प्यार छिपाये फिरता हूँ

by प्रवीण पाण्डेय

छिपीकिसी के मन में कितनी गहराई, मैंक्या जानूँ?

आतुरकितनी बहने को, हृद-पुरवाई, मैं क्या जानूँ?

कैसेजानूँ, लहर प्रेम की वेग नहीं खोने वाली,
कैसेजानूँ, प्रात जगी जो आस नहीं सोने वाली।

धूप, छाँव में बह जाता दिन,आ जाती है रात बड़ी,
बढ़तारहता, खुशी न जाने किन मोड़ों परमिले खड़ी।

एकअनिश्चित बादल सा आकार बनाये फिरता हूँ,
सकलविश्व पर बरसा दूँ, वह प्यार छिपायेफिरता हूँ।



चित्र साभार – http://agreenliving.org