगे, तथ्यों को मौलिक सत्यों से तौलना प्रारम्भकरेंगे, मौलिक सत्यों को अनुभव सेजीना प्रारम्भ करेंगे। बहुधा परम्पराओं में भी कोई न कोई ज्ञान तत्व छिपा होता है, उसका ज्ञान आपके जीवन में उन परम्पराओं कोस्थायी कर देता है, पर उसके लियेप्रश्न आवश्यक है।
स्वस्थलोकतन्त्र में विचारों का प्रवाह स्वतन्त्र होता है और वह समाज की समग्र बौद्धिकताके विकास में सहायक भी होता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी सभ्यता में लोकतन्त्र कीमात्रा कितनी रही, इसका ज्ञान वहाँकी बौद्धिक सम्पदा से पता चल जाता है। जीवन तो निरंकुश साम्राज्यों में भी रहा हैपर इतिहास ने सदा उन्हें अंधयुगों की संज्ञा दी है।
बौद्धिकताके क्षेत्र में घर्षण का अर्थ है कि जो विचार प्रचलन में है, उसमें असंगतता का उद्भव। प्रचलित विचारपूर्वपक्ष कहलाता है, असंगतिप्रतिपक्ष कहलाती है, विवेचना तबआवश्यक हो जाती है और जो निष्कर्ष निकलता है वह संश्लेषण कहलाता है। संश्लेषितविचार कालान्तर में प्रचलित हो जाता है और आगामी घर्षण के लिये पूर्वपक्ष बन जाताहै। यह प्रक्रिया चलती रहती है, ज्ञानआगे बढ़ता रहता है, ठीक वैसे हीजैसे आप पैदल आगे बढ़ते हैं जहाँ घर्षण आपके पैरों और जमीन के बीच होता है।
समाजमें जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होनेलगता है, लोग इसे अपनी अपनीपरम्पराओं पर आक्षेप के रूप में लेने लगते हैं। जब तक पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष कासंश्लेषण नहीं होगा, अंधयुग बनारहेगा, लोग प्रतीकों पर लड़तेरहेंगे, सत्य अपनी प्यास लियेतड़पता रहेगा। साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेतिका उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।
उपनिषदपहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परेलगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञानके उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।
शंकालुदृष्टि प्रश्न उठाने तक ही सीमित है, ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।


चित्र साभार – http://godwillbegod.com/http://people.tribe.net