पानीदार कहाँ है पानी?
by प्रवीण पाण्डेय
पानी कासाथ बचपन से प्रिय है, तैरने मेंविशेष रुचि है। कारण कोई विशेष नहीं, बस जहाँ जन्म हुआ और प्रारम्भिक जीवन बीता उस नगर हमीरपुर में दो नदियोंका संगम है, यमुना और बेतवा। यमुना, रेतीले तट, गतिमान प्रवाह, पानी का रंगसाफ। बेतवा, बालू के तट, मध्यम प्रवाह, पानी का रंग हरा।
यमुना, बेतवा, संगम और हमीरपुर |
तैरनेके लिये बेतवा ही उपयुक्त थी, वहींपर ही तैरना सीखा। गर्मियों की छुट्टियों में नित्य घंटों पानी में पड़े रहना, नदी पार जाकर ककड़ी, तरबूज आदि खाना, दोपहर कोजीभर सोना और सायं घर की छत से बेतवा को बहते हुये देखना,सूर्यास्त के समय बेतवा सौन्दर्य का प्रतिमान हो जाती थी।बेतवा के साथ जुड़ी आनन्द की हिलोरें बचपन की मधुरिम स्मृतियाँ हैं। बचपन केघनिष्ठ मित्र सी लगती है बेतवा।
यमुनाके रेतीले तटों पर पूर्ण शक्ति लगा सवेग दौड़ लगाना, फिर थक कर किनारे पर डरी डरी सी हल्की सी डुबकी। यमुना के गतिमान प्रवाहऔर उसकी शास्त्रवर्णित पवित्रता के लिये सदा ही आदर रहा मन में। संगम पर लगने वालेमेलों, धार्मिक स्नानों व अन्यअनुष्ठानों के समय मिला यमुना का मातृवत स्नेह आज भी स्मृतियों की सुरेख खींच जाताहै।
मूल यमुना और उसकी पवित्रता तो दिल्लीवाले ही पी जाते हैं। अपने आकार को अपने आँसुओंसे सप्रयास बनाये रखती यमुना, कान्हाके साथ बिताये दिनों को याद कर अपने अस्तित्व में और ढह जाती है, ताजमहल से भी आँख बचाकर चुपचाप निकल जाती है।यदि चंबल और बेतवा राह में न मिलती तो जलराशि के अभाव में यमुना प्रयाग में गंगासे भेंट करने की आस कब की छोड़ चुकी होती, त्रिवेणी की दूसरी नदी भी लुप्त हो गयी होती।
कुछवर्ष पहले तक तो बेतवा का प्रवाह स्थिर था। बालू की खुदाई तटों से ही कर ली जातीथी, बाढ़ आने पर पुनः और बालू आजाती थी, वर्षों यही क्रम चलता था, नदी का स्वरूप भी बचा रहता था और विकास को अपनाअर्घ्य भी मिल जाता था। आज विकास की बाढ़ में बालू का दोहन अपने चरम पर पहुँच गयाहै, जहाँ पहले मजदूर ही बालू कालदान करते थे, अब बड़ी बड़ी मशीनोंसे नदी के तट उखाड़े जाने लगे। विकास की प्यास और बढ़ी, मशीनें नदी के भीतर घुस आयीं, जो मिला सब निकाल लिया, बेतवासहमी सी एक पतली सी धारा बन बहती रही। वेत्रवती(बेतवा) आज असहाय सी बहती है, एक नाले जैसी, देखकर मन क्षुब्ध हो जाता है।
इस विषयपर भावनात्मक हूँ, मेरे बचपन केप्रतीकों का विनाश करने पर तुला है यह विकास। कुछ दिन पहले घर गया था, यमुना तट पर खड़ा खड़ा अपनी आँखों से उसकाखारापन बढ़ाता रहा। यमुना, काशवृन्दावन की अन्य जलराशियों की तरह कान्हा ने तुम्हें भी खारा कर दिया होता, स्रोत से ही, कम से कम तुम्हारा स्वरूप तो बचा रहता। बेतवा, काश तुम्हारी बालू में भवनों को स्थायित्व देने वाला लौह–तत्व न होता, तुम्हारी भेंट ही तुम्हारे स्वरूप को ले डूबी।
हमीरपुरबुन्देलखण्ड में है, कहीं पढ़ा था बुन्देलखण्ड के विषय में,
बुन्देलोंकी सुनो कहानी, बुन्देलों की बानीमें,
पानीदारयहाँ का पानी, आग यहाँ के पानी में।
अब न वहकहानी रही, न पानी रहा, न उस पानीमें जीवन की आग रही और न ही रही वह पानीदारी।
दिल्ली वालों पर आक्षेप लगाने से आप भी नहीं रुके:)हमने तो जब से देखा है, यमुना दिल्ली तक पहुँचते पहुँचते गंदा नाला बन चुकी दिखी। सिर्फ़ बरसात के दिनों में लगता है कि नदी है। ये सच है कि और नदियाँ न मिलें तो संगम से पहले ही सूख चुकी होती। ये तो धन्य है चंबल जैसी सहायक नदियाँ, जो खुद को अपने से छोटी धारा में विलीन कर देती हैं और प्रयाग तक यमुना बनी रहती है।
न वो आब रहा,न हममें वो ताब रहा !न ज़मीन में पानी बचा,न हमारे ज़मीर में !
तुम्हारी भेंट ही तुम्हारे स्वरूप को ले डूबी। विकास के साथ मिटते हुए अस्तित्व की गहन बात कह रहा है आपका आलेख ….सारगर्भित सार्थक आलेख है ….किन्तु..अपने स्तर पर कुछ प्रयास ज़रूर कीजिये ….भले ही सागर में बूँद बराबर क्यों न हो …वैसे कुछ जागृति तो दे रहा है आपका आलेख ..ये भी सार्थक प्रयास ही है …..!!
भौतिक विकास के साथ हम यह भूल गए कि प्रकृति हमारे जीवन अभिन्न अंग हैं हम भी प्रकृति का एक हिस्सा हैं ….आज पानी ही नहीं कई प्राकृतिक चीजों का आभाव खल रहा है …!
नदियों अस्तित्व के साथ खिलवाड़ वाकई चिंताजनक व दुखद है|दिल्ली में भी यमुना एक गंदे नाले सरीखी सी दिखती है जब कभी भी यमुना के ऊपर से गुजरना होता है यमुना का स्वरुप देखकर मन व्यथित हो जाता है|way4host
ओ यमुना, बेतवा बहती हो क्यों…जय हिंद…
वाकई अब वह पानी नहीं मिलता …..शुभकामनायें !
अंधे विकास ने न जाने कितनों को बंजर बना दिया है।
नदियों की यही दुर्दशा हर कहीं है -चित्रकूट की मंदाकिनी जिसे खुद राम का स्पर्श मिला था नाले से भी बदतर हो गयी है मगर बेतवा की ऐसी स्थति भी तो अकल्पनीय है !
आपकी बचपन स्मृतियाँ समेटे ये नदियाँ सच में विकास की भेंट चढ़ रही हैं…… मन भावुक हुआ आपकी यह पोस्ट पढ़कर ……. 😦
Bahut bhavuk samsmaran laga! Maza aa gaya!
पानीदार बुंदेली पोस्ट.
यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.
देख स्वजल दुर्गति दिन दिन, कालिंदी रोती है,अपने ही तट पर बैठी माँ कालिंदी रोती है.
सही कहा—पनघट ताल कुआ मिटे, मिटी नीम की छाँह |या विकास के काज हित ,उजड़ा सारा गाँव ||
धीरे धीरे सभी नदियों का पानी सूख रहा रहा है
मई-जून के महीने मे आगरा मे लोगों को यमुना पैदल पार करते देखा है। आपका आलेख बदलाव को बखूबी उभारता है सर। सादर
सरस्वती ही लोप हो गई है।मानव की भी सरस्वती लोप हो गई है।क्रूर अत्याचार करेंगे प्रकृति पर तो खुद का ही विनाश करेंगे हम।
jab paanidaar aadami hi nahi hai tab aap paani ki umeed kiyo rakhate hai..paanidaar logo ke saath paani chala gaya….jai baba banaras…
भावमय करते शब्दों के साथ …यह प्रस्तुति मन को छूती हुई ।
आज 03-09 – 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है ….. …आज के कुछ खास चिट्ठे …आपकी नज़र .तेताला पर
अति भावपूर्ण व सुन्दर अभिव्यक्ति। यह बेतवा ही नहीं सम्पूर्ण प्रकृति व मानवता की ही विडम्बना हे कि जो दाता है. जीवनोपयोगी वही शोषण का लक्ष्य बन जाता है।शायद इसका कारण है मानव के मौलिक विकार- लालच,तृष्णा व संचय का भाव।वेसे प्रयाग में संगम पर दृष्टिपात करें तो यथार्थ तो यही लगता हे कि संगम के आगे यदि गंगा का भी भौतिक अस्तित्व व आकार बचा है तो सिर्फ इसलिये कि प्रयाग तक पहुँचते क्षिणकाय बन चुकी गंगा में यमुना का जलार्घ्य मिल रहा है।तो कह सकते हैं कि बेतवा माँ गंगा की भी सम्बलदायिनी हैं और सिर्फ बुंदेतखंड ही नहीं प्रयाग के आगे के भारतीय लोगों को भी पानीदार होने का गौरव प्रदान कर रही है।
भूतकाल की वर्तमान से एक मासूम शिकायत …खुश रहिये !शुभकामनायें !
विकास की यह कीमत नदियों और वनों को सभी जगह चुकानी पड रही है । वर्षा ऋतु में तो फिर भी इनका अस्तित्व कुछ कायम दिखता है किन्तु उसके बाद… ?
नदियों की त्राहि त्राण सुनने वाला कोई नहीं सब लूटने चले इन्हें . पर्वतीय लोगो का शुल्क तो यही है कि स्वयं प्यासे रह कर, बूंद बूंद आगे बढ़ा रहे हैं किन्तु मैदानों में ये दम तोड़ जाती हैं.
sabkuch to badal hi gaya…
आज सभी नदियों की यही दुर्दशा हो रही है।
नदियाँ तो माँ हैं.. जीवन पर्यंत याद रहती हैं..
Shayad future me peene ka paani Pumps pe mila karega ….jaise aaj petrol milta hai 😉
अब तो हर नदी 'दीन' हो गई है।
बुन्देलों की सुनो कहानी, बुन्देलों की बानी में,पानीदार यहाँ का पानी, आग यहाँ के पानी में।अब न वह कहानी रही, न पानी रहा, न उस पानी में जीवन की आग रही और न ही रही वह पानीदारी।मंद मति बालक यहाँ का दौरा करतें नहीं अघातें हैं पानी (भू -जल )जाने कहाँ बिला गया है .झांसी से सागर तक हमने मोटरसाइकिल पर पीछे की सवारी बन यात्रा की थी ,सागर आवास के दरमियान .बड़ा भोला सा इलाका है .
यह तथाकथित विकास हमारी जड़ों को उत्तरोत्तर अधिक कमज़ोर ही कर रहा है| पर हम स्वयं इस का एक अभिन्न भाग बन चुके हैं| अपनी कुछ पंक्तियाँ साझा करने का दिल हो रहा है:-इक बंद रास्ते पे पड़ चुके हैं ये कदमये सब जहाँ न हों, वहाँ रह पाएँगे न हमअब लौटना मुमकिन नहीं, चलना भी है गुनाह अब छोड़ कर जाएँ इसे तो जाएँ भी कहाँ
नदियों की दुर्दशा के लिए अधकचरा विकास ही जिम्मेदार है .
सच कहा -पानीदार कहाँ हैं पानी..आज विकास के दौर का ये नतीजा है..सभी जगह वही हाल है….सार्थक पोस्ट….
बहुत भावात्मक हो कर आपने बेतवा की मार्मिक स्थिति लिखी है … और आब पानी है ही कहाँ ..रहीम जी की सलाह कोई नहीं मानता ..इसी लिए सब सूना है ..हर जगह प्रकृति का दोहन हो रहा है .. कितना विनाश को आमंत्रण देगा मानव नहीं कहा जा सकता ..
आजकल तो सभी नदियों और जंगलों की ऐसी ही मार्मिक स्थिति है| बहुत सुन्दर सार्थक प्रयास|
बहुत ही गंभीर पोस्ट अतीत की स्मृतियों में खोया मन सभ्यताओं की जननी नदियों का वजूद सिमटता जा रहा है |
बहुत ही गंभीर पोस्ट अतीत की स्मृतियों में खोया मन सभ्यताओं की जननी नदियों का वजूद सिमटता जा रहा है |
वाह बहुत सुन्दर लिखा भाई आपने..
sahitya ka manvikaran…jab padhna suru kiya to laga jaise mahaj betwa aaur yamuna se juda aap koi sasmaran suna rahe hain..lekin yamuna ke bahab ki tarah meri bhav nadi bhi bah gayi..aapke sahitya ke saundarya ke darshan hue to khusi hui lekin yamuna aaur betawa ki halat ko jaana to aanke nam bhi hui..ishwar kare na to aapki kalam ruke na hi yamuna aaur betwa ka bahab…taklif to hoti hi hai aaur ho bhi kyo na jab hamne inse ek maata aaur putra ka rista jo kayam kiya hua hai..harsh aaur vishad ki mili juli sthiti mein is samay aapse bida le raha hoon
जो हाल है उस हिसाब से अभी गंगा का सुखना बाकी है !
यही तो समस्या हैं प्रवीन भाई. और कोई नहीं सोचता. देश के कर्णधार व्यस्त हे स्वर्ण गंगा अपने घर की और मोड़ने में. आम आदमी से सिस्टम काफी बड़ा हो गया. मैंने अपने गाँव की नदी से पानी पिया हैं और आज. दिल रोता हैं. नहीं चाहिए भाई ऐसा विकास. हम पंडोरा में ही ठीक हैं.
'यमुना तट पर खड़ा खड़ा अपनी आँखों से उसका खारापन बढ़ाता रहा।'- अच्छा लगा,बहुत अच्छा!
यमुना तट पर खड़ा खड़ा अपनी आँखों से उसका खारापन बढ़ाता रहा।- अच्छा लगा ,बहुत अच्छा!
न वो आब रहा,न हममें वो ताब रहा !न ज़मीन में पानी बचा,न हमारे ज़मीर में !उधार की टीप ……
बहुत पहले, पहली बार जब मुबई (तब बंबई) गया तो वहां का नक़्शा ख़रीदा. नक़्शे के अनुसार जुहू से चर्चगेट जाते हुए रास्ते में समुद्र के ऊपर से लोकल को गुजरना चाहिये था पर वह माहिम क्रीक कहीं नहीं मिली. बाद में पता चला कि क्रीक की जगह एक गंदा नाला सा ही बचा हुआ है… आज सभी water bodies का लगभग यही हाल है.
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
बचपन की मधुर यादों से मधुर कोई याद नहीं…
विकास के लिए कीमत तो देनी होगी. संयोगवश बेतवा का उद्दगम हमारे घर से १३/१४ किलोमीटर दूर ही है.
विकास की आंधी सपनों के संसार को अपने साथ बहाकर ले गयी है…
विकास और विनाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उदासी कैसी? गंगा की गंदगी भी तो विकास के कारण हो रही है।
ये सच में सोचनीय विषय है जहां एक और विकास हो रहा है वाही दूसरी और हम पुराणी धरोहर से हाथ धोते जा रहे है जब की वकास ऐसा होना चाहिए जिसमें हम कुछ पाने के साथ २ पाने पुराने धरोहरों को बचा भी सकें | आपकी पोस्ट बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है एक मजबूत धरातल को बनाये रखने का खूबसूरत प्रयास |बहुत अच्छा |
गंभीर विषय को लेकर आपने जो भी लिखा..वो हम सभी को पर्यावरण को होने वाले खतरों की और आकृष्ट करने में सफल रहा है
aapki baat vicharneey hai…
भारत में नदियों की स्थिति बहुत बुरी है। एक ऐसी संस्था की कडी आवश्यकता है जो सब नदियों के संरक्षण के लिये ज़िम्मेदार हो। जिस राज्य को जब जितने जल की आवश्यकता हो उसे उचित मूल्य पर उपलब्ध कराये, जल-पर्यटन योजनायें बनाये, जल परिवहन प्रोत्साहित करे, परंतु साथ ही पुलों व बान्धों की देखरेख करने के साथ-साथ बाढ आदि से होने वाली जन-धन की हानि होने से भी रोके।
पढ़ लिया था सुबह ही…सोचा कि कमेंट भी कर दिया है…अब समझ आया कि नहीं किया है…वही स्थिति जो जबलपुर में बचपन में नर्मदा में तैरते थे और अब भी समझते हैं कि तैरने में महारत है …जबकि दूसरे राऊन्ड में सांस टूट जाती है….
पढ़ लिया था सुबह ही…सोचा कि कमेंट भी कर दिया है…अब समझ आया कि नहीं किया है…वही स्थिति जो जबलपुर में बचपन में नर्मदा में तैरते थे और अब भी समझते हैं कि तैरने में महारत है …जबकि दूसरे राऊन्ड में सांस टूट जाती है….
सामयिक स्थिति से परीचित कराता आपका यह आलेख बचपन में लौटा लेगया. सब कुछ वैसा का वैसा ही जैसा आपने लिखा है. पर अब जब कभी जाना होता है तो वही परिवेश बदला बदला सा लगता है, कुछ भी तो बाकी नही छोडा विकास के नाम पर. और अभी कहां तक जायेगी ये कहानी? शायद अभी खत्म नही हुई है विनाश की लीला.रामराम
विकास का यही हाल रहा तो डूबने मरने के लिए चुल्लू भर पानी भी नसीब नहीं होगा।
नदियों की दीन हीन अवस्था देख कर..मन दुःखी होता है। मैने भी खीझकर लिखा था..गंगा रोड। धीरे-धीरे नदियां नालों में परिवर्तित हो रही हैं..नदियों के ऊपर घर बन रहे हैं। एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब नदियाँ, नीचे नाली के रूप में बहें और ऊपर बन जाय 4 लेन सड़कें..!
पोस्ट के चौथे पैराग्राफ में तो आपने कमाल कर दिया। बार-बआर पढने पर भी जी नहीं भरा।
पानी गये ना ऊबरे , मोती,मानुस,चून….
बहुत – बहुत आभार गुरुजनों का ||सादर प्रणाम ||रहकर झाँसी में पढ़ा, अवध हमारा धाम |सरयू जैसी बेतवा , अवध ओरछा नाम ||अवध ओरछा नाम, लगाईं इसमें डुबकी |झाँसी से खूब प्यार, पढ़े अब मेरी छुटकी ||बाइस में पर तैर, सका यह उसमें 'रविकर' |ताल-सरोवर भूल, शहर में लेकिन रहकर ||सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपको बधाई ||
truly said… in the name of development at many places destruction of natural resources is happening. A nice read on a sensitive issue !!
सचमुच अपने नदियों का हश्र देख सिर्फ दुख नहीं होता, डर लगता है, विकास के नाम पर नदियों की ये बलि बहुत भारी साबित होगी।
its water is going to be big problem for next generations
पानीदार कहाँ है पानी?जी हाँ भाई साहब जिस सरकार का पानी उतर चुका है जो बे -आब ,बे -आबरू है उसका सिर्फ मज़ाक ही उड़ाया जा सकता है गंभीर विमर्श नहीं हो सकता उसकी हरकतों पर .
सर मानव अपने पैरो पर कुल्हाड़ी चलाना शुरू कर दिया है ! जिसके परिणाम गंभीर होंगे !
आपकी पोस्ट बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है
खूबसूरत प्रयास |ला-जवाब" जबर्दस्त!!
PANIDAR KAHA HAI PANI?CHAHE YAMUNA HO YA GANGAHAR NADI KI YAHI KAHANI
बहुत ही भावुक होते गये हैं यह पीड़ा स्वाभाविक ही है. सारी नदियों का यही हाल है.चोट लगी वृक्षों को घायल आकाश हुआबादल भी रो न सका इतना हताश हुआ.अभी भी वक्त है…दूषित जल से किस तरह,जीव बुझाये प्यासजल की रक्षा के लिये,करिये सभी उपाय.
yaadon mei shaamil karne ke liye shukriya… aur aapkee soch n post wakai chintaneey hai…mera bachpan bhee nadiyon ke beech hi beeta…kuchh ke to naam the aur kuchh sirf baarishon mei janm leti thee…par aaj sabki haalat ek jaisi hai…na jane aagey kya hoga…waise Hameerpur se milwane ke liye dhnyawaad…
praveen ji bahut hi garai se aapne apni yaado ki dhrohar ko aadhunik samaaj ke dwara nast hone wale sach ko khoobsurati ke saath abhi vykt kiya hai.bahut hi sach ko parilaxhit karti hai aapki prastutibahut bahut badhai poonam
तथाकथित विकास का सही चित्रण किया है ….. पानी तो अब नदियों के साथ हमारे विचारों में भी नहीं बचा है …..
बड़ी बड़ी नदियों को तो सुखा ही दिया है |पिछले साल अपने गाँव में सुक्ता नदी (जो अब सिर्फ रेत भी कहाँ ?बस कुछ चिकने छोटे छोटे पत्थर )की हालत देखकर आंखे पानी पानी ही को गई थी |वहां बाद बड़े ट्रक और गिट्टी छानने के चलने देख विकास व्यर्थ ही लगा |
नदियों को गन्दा करने में पूरे देश का हाथ है … यमुना भी अपवाद नहीं है …
सार्थक लेख….अब पानीदार पानी पीने के लिए बोतलों में मिलता है…!और अगर तैरना है तो स्वीमिंग पूल में….!!
प्रवीण जी यह इमेज पर सफेद रंग में क्या आपने किसी टैबलेट जैसे डिवाइस पर हाथ से लिखा है?यदि हाँ तो आपने इतनी सही तरह से कैसे लिख लिया, मैंने एक-दो बार अपने फोन पर ट्राइ किया पर सही लिखा ही नहीं जाता।