नव विराग
by प्रवीण पाण्डेय
बुद्ध ऐश्वर्य में पले बढ़े पर एक रोगी, वृद्ध और मृत को देखने के पश्चात विरागी हो गये। उनके माता पिता ने बहुत प्रयास किया उन्हें पुनः अनुरागी बना दें पर बौद्ध धर्म को आना था इस धरती पर। अर्जुन रणक्षेत्र में अपने बन्धु बान्धवों को देख विराग राग गाने लगे थे पर कृष्ण ने उन्हें गीता सुनायी, अन्ततः अर्जुन युद्ध करने को तत्पर हो गये, महाभारत भी होना था इस धरती पर। विराग के बीज भारत की आध्यात्मिकता में चारों ओर फैले हैं, गाहे बगाहे होने वाले महापुरुष उसकी चपेट में आते जाते रहते हैं। इन स्थितियों में परिजनों का भी कार्य बढ़ जाता है, अब सफल हों या असफल, पर प्रयास अवश्य होता है परिजनों के द्वारा कि वैराग्य का ज्वर उतर जाये। वैराग्य से अनुराग और अनुराग से वैराग्य पाने की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है, इतिहास भी ऐसी घटनाओं को पूर्ण सम्मान और सम्मानित स्थान देता है।
उसी दिशा मेरा अनन्त है |
किसी साधु सन्त को देख हम सहज ही श्रद्धानवत हो जाते हैं पर पता नहीं क्यों हम त्यागी पुरुषों के वैराग्य से जितना प्रभावित रहते है, अपनों के वैराग्य से उतना ही सशंकित। त्याग बड़ा आवश्यक है, वैराग्य बड़ा आवश्यक है, समाज में सतोगुण का प्राधान्य बना रहता है इससे पर हमारे अपनों को आकर न छुये यह गुण। भारत के विरागी वातावरण से सशंकित माता पिता सदा ही प्रयास में रहते हैं कि उनके बच्चे अनुरागी बने रहेँ। संस्कार तक तो नैतिक शिक्षा ठीक है पर जैसे ही वह शिक्षा अध्यात्म की ओर बढ़ने लगती है, परिजनों के चेहरे पर व्यग्रता दिखने लगती है। यदि बच्चे का स्वाभाविक रुझान भजन आदि की ओर दिखता है तो उसे अन्य प्रलोभनों से भ्रम मे ढकेलने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है।
पुराने समय में जीवन शैली में अच्छे गुण ठूँस ठूँस कर भरे हुये थे, सुबह उठना, माता पिता के पैर छूना, शीघ्र स्नान करना, स्वाध्याय करना, योग व प्राणायाम करना। व्यक्ति मानसिक रूप से सुदृढ़ होता था, वैराग्य जैसे विषय के बारे में सोच सकता था और बहुधा वैराग्य लेने के बाद ही सोचता था। आजकल तो उठने के बाद चाय न मिले तो सर में दर्द होने लगता है, वैराग्य का विचार भी भाग लेता है यह विवशता देख कर।
आधुनिक जीवन शैली ने सशंकित माता पिताओं को संबल दिया है कि उनके बच्चे भले ही एक बार बिगड़ जायें पर वैराग्य की बाते नहीं करेंगे। मन इतने स्थानों पर उलझ गया है कि वहाँ से हटाते हटाते बुढ़ापा धर लेता है और शान्ति से अपनों के ही बीच निर्वाण पाने की विवशता हो जाती है। निश्चिन्त भाव से आप रह सकते हैं, अब बच्चों को अनुरागी बनाने का कार्य मॉल, टीवी और इण्टरनेट कर रहे हैं। इन तीनों ने मिलकर माया में इस तरह से बाँध दिया है कि तन, मन और आत्मा हिलने का भी प्रयास नहीं करते हैं। रही सही जिज्ञासा शिक्षा पद्धति लील गयी है, घिस घिस कर पास हो जाते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की बौद्धिक उछलकूद के बाद प्राप्त नौकरी में पिरने के बाद जो तत्व शेष बचता है वह भविष्य की संचरना में तिरोहित हो जाता है।
अब न बुद्ध के माता पिता जैसा दुख होगा किसी को, न कृष्ण जैसा गूढ़ ज्ञान देना पड़ेगा किसी को। भौतिकता और पाश्चात्य संस्कृति ने अनुरागी समाज निर्माण कर दिया है।
माता पिता तो निश्चिन्त हो गये उनके बच्चे अनुरागी बने रहेंगे पर क्या हमारे अन्दर भी वह स्थायित्व आया है कि हम सदा ही अनुरागी बने रह सकते हैं? क्यों कभी कभी सुविधा भरे जीवन में मन उचटने सा लगता है, क्यों हम और अपने अन्दर धसकने लगते हैं, शान्ति को ढूढ़ते ढूढ़ते? कुछ तो है जो अन्दर हिलोरें लेता है, कुछ तो है जिसका साम्य हमारी आधुनिक जीवन शैली से नहीं बैठता है? सुख सुविधायें होने के बाद भी क्यों अतृप्ति सताती है?
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर।
का सोचे रे, मनवा मोरे |
चित्र साभार – http://paintermommy.com/, http://earthhopenetwork.net
का सोचे रे, मनवा मोरे……………..हम वैराग्य की सी अवस्था प्राप्ति हेतु इन्टरनेट रुपी सघन वन में विचरण कर रहे हैं…..बाकी तो मन उचाट हईये है. 🙂
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, सच है….. आपकी हर बात से सहमत …ऐसा ही होता है ….
आजकल सब जगह वैरागी ही नजर आते हैं…
हम इन्टरनेट के जरिये दुनियां में धूम मचाते ब्लोगर लोग, भी विरक्ति और संन्यास की और जायेंगे पहले छा तो जाने दीजिये :-))
जीवन के सत्य, तथ्यों के परदे में ओझल से रह सकते हैं, छुपते नही.
सत्य विश्लेषण । गुरुओं को पूजने वाले हम अपने बच्चों को दीक्षा लेने यदि देखलें तो मारते हुए उसे घर ले आते हैं.
Detachment is good up to some extent.
हम त्यागी पुरुषों के वैराग्य से जितना प्रभावित रहते है, अपनों के वैराग्य से उतना ही सशंकित। @ अब तो यही धारणा बन चुकी है कि त्यागी,इमानदार,देश के लिए मर मिटने वाला अपने घर में नहीं पडौसी के घर ही पैदा हो |
भारतीय मनीषा आश्चर्यजनक रूप से वैराग्य के प्रति सम्मोहित होती रही है और वैरागियों के प्रति अनुरक्त!यहाँ जो सब कुछ छोड़ छाड़ राज पाट त्याग वैरागी हो उठता है वह लोक नायक बन जाता है -प्रातः स्मरणीय और पूज्य!सभी धर्मग्रन्थों ने अनासक्ति भाव को प्रमुखता से उकेरा है …वानप्रस्थ की व्यवस्था भी यहीं तो है -और शायद अनुचित नहीं !
नव विराग की धारणा अच्छी लगी…
बहुत सच सच बयाँ किया आपने वैराग्य के बारें में.यदि बच्चा गीता,रामायण पढ़े तो बहुत से माँ बापों को डर लगने लगता है,कि बच्चा तो गया हाथों से कहीं साधू सन्यासी ही न बन जाये.खुराफातें करे तो वह सब मान्य है.इसीलिए अक्सर युवाओं में अपने आध्यात्मिक ग्रंथों में कोई रूचि नहीं.वैराग्य का मतलब तो अनावश्यक बातों से मन बुद्धि को हटा केवल आवश्यक बात में ही नियोजित करना है.यदि आप सड़क पर कार चला रहें हैं तो ध्यान कार चलाने पर ही रहना चाहिये,अन्य सभी बातों से वैराग्य करके ,कि दफ्तर में क्या हो रहा होगा या घर में क्या हो रहा होगा आदि आदि.इसी प्रकार जो जो जिस समय कर रहें है केवल उसी पर ध्यान देना,बाकी बातों से मन को हटा लेना,वैराग्य है.जीवन में वैराग्य से मतलब भी यही है कि जो बेकार,फालतू,अनावश्यक बातें है उन सब से मुह मोड लेना ,परन्तु आवश्यक,सार्थक व तत्व की बातों से मुह मोडना वैराग्य नहीं है.यही कृष्ण का गीता में उपदेश है.
ध्यान से देखें, बुद्ध का विराग वस्तुतः विराग नहीं है। वह स्वयं, परिवार और जाति के अनुराग से समस्त जनता के साथ अनुराग में बदल जाता है। एक छोटे दायरे में सिमटना ही शायद अनुराग है और विस्तृत हो कर समष्टि के साथ एकत्व स्थापित कर लेना ही विराग।
कल तो राग की कविता थी और आज वैराग्य की बातें? कहीं कविता ही तो कारण नहीं बन गयी? हा हा हा हाहा।
नव विराग की धारणा अच्छी लगी|धन्यवाद|
कितने रांझे तुझे देखके बैरागी बन गए, बन गए,बैरागी देखके तुझे अनुरागी बन गए, बन गए…अब ये मत पूछना किसे-किसे देख के…जय हिंद…
यह मेरा बड़ा सौभाग्य था कि मुझे अपने बचपन में खूब सत्संग करने का मौका मिला….घर पर भी साधू ठहरते थे,पिताजी बहुत धार्मिक व्यक्ति रहे इसलिए मुझे यह सब विरासत में मिला.'कल्याण' आदि धार्मिक-ग्रन्थ पढकर बड़ा हुआ,'मानस'में गहन अनुरक्ति रही,यह सब हमारे माता-पिता के कारण ही संभव हो सका !आज के आर्थिक युग में करियर के आगे अध्यात्म और धर्म कहीं दूर झाँक रहा है,विकल्प की बात ही नहीं है !
वह जीन ही खत्म हो गई जिससे बुद्ध, महावीर पैदा होते थे, अब राजा, देशमुख जैसी जीनें रह गई हैं..
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर… bilkul sach hai
वैराग्य से अनुराग और अनुराग से वैराग्य पाने की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है, इतिहास भी ऐसी घटनाओं को पूर्ण सम्मान और सम्मानित स्थान देता है। बहुत ही सुन्दर विश्लेषण
बहुत सच सच बयाँ किया आपने वैराग्य के बारें मेंआपकी हर बात से सहमत…..
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर।हमारे एक परिचित हैं उनके दोनो बच्चे 10 वी और 12 वी क्लास में आकर किसी गुरु के सत्संग में जाने लगे और एक दो साल बाद ही पढाई लिखाई सब छोड कर सन्यासी बनकर गुरु की सेवा में उनके साथ चले गये । अब उनकी कोई खबर तो मुझे है नही पर तब उन दंपत्ती का कष्ट देखते ही बनता था ।
वैराग्य तो अब प्राचीन और अर्वाचीन के बीच में पिसता चला जा रहा है
वैराग्य का मतलब ये नही है कि निकल पडो जंगल मे सब कुछ छोड्कर बल्कि वैराग्य का अर्थ है कि जो भी तुम्हारे संबंध हैं या सुख सुविधायें उनमे लिप्त मत हो …………कर्म सब करो क्योंकि ये धरती कर्मभूमि है और कर्म किये बिना इंसान एक पल नही रह सकता मगर मन को भगवान को अर्पण करके चलो फिर तुम्हारा कर्म ही पूजा बन जायेगा और हम करते है उल्टा इसिलिये बेचैन रहते हैं और एक खोज सतत बनी रहती है जिस दिन इस बात को जीवन मे उतार लेंगे उस दिन से कुछ कहने और सुनने की जरूरत नही रहेगी।
नव विराग का अच्छा विश्नेषण किया है आपने…
ratan singh jee ne badi sahi baat kahi…:)
उधौ मन ना भये दस बीस , एक हुतो सो गए श्याम संग अब को अराधे इश . गोपियों को वैरागी बनाने का कृष्ण का उपक्रम भी असफल ही हुआ था .
विरागी वैराग्य पर अच्छा आलेख …
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर,,,,
वैराग्य की भावना सब के मन मे आती है लेकिन सब बुद्ध नही बन पाते . आज लोगो को बैराग्य है मेहनत से ,ईमानदारी से………….
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर। बहुत अच्छा लिखा है …!!अथाह समुद्र है ज्ञान का हमारी संस्कृति में…राग में लिप्त न होना बैराग है |कर्त्तव्य और कर्म से दूर जाना बैराग नहीं है …!!मन की भावनाएं बहुर अच्छे से व्यक्त की हैं |
@सुख सुविधायें होने के बाद भी क्यों अतृप्ति सताती है ?सुख सुविधाओं की अतिशयता ही वैराग्य की जननी है।जिस संतति को हम अनुराग की ओर अग्रसर होते देख निश्चिंत हो जाते हैं, वही संतति युवा होकर जब वृद्ध माता-पिता को दुत्कारती है तब लगता है कि काश, इन्हें आध्यात्मिक संस्कारों से विमुख न किया होता।
गूढ़ चिंतन को बाध्य करती हुई सारगर्भित पोस्ट
विराग और बुद्धत्व की शरण में ले जाती हुयी…
यह अवधारणा अच्छी लगी। एक नई सोच और विचारोत्तेजक।
जब हम मे से कोई भी इस दुनिया को गोतम बुद्ध की नजर से देखे तो शायद हमारे मन मे भी बेरगार के भाव जाग जाये, आज भी जब हम किसी दुखी को देखते हे तो मन कुछ समय के लिये दुखी हो जाता हे…शायद ऎसा ही कोई बडा कारण रहा होगा बुद्ध जी के संग
jivan aur jiv men do hi aakar paye gaye ve sahil ke nam se jane jate hain /unko paribhashit karte hain to kahte hain "sukh aur dukh "kaun kya pata hai?kitana pata hai ? ham sab daud mren hain pane ki . vishleshan aajivan chalta hai . achha vicharniy aalekh . sadhuvad ji praveen sahab .
बहुत सुन्दर और सोचने पर विवश करता लेख्नन .हमारे शहर मे ही गुरुकुल है, लेकिन अभि वैराग पर अनुराग भारि है और हम अपने बच्चो को गुरुकुल की बजाय कोन्वेन्त स्कूल भेजने की ही सोचते है.
बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पे आने से बहुत रोचक है आपका ब्लॉग बस इसी तह लिखते रहिये येही दुआ है मेरी इश्वर से आपके पास तो साया की बहुत कमी होगी पर मैं आप से गुजारिश करता हु की आप मेरे ब्लॉग पे भी पधारे http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
one should be like "mercury",glowing and glittering but remains detached to any thing….
बहुत ही सरगर्भित पोस्ट .. बढिया विश्लेषण !!
A very good write-up…you add new dimensions with excellent ways of penning ur thoughts.
ये नव विराग ही है जो अंतरजाल पर विचरण करते हैं ..अच्छा विश्लेषण ..
हक़ीक़त बयान कर दी आपने …अपने बच्चों को संस्कारी तो बनाना चाहते हैं पर अनुरागी नहीं ,जैसे हम सुरक्षित तो रहना चाहते हैं पर अपने बच्चों को सेना में नहीं भेजना चाहते हैं …..हम औरों के लेखन में भी अपनी ही सोच देखना चाहते हैं ,विपरीत होने पर जाना जताते नहीं हैं …आभार !
नव विराग की धारणा अच्छी लगी…
Jeevan ka saty likha hai …apni dharti hi aisi hai ..
वास्तव में लोग घर में महाभारत नहीं रखते कि कलह हो जायेगा। और प्रस्थानत्रयी (गीता) भी वानप्रस्थाश्रम में आने पर लोग खोलते हैं! 🙂
आपका लेखन मन को मोह लेता है. वैराग्य को क्या खूब परिभाषित किया है.
बहुत सुन्दर, भावपूर्ण व चिंतनपूर्ण लेख प्रवीण जी। साधुवाद। जीवन के वाह्यरूप में निश्चय ही इतने अनुरागमय हो जाते हैं कि अपने अंतर्मन व स्वयं की यात्रा व साक्षात्कार से प्रायः वंचित रह जाते हैं।और बिना वैराग्यधारण के यह स्व-साक्षात्कार संभव भी प्रतीत नहीं होता।
राग, विराग, अनुराग,वैराग, त्याग… बढिया संतुलन बिठाया इन सब में 🙂
सार्थक चिंतन करती पोस्ट तथा अपने आपको बेहतर से बेहतर इंसान बनने की चाह के सोच का दर्पण भी दिखा रही है ये पोस्ट…निश्चय की संस्कार तथा DNA प्रभावित व सृजित सदगुण इतनी आसानी से नहीं जाती और अवगुण भी इतनी आसानी से नहीं छूटती…आजकल आप बहुत ही गहन सोच तथा आत्मउन्नति की ओर अग्रसर करने वाली पोस्ट लिख रहें हैं ये बहुत ही सुखद ऐहसास करा रही है….
सर आज कल दर्पण झूठा लगने लगा है ! सभी निश्चिंत है !
बिलकुल सही कहा आपने। वैसे, सब कुछ मन में ही है। विराग भी, अनुराग भी।
सही बात……गैरों का विराग पूजनीय,अपनों का विराग चिंतनीय.वैसे विराग का तनिक संस्पर्श अलग ही रंग दे देता हैराग को भी.
सत्संगति किम् न करोति पुंसाम। वैराग का भाव जागना आवश्यक है। पुरुषार्थ चतुष्टय का निर्माण इसीलिए किया है मनीषियों ने। ऐषणाओं को त्याग कर परमात्मा की ओर चलने के लिए संतोषप्रद जीवन जीने का मार्ग दिया। है।चिंतनपरक लेख के लिए आभारबहुत दिनों से अनुपस्थिति थी,अब हाजरी लगा लें। 🙂
आपकी बातें सोचने को बाध्य करती हैं मगर वैराग्य के बारे में सोचने का काम अनुराग ने फिलहाल छोड रखा है।
@ ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey ने कहा…वास्तव में लोग घर में महाभारत नहीं रखते कि कलह हो जायेगा। और प्रस्थानत्रयी (गीता) भी वानप्रस्थाश्रम में आने पर लोग खोलते हैं!कौन लोग हैं यह? मैने तो बडे बडे कलह उन्हीं घरों मे होते देखे जिनकी तीन पीढियों ने भी महाभारत छुआ नहीं होगा।
भोग, योग और वियोग का यह चक्र चलता ही रहेगा।
हमारे संस्कार,हमारी संस्कृति सब जीवित हैं,जीवन के सारे दर्शन जीवित हैं,जीवन के सारे भाव जीवित हैं…लेकिन कब?कहाँ?कैसे?किसके लिए?और क्यूँ?जागृत हो जायेंगे कहना मुश्किल है..हम सबके भीतर कृष्ण भी हैं,राधा भी,बुद्ध भी,शिव भी…..आँख होनी चाहिए खुद को पहचानने की,खुद में देखने की….!सुन्दर लेख..!!आभार…!!
त्याग बड़ा आवश्यक है, वैराग्य बड़ा आवश्यक है, सच कहा है आपने इस आलेख में … बेहतरीन प्रस्तुति ।
praveen ji , aapne bahut hi acchi baat likhi hia , man ki duvidha aur dohare maapdand ki baat ko aapne bahut hi acche tarh se apne rochak shabdo me sanwaara hai .. badhayi sweekar kijiye . badhayi मेरी नयी कविता " परायो के घर " पर आप का स्वागत है .http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/04/blog-post_24.html
आजकल तो उठने के बाद चाय न मिले तो सर में दर्द होने लगता है, वैराग्य का विचार भी भाग लेता है यह विवशता देख कर………..बहुत सही कहा है |
आजकल वैराग्य कुछ जल्दी ही छा जाता है…
प्रवीण …बहुत ही सुंदर है आपका व्याख्यान ….पालन पोषण का महत्व तो है ही और संस्कार हमें जुडने का रास्ता बताता है…व्यक्तिगत तौर पर मैं बुद्ध को पलायन वादी मानता हूँ…वैराग्य का मतलब यह कदापि नहीं की आप समस्याओं से भाग खड़े हों…वैराग्य एक ऐसी स्थिति है जहां आप को समस्याएँ उसका समाधान ढूँढने से विचलित नहीं करती…मेरा मानना है की बुद्ध समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ पाये हाँ उन्हे उठाने में और उस पर सोचने मे हमें विवश जरूर किया।जब तक अनुराग नहीं होगा विराग हो ही नहीं सकता….अनूरग की पूर्णता ही वैरागी बनती है…मन चंगा तो कठौती में गंगा…आपके संस्कार उत्तम हैं और सडविचर से परिपूर्ण हैं आप…मैं आपको नमन करता हूँ।
नव विराग की अवधारणा .. विचारोत्तेजक है .
सही है. आज जीवन इन्द्रियजनित सुखों के पीछे भागने का नाम है. जिसमे सुख नहीं, सुख का आभास है. सच तो यह है कि इसमें जीवन ही नहीं है.लेकिन अफ़सोस यही है कि जिन आँखों ने उजाला नहीं देखा वे उजाले का सपना भी नहीं देख पातीं.
"बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं" – सत्य वचन.
नव विराग..कही हमे भी ना हो जाय 🙂
बहुत सुन्दर बात लिखी आपने …बधाई. ________________________'पाखी की दुनिया' में 'पाखी बनी क्लास-मानीटर' !!
सच कहा है आधुनिक परिवेष कुछ ऐसा ही हो गया है
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर…..आप का कथन पूर्णतः सत्य है…हम चाहे कितना भी दुनियां से अनुराग रखें, लेकिन एक ऐसा समय अवश्य आता है जब सब कुछ छोडने को दिल करता है..बहुत सार्थक पोस्ट
gahri soch ,uttam vishleshan .sachchi baat likhi hai aapne ek ek pankti pathniyerachana
आप के विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ आप के सारे ब्लांग पढ़ती हूँ, काफी उत्साह वर्धक हैं। मेरे ब्लांग में भी आप आये तो मुझे खुशी होगी धन्यवाद…
हैलो अंकल ! मैने आप के ब्लांग देखे काफी उत्साह वर्धक हैं। मेरे ब्लांग में भी आप आये और मेरे दोस्त बने तो मुझे खुशी होगी धन्यवाद…
@ Udan Tashtariसब कुछ रहने के बाद भी मन कई बार उचाट हो जाता है, विराग के तत्व आज भी उपस्थित हैं।@ डॉ॰ मोनिका शर्मास्थायी संतुलन की आवश्यकता, असंतुलित अवस्था में अधिक पड़ती है। आधुनिक जीवन में असंतुलन अधिक है। @ Vivek Rastogiअनुरागी कुछ न कुछ खोजने में लगे हैं, विरागी भी शान्ति की खोज में हैं।@ सतीश सक्सेनाजितना भी छाते जायेंगे, विराग के बीज उतना ही अकुलायेंगे।@ Rahul Singhहम सत्य को व्यस्तता में छिपाने का प्रयास करने लगते हैं।
@ सुशील बाकलीवालत्याग का आदर तो है पर अपने घर में नहीं।@ ZEALवही रह रहकर उभरने लगता है।@ Ratan Singh Shekhawatसच कहा आपने, अब यही अवधारणा हर ओर बसी हुयी है।@ Arvind Mishraवानप्रस्थ में दस वर्षों की सेंध तो सरकारी नौकरियों ने लगा रखी है, शेष आधुनिक जीवनशैली समय के पहले ही जगत से विदा करवा देती है।@ अरुण चन्द्र रॉयबहुत धन्यवाद आपका।
@ Rakesh Kumarवर्तमान में अन्य विषयों से ध्यान हटा लेना ही विराग है। सार्थकता में तो सदा ही रहना पड़ेगा हम सबको।@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivediजब जगत के प्रति अनुराग वृहद हो जाता है, व्यक्ति और परिवार से विराग होने लगता है। @ ajit guptaराग विराग में झूलता जीवन।@ Patali-The-Villageबहुत धन्यवाद आपका।@ खुशदीप सहगलविराग जगे या अनुराग, दिशा बदल जाती है।
@ संतोष त्रिवेदीसंस्कार के महत्व में सदा ही विराग के बीज पाये जाते हैं। @ भारतीय नागरिक – Indian Citizenजीन भी बीन के सामने नाच रही हैं।@ रश्मि प्रभा…इसी कारण मन दोनों ओर बहक जाता है, अनियन्त्रित।@ Coralवैराग्य का स्थान सदा ही ऊँचा रहा है, भारतीय संस्कृति में।@ संजय भास्करबहुत धन्यवाद आपका।
@ Mrs. Asha Joglekarविरागियों के प्रति श्रद्धा होने के बाद भी इस विषय में अपने को न जाने देने का हठ विचारणीय विषय है।@ गिरधारी खंकरियालनव विराग उसी विराग का नया रूप है, तत्व वही हैं।@ वन्दनाअपनी आवश्यकतायें समेटते जाना ही वास्तव में विराग है। जीवन प्रारम्भ करते हैं और धीरे धीरे हम वस्तुओं और सम्बन्धों को जोड़ते जाते हैं। जीवन के अन्तिम पड़ाव में पहुँचने के पहले धीरे धीरे अपना बोझ कम करना होगा।@ Dr (Miss) Sharad Singhबहुत धन्यवाद आपका।@ Mukesh Kumar Sinhaहमारे देश में यही दुविधा रह रहकर मुखरित होती रही है।
@ ashishउद्धव का विराग गोपियों के अनुराग के सामने ढीला पड़ गया था।@ महेन्द्र मिश्रबहुत धन्यवाद आपका।@ महेन्द्र मिश्रयही बीज हर ओर बिखरे पड़े हैं।@ dhiru singh {धीरू सिंह}मेहनत और ईमानदारी भी सबसे नहीं हो पाती है। वही कर लें, संस्कार उसी में हैं।@ anupama's sukrity !हम अपनी आवश्यकताओं का आकार बढ़ाते रहते हैं, उनको धीरे धीरे कम करना ही नव विराग समझ लें।
@ mahendra vermaअध्यात्मिक तत्वों से बच्चों को दूर करने की हानि अन्ततः माता पिता को हो ही जाती है।@ Sunil Kumarबहुत धन्यवाद आपका।@ चला बिहारी ब्लॉगर बननेअनुराग और विराग में उलझा देश का जनमानस।@ मनोज कुमारबहुत धन्यवाद आपका।@ राज भाटिय़ाबुद्ध को दुखी करने वाले कारण निश्चय ही हमें भी दुखी करते हैं। उनका विराग तत्व निश्चय ही सान्ध्र होगा।
@ udaya veer singhबहुत धन्यवाद आपका।@ अनामिका की सदायें ……कान्वेन्ट में भेजकर हम निश्चिन्त हो जाते हैं कि कम से कम बच्चा विरागी नहीं होगा।@ Dinesh pareekबहुत धन्यवाद आपका।@ amit srivastavaपारे के गुण विराग तत्व से कितने मिलते हैं।@ संगीता पुरीबहुत धन्यवाद आपका।
@ Gopal Mishraबहुत धन्यवाद आपका।@ संगीता स्वरुप ( गीत )विराग के अनुराग में हम भी घूम रहे हैं यहाँ पर।@ निवेदितासंस्कारी, विरागी और पलायनवादी का अन्तर बच्चों को समझाना ही होगा। त्यागियों का मान तो बना रहेगा।@ कविता रावतबहुत धन्यवाद आपका।@ दिगम्बर नासवाअपनी धरती में यही गुण पाये जाते हैं।
@ ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandeyहमारी समझ को यही देरी प्रभावित करती है, विराग का भय चला जायेगा यदि उसमें निहित सिद्धान्त हम समझ लेंगे.@ रचना दीक्षितवैराग्य को समझने का प्रयास ही अपने आप में स्वयं का तन्त्र समझने में सहायक हो सकता है।@ देवेन्द्रअपने से बतियायेंगे तभी वह तत्व समझ में आयेंगे।@ cmpershadबहुत धन्यवाद आपका।@ honesty project democracyभौतिकता में अधिक लिप्त होना अन्ततः दुख ही देता है, अच्छा है कि विराग के बीज हमारे समाज में पड़े रहें।
@ G.N.SHAWयही विडम्बना है जीवन की।@ विष्णु बैरागीसही समय पर सही भाव उभारना होता है।@ ऋषभ Rishabhaविराग जीवन को विचारशील बना देता है, नहीं तो मात्र क्रियाशीलता तो थका डालती है।@ ललित शर्मासंस्कार रहेंगे तो समय आने पर विराग के भाव भी जाग जायेंगे।@ Smart Indian – स्मार्ट इंडियनलड़ना तो भौतिकता के मूल में है, शास्त्र पढ़ने से समझ बढ़ती ही है।
@ संजय @ मो सम कौन ?चक्रीय परिवर्तन में हम सबको उतराना है।@ ***Punam***जब तक वह दृष्टिकोण नहीं आयेगा, जीवन अधूरा ही रहेगा।@ सदाबहुत धन्यवाद आपका।@ Vijay Kumar Sappattiमन की दुविधा ही हमें अपने स्वरूप में स्थिर नहीं होने देती है।@ नरेश सिह राठौड़सुविधीशील जीवनशैली की यही हानियाँ हैं।
@ shikha varshneyसही कहा आपने, अस्थिरता जितनी अधिक होगी, विराग उतना शीघ्र आयेगा।@ विजय रंजनकभी कभी व्यवस्था को समझने के लिये व्यवस्था के ऊपर उठना पड़ता है, विराग उसी सिद्धान्त का निष्कर्ष है संभवतः।@ अपर्णा मनोजबहुत धन्यवाद आपका।@ संतोष पाण्डेयकुछ अध्यात्मिक तत्व तो हैं हम सबके अन्दर अन्यथा हम आकर्षित नहीं होते विराग के प्रति।@ Abhishek Ojhaयही अस्थिरता के बीज बन जाते हैं।
@ Ashish (Ashu)पता नहीं, पर भारत में सम्भावनायें सर्वाधिक हैं।@ Akshita (Pakhi)बहुत धन्यवाद आपका पाखीजी।@ Navin C. Chaturvediअब अन्तर और भी स्पष्ट दिखता है।@ Kailash C Sharmaजीवन जब सिमटना चाहता है, सब संग्रह व्यर्थ सा लगने लगता है।@ Rachanaबहुत धन्यवाद आपका।
@ maheshwari Kaneriबहुत धन्यवाद आपका, निश्चय ही आपके ब्लॉग से भी कुछ सीखने का प्रयास करूँगा।।@ Kashvi Kaneriबहुत धन्यवाद आपका।