कुलियों का भार
by प्रवीण पाण्डेय
वर्षों पुराना दृश्य है, एक कुली अपने सर पर दो सूटकेस रखे हुये है, एक हाथ से उन्हे सहारा भी दे रहा है, दूसरे हाथ में एक और बैग, शरीर तना हुआ और चाल संतुलित, चला जा रहा है तेजी से पग बढ़ाते हुये, मुख की मांसपेशियाँ शारीरिक पीड़ा को सयत्न ढकने में प्रयासरत, आप साथ में चल रहे हैं और बहुधा आपकी साँस फूलने लगती है साथ चलने भर में। दृश्य आज भी वही रहता है, बस स्थान बदल जाते हैं, यात्री बदल जाते हैं।
कुली आपका सामान यथास्थान रखते हैं, माथे से अपना पसीना पोछते हैं और साधिकार कहते हैं कि जो बनता है, दे दीजिये। आपने जितना पहले से निर्धारित किया होता है, आप उससे भी अधिक दे देते हैं। पसीने की बूंदों में बहुधा वह अधिकार आ जाता है जो आपके कृपण-मन को पराजित कर जाता है। आपको अधिक पैसा देने में कष्ट नहीं होता है।
मैं न तो कुलियों द्वारा निर्धारित से अधिक धन लेने को सही ठहरा रहा हूँ और न ही उन यात्रियों को कोई आदर्श सिखाने का प्रयास कर रहा हूँ जो निर्धारित से अधिक धन देने के लिये पहले से ही मान जाते हैं। यह एक स्वस्थ बहस हो सकती है कि कुली के द्वारा सामान ढोने का क्या मूल्य हो? बाजारवाद के समर्थक और वामपंथी पुरोधा पूरा शोधपत्र तैयार कर देंगे इस विषय पर। यदि जैसे तैसे कोई एक सूत्र निश्चय भी हो तो उसका अनुपालन कैसे होगा? एक व्यस्त स्टेशन में लाखों यात्री एक दिन में चढ़ते उतरते हैं, अधिकतर तो पहिये वाले सूटकेस लेकर चलते हैं, शेष बचे हजारों यात्रियों और कुलियों के बीच हुये लेन देन पर प्रशासनिक दृष्टि रखना संभव ही नहीं है। इन परिस्थितियों में स्टेशन के बाजार में मोल-भाव का पारा चढ़ता है, यात्रियों का बाजारवाद, कुलियों का साम्यवाद और रेलवे का सुधारवाद, जैसे जैसे जो जो प्रभावी होता जाता है, देश उसी पथ पर बढ़ता जाता है।
जहाँ पर विकल्प होता है, बाजार स्वतन्त्र रूप से मूल्य निर्धारित कर लेता है। पर यदि सारे विकल्प यह निश्चित कर लें कि उन्हें विकल्प की तरह प्रस्तुत ही नहीं होना है तो बाजार पर कोई भी नियन्त्रण नहीं रहता है। आप यदि यह निश्चय कर लें कि आप निर्धारित मूल्य ही देंगे तो बहुत स्टेशनों पर यह भी हो सकता है कि कोई आपका सामान ही न ले जाये। आपसी सहमति के बाद निश्चित मूल्य प्रशासन द्वारा निर्धारित मूल्य से अधिक ही रहता है। कहीं कुछ होते हुये नहीं दिखता है, पर यही प्रयासों का अन्त नहीं है।
अपने दृष्टिकोण को यदि नया आयाम दें और विषय को पूर्वाग्रहों से मुक्त कर एक सार्थक रूप दें तो प्रश्न उठेगा कि इतने आधुनिक परिवेश में कुली अपने सर पर बोझ क्यों ढोये? बहुत से यात्री पहियों वाला सूटकेस लेकर चलते हैं पर उसके पहिये छोटे और स्टेशनों में मार्ग अनियमित होने के कारण बहुत असुविधाजनक होते हैं। क्यों न तब कुलियों को एयरपोर्ट जैसी हैण्डट्रॉली दी जाये जिससे सर पर बोझा ढोने के स्थान पर उस ट्रॉली के माध्यम से श्रम को कम किया जा सके। जब श्रम कम होगा, तब यात्रियों से निर्धारित पैसों से अधिक लेने की प्रवृत्ति भी कम होगी। स्टेशनों पर कुलियों का माध्यम आवश्यक सा हो गया है क्योंकि यात्रियों को सीधे ट्रॉली देने से अव्यवस्था और कुलियों द्वारा विरोध की आशंका रहती है।
प्रायोगिक तौर पर ऐसी 30 हैण्डट्रॉलियाँ, बंगलोर स्टेशन पर लगायी गयी हैं। आरम्भिक आशंकाओं के बाद सभ्यता के सशक्त आविष्कार पहियों ने हैण्डट्रॉली के माध्यम से स्टेशन पर अपना स्थान बनाना प्रारम्भ कर दिया है। निकट भविष्य में सभी कुलियों को हैण्डट्रॉली देने की योजना है।
कुलियों का भार कम होने लगा है, आप आशा करें कि उसका सुप्रभाव आपकी जेब के लिये भी हितकर हो। बाजारवाद, साम्यवाद व सुधारवाद में उपजे घर्षण को कोई पहिया कम कर दे।
हैण्डट्रॉलियाँ? अच्छी शुरुआत है।
जब श्रम कम होगा, तब यात्रियों से निर्धारित पैसों से अधिक लेने की प्रवृत्ति भी कम होगी।बहुत सही लिखा है आपने.कुलियों का भार कम करना मानव वादी भी है और बाज़ार के दृष्टिकोण से सही है.बहुत ही सार्थक चिंतन.
कुलियों द्वारा इतना बोझ उठाया जाना और उसे मेहनताना देने में झिक झिक ,प्लेटफोर्म पर ऐसे दृश्य आम हुआ करते हैं …ऐसे में कुलियों को ट्रौली के साथ देखना एक सुखद अनुभव है …कुलियों और यात्रियों दोनों के लिए ही लाभकारी रहेगा …
वाह यह तो क्रांतिकारी कदम है -भूरि भूरि प्रशंसा के काबिल …
यह ट्रालिया कुलियो को भार मुक्त भी कर सकती है .हवाई अड्डो की नकल है लेकिन वहा ट्रालिया स्व्यम ढकेली जाती है ना की कुलियो के द्वारा .जैसे भिश्ती इतिहास हो गये अब कुलियो का नम्बर आ चुका है शायद और यह ट्राली ही उनका काल साबित होगी
कुछ स्टेशन पर महिला पोर्टर्स को भी लाईसेंस दिये गये हैं, इस द्रूष्टि से भी भविष्य में यह एक अच्छा कदम होगा।
Good to hear Bangalore division is always ready with something new to do .Congratulatoins.
kabhi kabhi to coolie wakai gambheer samasya utpann kar dete hain… lekin ye badhiya prayas hai. hamare dhiru ji ki tippanni bhi sahi prashn utha rahi hai…
badiya shuruaat…
भार-वाहक का काम सबके बूते का नहीं है,कुली अधिकतर जी-जान लगा देते हैं भार ढोने में !अगर कुली ज़्यादा मोलतोल नहीं करता तो कई बार व्यक्ति उसकी मेहनत को देखकर अलग से भी टिप देते हैं !
इस से कुलियों को सिर से भार ढोने से मुक्ति मिलेगी| सिर का बोझ कम हो जाएगा|
बैंकोक में इस तरह की व्यवस्था से रूबरू हुए.. वहाँ सामान (नग) के हिसाब से पैसा है… लगभग ३० रुपये प्रति नग…अपने सामान के हिसाब से कूपन लेलो और सामान पहुचाने के बाद कुली को कूपन थमा दो… सीधा सरल कोई झंझट नहीं… चांगमई में शायद ३० रुपये में ट्रोली मिलती है.. ट्रोली लो अपना सामान रखो और बस.. ये भी अच्छी व्यवस्था लगी.. ऐसे बहुत से प्रयोग किये जा सकते है… लेकिन वहाँ संभव नहीं जहां पर प्लेटफार्म क्रोस करने के लिए सीढ़ी से जाना होता है… शुभकामनाएँ.. नई शरुआत के लिए..
.@-अपने दृष्टिकोण को यदि नया आयाम दें और विषय को पूर्वाग्रहों से मुक्त कर …Great thought !All we need to do is to be progressive and a positive thinker in our views. That works wonders..
प्रवीण जी, मैंने मध्यप्रदेश के अधिकांश शहरों में देखा है कि वहाँ सीढियों के साथ रेम्प भी होते हैं, इस कारण कुली ना मिलने की स्थिति में परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। नागपुर में तो इतना अच्छा लगा कि वहाँ नए चमकदार रेम्प पर गोल्फ-कार चल रही थी। वे अशक्त यात्रियों को डिब्बे तक मुफ्त छोड़ रही थी। इसलिए ट्रोली के साथ ही स्टेशनों पर रेम्प भी बनवा दिए जाएं तो बहुत सुविधा हो जाएगी। कई स्टेशनो पर तो कुली होते ही नही हैं। समान के साथ सीढियां चढना असम्भव सा हो जाता है।
प्रवीण जी, मैंने मध्यप्रदेश के अधिकांश शहरों में देखा है कि वहाँ सीढियों के साथ रेम्प भी होते हैं, इस कारण कुली ना मिलने की स्थिति में परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। नागपुर में तो इतना अच्छा लगा कि वहाँ नए चमकदार रेम्प पर गोल्फ-कार चल रही थी। वे अशक्त यात्रियों को डिब्बे तक मुफ्त छोड़ रही थी। इसलिए ट्रोली के साथ ही स्टेशनों पर रेम्प भी बनवा दिए जाएं तो बहुत सुविधा हो जाएगी। कई स्टेशनो पर तो कुली होते ही नही हैं। समान के साथ सीढियां चढना असम्भव सा हो जाता है।
बहुत अच्छी पहल ….. प्रसंशनीय कदम
कुली पर बहुत संवेदनापूर्ण आलेख है यह…. अब तो किसी भी पेशा में मानवीय दृष्टि ख़त्म हो रही है और बाजारू दृष्टि आ गई है… अधिकांश कुली बोझ उठाते उठाते बवासीर के मरीज़ हो जाते हैं .. शायद २० ३० रूपये देते समय हम इसका ख्याल नहीं करते…. कई बार कुली बहस भी करते हैं लेकिन उसके पीछे उनका भी बुरा अनुभव होता है.. सभी यात्री सहज और सरल नहीं होते.. कई बार लोग वाजिब मेहनत भी नहीं देते हैं..
आज आपने उन पर कलम चलाई है जिनके बारे में बहुत कम लिखा गया है ….इनका वज़न कम करने की घोषणा से मानवता को थोड़ी राहत मिलेगी ! शुभकामनायें !
इन ट्रॉलियों का प्रयोग हवाई अड्डे पर आसान है लेकिन रेलवे स्टेशन पर मुश्किल। यहां पर अक्सर पुल पार करने पड़ते हैं जहां पर सीड़ियां हैं।
सुखद शुरुआत!!
रेलवे की तरफ से बहुत अच्छी शुरुआत, प्रवीण ज़ी.बहुत बढ़िया पोस्ट भी.
उन्नत सोच ! बेहतर योजना ! प्रशंसनीय !
यात्रियों का बाजारवाद, कुलियों का साम्यवाद और रेलवे का सुधारवाद …….सटीक बात कही है |सूरत रेलवे स्टेशन पर मैंने इन कुलियों की तलवारबाजी देखी है |
जब श्रम का विभाजन होता है to कार्य की आसानी के साथ साथ आर्थिक प्रगति भी होती है
आपकी पोस्ट पढ़कर मन में ये प्रश्न उठा की ये ट्रोलियाँ अगर यात्रियों को रेलवे की तरफ से मुफ्त ही उपलब्ध करा दी जायं जैसा की मॉल में होता है तो क्या होगा ?क्या विदेशी रेलवे स्टेशनों पर और एअरपोर्ट पर भी अपने कुली भाई मिलते हैं ?
अब जो ट्राली भी कुली से धकियाएंगे उनका कोई क्या कर लेगा
यह तो बेहद अच्छी पहल है .. इस प्रस्तुति के लिये आपका बहुत-बहुत आभार ।
अच्छी पहल । अधिक समस्या ओवर हेड ब्रिज पर सामान लेकर चढ़ने में होती हैं । उसके लिये पुल के बगल में लगेज कनवेयर्स , या एसकेलेटर्स,जिन पर लगेज भी कैरी हो सके ,ऐसा कुछ किया जाना चाहिये । इन ट्रालियों में अगर नीचे बेस पर weighing platter इनबिल्ट कर दे तो सामान का वजन भी तुरंत log हो जाएगा और कुलियों को भुगतान वजन के अनुसार निर्धारित दर से किया जा सकता है ।
भारत मे गरीब बहुत हे इन नेताओ की वजह से, इस लिये लोगो को हम सब का भार ऊठाना पडता हे, वैसे यह एक आमनविया कार्य हे, रिक्शा चलना, कुली का काम, माल को ढोना ओर यह सब नही होना चाहिये, हम सब को अपना काम खुद करना चाहिये, बुजुर्ग ओर बिमार लोगो को टिकट के समय ही सहायता के लिये बोल देना चाहिये.
मुझे मौजूदा व्यवस्था में सुधार की गुंजाईश नहीं दिखती.वर्तमान में मैंने पाया है कि कुलियों के झुण्ड खाली बैठे रहेंगे लेकिन बहुत कम सामान होने पर भी तय दर से चलने के लिए तैयार नहीं होंगे. क्योंकि वे जानते हैं कि परेशान यात्री के पास और कोई ठौर नहीं है.अन्दर की बात यह भी है कि कुली दिन भर में सैंकड़ों रुपये कमाते हैं पर इसका कुछ हिस्सा पुलिस और दूसरे मंगतों को भी चढौती में लगता है. इस बारे में तो खैर क्या बात की जाय.जिस तरह दफ्तर में नाकारा कर्मचारी काम से बचने के लिए कम्प्यूटरों को खराब कर देते हैं इसी तरह ट्रालियों को भी देरसबेर पुरानी व्यवस्था चलते रहने देने के लिए बिगाड़ देने की संभावनाएं हैं.भारिकों की मनमानी और बदतमीजी का तोड़ मैंने इस तरह किया है कि कम सामान लेकर चलता हूँ और यथासंभव सारा सामान खुद ही उठा लेता हूँ.हूँ दुबला-पतला लेकिन चालीस-पचास किलो सामान कई दफा उठा चुका हूँ.सामान ढोना भी एक कला है. सबसे अच्छे होते हैं ट्रेवल बैग्स. और सबसे खराब होते हैं भीमकाय सूटकेस. दो मीडियम साइज़ के बैग दोनों कन्धों पर और दो मंझोले सूटकेस हाथों में… और फिर अपनी दुनिया का बोझ हम खुद ही उठाते हैं.पत्नी इसे मेरी कंजूसी कहती है और मैं इसे आत्मनिर्भरता कहता हूँ. आखिर हर जगह तो कुली मिलने से रहे.
विचार शून्य साहब जैसे ही विचार मेरे मन में आये . अगर ये पहिये वाली ट्राली यात्रियों को उपलब्ध हो जाएगी तो . सीढियों पर तो चढ़ नहीं सकती हा अगर सब वे है तो बढ़िया .
हैण्डट्रॉलियाँ – जरूरी है .. जब बाकि जगह श्रम को मशीनों के साथ बदला जा रहा है – कुली ही अपवाद क्यों रहें.बेहतरीन विचार.
बहुत सुन्दर विचार भाई..
"बाजारवाद, साम्यवाद व सुधारवाद में उपजे घर्षण को कोई पहिया कम कर दे।"से पहले"बाजारवाद के समर्थक और वामपंथी पुरोधा पूरा शोधपत्र तैयार कर देंगे इस विषय पर"तथा"बहुधा आपकी साँस फूलने लगती है साथ चलने भर में"जैसे वाक्यों ने इस आलेख को अधिक प्रभावशाली बना दिया है|||वैसे एक सच ये भी है कि अक्सर दो सूटकेस और एक बड़ा बेग उठाने के नाम पर हम से २०० रुपये तक माँगने लगते हैं कुली लोग|
ट्रालियां सीढियों पर कैसे चलेंगी ????
यह बहुत बढ़िया बात सुनाई आपने.प्राय:स्टेशन पर दूसरे से भर उठवा कर ग्लानि होती है. न उठवाना भी कुली के लिए दुखद होगा. यह समाधान बेहतर है.घुघूती बासूती
isko kahte hain win win situation. :)accha laga jaan kar.
सच है कुलियों के बिना सफर कितना मुश्किल है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। सफर की शुरुआत और अंत दोनों इन्हीं के साथ होती है। अच्छा विषय और विचार
सुन्दर,रोचक भूरि भूरि प्रशंसा के काबिल …आपको हार्दिक शुभ कामनाएं !
–अच्छा आलेख व नवीन विषय..व अच्छी शुरूआत.."जब श्रम कम होगा, तब यात्रियों से निर्धारित पैसों से अधिक लेने की प्रवृत्ति भी कम होगी। —"——मुझे नहीं लगता कि यह प्रव्रत्ति कम होगी…क्योंकि यह मानवीय कमजोरी, बाजार व्यवस्था व आर्थिक आवश्यकता की बात है…आज भी बहुत से अच्छे कुली सही पैसे ले लेते हैं( यद्यपि कम ही हैं–समाज की स्थिति के अनुसार )—हर ओवर-ब्रिज सीडियों के साथ रेम्प/सब-वे भी हो तो और भी आसानी रहेगी…
‘ इतने आधुनिक परिवेश में कुली अपने सर पर बोझ क्यों ढोये?’कोलकाता में तो आदमी आदमी को ढो रहा है 😦
बहुत सार्थक चर्चा करता हुआ लेख…..कुलियों के बोझ को कम करने के लिए हैण्ड ट्राली का प्रयोग सराहनीय है |
मेरी राय में कूलियों को सर पर भार रखने से रोका जाना चाहिए।सभी कूलियों को मुफ़्त में ट्रॉली दी जानी चाहिए जो रेल्वे की सम्पत्ति हो।हर स्टेशन पर बाहर निकलने के लिए ऐसे रास्ते होने चाहिए, जहाँ सीढियाँ न हो और उतार चढाव की आवश्यकता न हो। अधिक रैम्पों का इन्तजाम हो।प्लैटफ़ॉर्म का फ़र्श थोडी चिकनी हो, जिसपर ट्रॉली आसानी से चल सके।एक ट्रॉली का भार कितना हो, वह पूर्वनिश्चित हो और उसके लिए कूली को पूर्वनिश्चित मुआवजा दिया जाए। यात्री को (यदि वह चाहें तो ) रेल टिकट के साथ, सामान का भी एक टिकट दिया जाए (अतिरिक्त शुल्क पर) जिसे वह कूली को दिखाकर, अपना सामान कूली की ट्रॉली द्वारा बहार ले जा सके।कूली इस कूपन या टिकट को रेल्वे कार्यालय में पेश करके रकम वसूल कर सकता है।ट्रॉलियाँ दो किस्म की हों, एक हलके सामान के लिए, और एक भारी सामान के लिए, जिसके शुल्क अलग हो।और सोचने पर, बहुत से सुझाव संभव हैं।देखते हैं अन्य पाठक क्या कहते हैंशुभकामनाएंजी विश्वनाथ
बढ़िया शुरुआत है.धीरे धीरे यात्रियों के हाथ में आ ही जानी है ये ट्रोली .एअरपोर्ट की तरह.
यह मानवीय पहल है। इसके बारे में सोचनेवाले और इसे क्रियान्वित करनेवाले को साधुवाद। अन्तर्मन से। यह सोच, 'श्रम' के प्रत्येक क्षेत्र में विकसति किया जाना चाहिए।
आज कल लोग खुद ही खींचते हुए सामान ले जाने वाले बक्से और बैगों का प्रयोग करते हैं। ऐसे में इन कुलियों के पेशे वर तो लगता है भारी आफ़त आ गई होगी। हां ये हैंड ट्रोली अच्छी पहल है।आलेख बहुत ही अच्छा है।
आप के सारे ब्लांग पढ़ती हूँ, काफी उत्साह वर्धक हैं। मेरे ब्लांग में भी आप आये तो मुझे खुशी होगी धन्यवाद…
…कुलियों के भार पर भारी-भरकम चिंतन… वैसे यह सब सोचने में थोड़ी देर नहीं कर दी रेलवे ने… ६३ साल हो गये हैं आजाद हुऐ…ज्यादा नग होने पर हाथ-ठेला तो लगभग सभी स्टेशनों पर मौजूद है पहले से और उनका ठेकेदार भी, जो प्रति फेरा ५ से १० रूपये लेकर कुलियों को उसे देता है… …
समय के साथ परिवर्तन अवश्यसंभावी और स्वागतेय.
अरे वाह! ये तो बड़ी अच्छी पहल है.
भाई पाण्य जी मेरे पोस्ट पर जरा खुल कर कमेंट दीजिए।आपका स्वागत है।
सर उपयोगी कदम !
ये आप जैसे सामाजिक व मानवीय सोच रखने तथा विकाश को सही मायने में जन-जन तक पहुँचाने के लिए लगातार सोचते रहने वाले अधिकारीयों के सच्चे प्रयास का नतीजा है…काश हमारे देश के सर्वोच्च संवेधानिक पदों पे बैठे लोग भी ब्लोगर होते और उनकी सोचने की शक्ति भी इसी तरह परोपकारी इंसानी सोच पे आधारित होती…
सुखद मानवीय पहल
एक नई सोच के साथ ही नया प्रयोग शुरू किए जाने पर रेलवे को बधाई । कल क्या होगा कौन जानता है लेकिन ऐसे प्रयोग होते रहने चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि सब इस बात को समझ सकेंगे । बेहतरीन पोस्ट प्रवीण भाई
सोच तो अच्छी है किन्तु इससे यात्रियों को आर्थिक राहत मिल सकेगी इसमें संदेह है ।
सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं.., ट्रॉलियों के विषय में सिर्फ इतना कि और भी गम हैं इन ट्रॉलियों के अतिरिक्त, उनका क्या!!!
प्रायोगिक तौर पर ऐसी 30 हैण्डट्रॉलियाँ, बंगलोर स्टेशन पर लगायी गयी हैं। आरम्भिक आशंकाओं के बाद सभ्यता के सशक्त आविष्कार पहियों ने हैण्डट्रॉली के माध्यम से स्टेशन पर अपना स्थान बनाना प्रारम्भ कर दिया है। निकट भविष्य में सभी कुलियों को हैण्डट्रॉली देने की योजना है। प्रयोग सफल रहे यही शुभकामना है …कुली और यात्री दोनों को आराम …बढ़िया शरुआत …अच्छी जानकारी
तब कुलियों को एयरपोर्ट जैसी हैण्डट्रॉली दी जाये जिससे सर पर बोझा ढोने के स्थान पर उस ट्रॉली के माध्यम से श्रम को कम किया जा सके। जब श्रम कम होगा, तब यात्रियों से निर्धारित पैसों से अधिक लेने की प्रवृत्ति भी कम होगी। स्टेशनों पर कुलियों का माध्यम आवश्यक सा हो गया है क्योंकि यात्रियों को सीधे ट्रॉली देने से अव्यवस्था और कुलियों द्वारा विरोध की आशंका रहती है।EK SAHI PRAYAS…..JAI BABA BANARAS…..
अच्छी शुरुआत है .. पर धीरे धीरे कुलियों का धंधा ही न चोपट हो जाए …
हैण्ड ट्राली के साथ थोडा कसरत भी हो जाएगी … सुन्दर अभिव्यक्ति …
यह तो कब का हो जाना चाहिये था. देर आयद दुरूस्त आयद ..
बहुत अच्छी शुरुआत है| बाकी जगहों पर भी ऐसा हो इसकी उम्मीद करती हूँ |…शिल्पा
kuliyon ko bhi manmani nahi karni chahiye aur trolly milna sahi hai
Nice thought for the porters and public! विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
कुलियों को ट्रॉलियाँ दिए जाने की क्या आवश्यकता है? यात्री स्वयं ट्रॉली का प्रयोग करके आत्मनिर्भर क्यों न रहें? कुलियों को कुलीत्व से मुक्त क्यों न करे दिया जाए ?
आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ……… अनेकानेक शुभकामनायें. मेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहेंदिनेश पारीक http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html
आप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ……… अनेकानेक शुभकामनायें. मेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहेंदिनेश पारीक http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html
It is really a welcome step . Thanks for sharing.
ट्रॉली प्रथा कुली प्रथा का अंत हो सकती है.. कुली एक कहानी का पात्र हो सकता है.. किन्तु किसी की रोटी नहीं छिननी चाहिए … कुछ विकल्प उनके लिए भी हों .. एक बात बोलूं प्रवीण जी.. महंगाई बड रही है तो कुली का भी मेहताना बढना चाहिए …
सुखद शुरुआत है। कुलियों के प्रति हम संवेदनशील बने रहें।
Dhanyawad.
praveen ji aapka sijhav mujhe to bahut hi achha laga .agar waqai me aisa ho jaaye to dono hi paxhon ko rahat milegi.bahut sarthak v vicharniy tathy uthaya hai aapne .iske liye sach me prayatn sheel ho jaana chahiyebahut hisarthak post bahut bahut badhai v dhanyvaad poonam
@Smart Indian – स्मार्ट इंडियनजब यही निष्कर्ष है तो प्रारम्भ भी कभी न कभी करना ही होगा।@विशालपसीने की बूँदों में वह अधिकार आ जाता है, पर वह श्रम क्यों किया जाये जिसकी आवश्यकता ही नहीं है।@वाणी गीतलक्ष्य यही है किसी को भी हानि न हो और किसी को भी अनुचित लाभ न हो।@Arvind Mishraबहुत धन्यवाद आपका।@dhiru singh {धीरू सिंह}वर्तमान समाजिक परिवेश में कुलियों का अस्तित्व समाप्त नहीं किया जा सकता है पर घर्षण कम तो किया ही जा सकता है।
@संजय @ मो सम कौन ?महिला पोर्टरों को तो यह हर स्थान पर हैण्डट्रॉली देनी चाहिये।@anupama's sukrity !बंगलोर की परम्परा रही है नये विचारों को स्थान देना।@Indian Citizenसबको साथ लेकर चलना होगा, कुलियों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है, इतने वर्षों से उनका सम्बन्ध रहा है। @Apanatvaबहुत धन्यवाद आपका। @संतोष त्रिवेदीकई बार तो स्वतः ही यात्री अधिक पैसे दे देते हैं पर अधिकतर कुली इसे अपना अधिकार समझ लेते हैं।
@Patali-The-Villageबस यही प्रयास है, इस उपक्रम का।@रंजन (Ranjan)आधुनिक प्रयोगों का सुधारवाद रेलवे लागू तो करना चाहता है पर कुलियों का अस्तित्व हिलाये बिना। एक बार यदि हैण्डट्रॉलियों की आदत पड़ जाती है तो सुधार के प्रयास उन्ही के तरफ से होंगे।@ZEALसकारात्मक विचार सदा ही कोई न कोई दिशा निकाल देते हैं।@ajit guptaबंगलोर में रैम्प भी है और लिफ्ट भी अतः ट्रॉलियों के आवागमन की कोई समस्या नहीं है। सीढ़ियों में समान लेकर चढ़ना सच में कठिन है।@डॉ॰ मोनिका शर्माबहुत धन्यवाद आपका।
@अरुण चन्द्र रॉयदोनों ही ओर से ज्यादती होती है, बड़े स्टेशनों पर संगठित होने के कारण यात्रियों को असुविधा हो जाती है।@सतीश सक्सेनाविकास के पहिये सबको ही राहत दें।@उन्मुक्तयहाँ पर समुचित रास्ता भी बना दिया है, बंगलोर में लिफ्ट भी है।@Udan Tashtariबहुत धन्यवाद आपका।@Shivप्रयास तो सतत होते रहने चाहिये, सफलता तो मिलेगी ही।
@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठीबहुत धन्यवाद आपका।@नरेश सिह राठौड़कई स्थानों पर स्थिति चिन्तनीय है।@गिरधारी खंकरियालसमुचित श्रम हो और उसका समुचित मूल्य मिले।@VICHAAR SHOONYAअब सैकड़ो वर्षों के बाद उन्हे स्टेशन से हटा देने भी उचित नहीं होगा। सुधार की प्रक्रिया निश्चय ही कोई सार्थक दिशा पायेगी।@Kajal Kumarस्वयं ही कुलियों में यह भाव आयेगा कि अधिक पैसे न लिया जाये।
@सदाबहुत धन्यवाद आपका।@अमित श्रीवास्तवआपके सुझाव बहुत ही उपयोगी हैं, निश्चय ही लागू करने की प्रक्रिया चलती रहेगी।@राज भाटिय़ाआपसे पूरी तरह से सहमत हूँ, यदि किसी को सहायता की आवश्यकता हो तो पहले बता देना उचित रहेगा।@निशांत मिश्र – Nishant Mishraमैं भी पहले अपना सामान लेकर चलता था पर अब परिवार में सबका सामान उठाना कठिन है। प्रयोगों का धाराशायी करने में हम भारतीय विशेषज्ञ हैं। मैं आशान्वित हूँ कि यही राह आगे तक जायेगी।@ashishसब वे है और लिफ्ट भी। यात्रियों को ट्रॉली देना बिना कुलियों की जीविका प्रभावित किये तो संभव नहीं दिखता है वर्तमान में।
@दीपक बाबायही प्रयास है।@परावाणी : Aravind Pandeyबहुत धन्यवाद आपका।@Navin C. Chaturvediआवश्यकता हम सबकी है, आपसी सहमति से ही सहयोग संभव है।@रंजनासब वे और लिफ्ट भी है, साथ ही साथ ट्रॉली पथ भी।@Mired Mirageसबका ही भला होगा इसमें।
@Puja Upadhyayप्रयोग प्रारम्भ कर दिया है, सार्थक दिशा निकलेगी।@mahendra srivastavaहमें उनकी आवश्यकता है, श्रम सार्थक हो।@मदन शर्माबहुत धन्यवाद आपका।@Dr. shyam guptaयदि निश्चय कर लिया है कि लूटना है तो सम्भव नहीं होगा पर मानवीय हृदय को इतना कठोर भी नहीं समझना चाहिये।@cmpershadबहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है वह तो।
@सुरेन्द्र सिंह " झंझट "बहुत धन्यवाद आपका।@G Vishwanathआपके सभी सुझावों पर सहमति, निसन्देह लागू करने की गति निर्धारित करनी होगी। @shikha varshneyनिष्कर्ष पर कुछ नहीं कह सकता हूँ पर वर्तमान में यही दिशा सर्वोत्तम लगती है। @विष्णु बैरागीबहुत धन्यवाद आपका। अन्य क्षेत्रों में भी यह प्रयास चलता रहेगा।@मनोज कुमारअधिक सामान हो तो पहिये वाले सूटकेस भी खीचे नहीं जा सकते हैं, इसमें 200 किलो तक का सामान उठाया जा सकता है।
सामान पहुँचाने के बाद, जो बनता हो दे दीजिये, ऐसा कहनेवाले कुली यदि कहीं हैं तो वह स्टेशन आदर्श होगा. चेन्नई में ट्रोली की सुविधा पहले से है और वहां के कुली यात्रियों (विशेषकर हिन्दीभाषी) के साथ कैसे पेश आते हैं, यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है. स्टेशन और उसके आसपास रहनेवाले दुकानदार, वाहन चालक, बोझ उठानेवाले कुली कितने इमानदार, व्यवहार कुशल और यात्रियों के साथ मैत्रीपूर्ण होते हैं, सभी जानते है. हाँ बुरी से बुरी जगह पर भी अच्छे लोग होते ही हैं. रेलवे स्टेशन इसका अपवाद नहीं हैं.
@maheshwari Kaneriनिश्चय ही आपका ब्लॉग पढ़ना सौभाग्य होगा मेरे लिये।@प्रवीण शाहनिश्चय ही देर अवश्य हुयी है पर कभी न कभी तो प्रारम्भ करना ही था। यदिव्यवस्था पारदर्शी रहेगी तो इस तरह के बिचौलिये भी नहीं आयेंगे।@Rahul Singhयह परिवर्तन सबके लिये सुखद रहे, यही प्रार्थना है। @वन्दना अवस्थी दुबेपहल अपने निष्कर्ष तक पहुँचे, उसी में सबका हित है।@ प्रेम सरोवरनिश्चय ही आपकी पोस्ट पढ़ना अच्छा अनुभव है मेरे लिये।
@G.N.SHAWबहुत धन्यवाद आपका।@honesty project democracyहमें सतत ही उन स्थानों के बारे में सोचना होगा जहाँ पर उत्पन्न घर्षण से समाजिक व्यवहार क्षुब्ध होता है। वहीं पर ही हमारी ऊर्जा लगे।@Ratan Singh Shekhawatमानव हैं कुली भी। अतः उनके बारे में भी सोचना पड़ेगा।@अजय कुमार झाजब तक प्रयोग होते रहेंगे कोई न कोई दिशा निकलती रहेगी।@सुशील बाकलीवालकम से कम परिस्थितियाँ तो ऐसी होगी कि वह अधिक पैसा देने को बाध्य नहीं कर पायेगा।
@चला बिहारी ब्लॉगर बननेकहीं न कहीं से तो प्रारम्भ हो। और गमोँ को भी देखेंगे।@संगीता स्वरुप ( गीत )दोनों को ही आराम मिले, यही प्रयास है इस प्रयोग का।@Poorviyaबहुत धन्यवाद आपके उत्साहवर्धन का।@दिगम्बर नासवाआशंका कुलियों को यही थी कि उनकी जीविका बंद हो जायेगी।@महेन्द्र मिश्रट्रॉली आने से दोनों का ही श्रम कम हो जायेगा।
@M VERMAदेर से ही सही पर प्रारम्भ कर दिया, यही संवेग बना रहे।@Shilpaअन्य स्थानों पर भी यह हो और सफल रहे, यही कामना है।@रश्मि प्रभा…कुलियों की मनमानी करने की प्रवृत्ति कम होनी चाहिये इस प्रयोग से।@Vivek Jainबहुत धन्यवाद आपका।@डॉ.कविता वाचक्नवी Dr.Kavita Vachaknaveeवर्तमान समाजिक परिवेश में कुलियों के अस्तित्व को नकारना सम्भव नहीं है।
@Dinesh pareekबहुत धन्यवाद आपका।@Gopal Mishraबहुत धन्यवाद आपका।@डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीतिकई स्थानों पर कुली अधिक कमाते हैं, कई स्थानों पर भूखे रह जाते हैं।@mahendra vermaकुलियों के प्रति संवेदना दिखानी होगी।@muskanबहुत धन्यवाद आपका।
@JHAROKHAरेलवे की ओर से दोनों पक्षों को राहत देने का प्रयास है।@ संतोष पाण्डेयहम तो इसी आस में बैठे हैं कि सब सुधरेंगे।
सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं…..
अच्छी शुरुआत, लेकिन अगर उपलब्ध हो तो क्या लोग खुद ही ट्रालियां चलाना नहीं पसंद करेंगे?
@संजय भास्करउठायें पर साधन और सुविधा के साथ।@ Abhishek Ojha वह तो आदर्श स्थिति है पर वर्तमान परिस्थितियों को नकारा नहीं जा सकता है।
शब्द कंजूसी सम्मान – http://girijeshrao.blogspot.com/2011/05/saturday-at-1240pm-girijesh-rao-poke.html मिलने पर बधाई !
बेहद प्रासंगिक मुद्दे को आपने पोस्ट में उठाया है…साधुवाद.
हाँ भैया, इस बार देखा मैंने भी स्टेशन पे…आपने पहले इसके बारे में बताया था..बस इस बार इसका इस्तेमाल नहीं कर पाया..खैर, ये एक अच्छी शुरुआत है..कम से कम लोगों को थोड़ी राहत मिलेगी ही..और कुलियों को भी
हैन्डट्रॉलियों का उपयोग सचमुच कारगर होगा । कुलियों को मुझे तो ज्यादा देने में परेशानी नही होती वह जो काम कर सकते हैं मै नही कर सकती सांस फूल जाती है । जो ठीक से मांगे उन्हें तब तक तो देना चाहिये जब तक कि ट्रॉलियों की व्यवस्था नही हो जाती । कई बार कुली, खास कर दिल्ली के एकदम अवास्तव मांग रखते हैं जैसे चार सूटकेस के ९०० रु. तब हम दूसरा ढूंढते है । महंगाई पहले बढती है और सरकार रेट बाद में बदलती है ।
कौन करेगा चाकरी कौन उठाये भारखाने को देती नही कुलियों को सरकार शुभकामनायें।
@ सतीश सक्सेनाजाकर पढ़ आये और आगे से सुधरेंगे।@ Akanksha~आकांक्षारेलवे में कार्य करने से यह विषय बहुधा सामने आता है।@ abhiअभी संख्या कम होने से सबको समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है।@ Mrs. Asha Joglekarदिल्ली के बारे में कई परिचितों ने बताया है कि स्थिति खराब है।@ निर्मला कपिलाजिनका अपना पेट भरा है,उनको खबर कहाँ रहती है।
ट्राली के आने पर भी कुली की महत्ता कम न होगी…कुछ यात्रियों को सामान ट्राली पर रखने के लिए भी कुली की ज़रूरत होती है…कुली को शारीरिक श्रम कम करना पड़ॆगा..यह शुरुआत अच्छी है..
a very good initiative… i wish the authorities success.
@ मीनाक्षी स्टेशनों पर कुलियों का अस्तित्व नकारना संभव नहीं है, उन्हे भी साथ लेकर चलना होगा।@ Manoj Kबहुत धन्यवाद आपका।