नव विराग

by प्रवीण पाण्डेय

बुद्ध ऐश्वर्य में पले बढ़े पर एक रोगी, वृद्ध और मृत को देखने के पश्चात विरागी हो गये। उनके माता पिता ने बहुत प्रयास किया उन्हें पुनः अनुरागी बना दें पर बौद्ध धर्म को आना था इस धरती पर। अर्जुन रणक्षेत्र में अपने बन्धु बान्धवों को देख विराग राग गाने लगे थे पर कृष्ण ने उन्हें गीता सुनायी, अन्ततः अर्जुन युद्ध करने को तत्पर हो गये, महाभारत भी होना था इस धरती पर। विराग के बीज भारत की आध्यात्मिकता में चारों ओर फैले हैं, गाहे बगाहे होने वाले महापुरुष उसकी चपेट में आते जाते रहते हैं। इन स्थितियों में परिजनों का भी कार्य बढ़ जाता है, अब सफल हों या असफल, पर प्रयास अवश्य होता है परिजनों के द्वारा कि वैराग्य का ज्वर उतर जाये।  वैराग्य से अनुराग और अनुराग से वैराग्य पाने की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है, इतिहास भी ऐसी घटनाओं को पूर्ण सम्मान और सम्मानित स्थान देता है।
उसी दिशा मेरा अनन्त है
किसी साधु सन्त को देख हम सहज ही श्रद्धानवत हो जाते हैं पर पता नहीं क्यों हम त्यागी पुरुषों के वैराग्य से जितना प्रभावित रहते है, अपनों के वैराग्य से उतना ही सशंकित। त्याग बड़ा आवश्यक है, वैराग्य बड़ा आवश्यक है, समाज में सतोगुण का प्राधान्य बना रहता है इससे पर हमारे अपनों को आकर न छुये यह गुण। भारत के विरागी वातावरण से सशंकित माता पिता सदा ही प्रयास में रहते हैं कि उनके बच्चे अनुरागी बने रहेँ। संस्कार तक तो नैतिक शिक्षा ठीक है पर जैसे ही वह शिक्षा अध्यात्म की ओर बढ़ने लगती है, परिजनों के चेहरे पर व्यग्रता दिखने लगती है। यदि बच्चे का स्वाभाविक रुझान भजन आदि की ओर दिखता है तो उसे अन्य प्रलोभनों से भ्रम मे ढकेलने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है।
पुराने समय में जीवन शैली में अच्छे गुण ठूँस ठूँस कर भरे हुये थे, सुबह उठना, माता पिता के पैर छूना, शीघ्र स्नान करना, स्वाध्याय करना, योग व प्राणायाम करना। व्यक्ति मानसिक रूप से सुदृढ़ होता था, वैराग्य जैसे विषय के बारे में सोच सकता था और बहुधा वैराग्य लेने के बाद ही सोचता था। आजकल तो उठने के बाद चाय न मिले तो सर में दर्द होने लगता है, वैराग्य का विचार भी भाग लेता है यह विवशता देख कर।
आधुनिक जीवन शैली ने सशंकित माता पिताओं को संबल दिया है कि उनके बच्चे भले ही एक बार बिगड़ जायें पर वैराग्य की बाते नहीं करेंगे। मन इतने स्थानों पर उलझ गया है कि वहाँ से हटाते हटाते बुढ़ापा धर लेता है और शान्ति से अपनों के ही बीच निर्वाण पाने की विवशता हो जाती है। निश्चिन्त भाव से आप रह सकते हैं, अब बच्चों को अनुरागी बनाने का कार्य मॉल, टीवी और इण्टरनेट कर रहे हैं। इन तीनों ने मिलकर माया में इस तरह से बाँध दिया है कि तन, मन और आत्मा हिलने का भी प्रयास नहीं करते हैं। रही सही जिज्ञासा शिक्षा पद्धति लील गयी है, घिस घिस कर पास हो जाते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की बौद्धिक उछलकूद के बाद प्राप्त नौकरी में पिरने के बाद जो तत्व शेष बचता है वह भविष्य की संचरना में तिरोहित हो जाता है।
अब न बुद्ध के माता पिता जैसा दुख होगा किसी को, न कृष्ण जैसा गूढ़ ज्ञान देना पड़ेगा किसी को। भौतिकता और पाश्चात्य संस्कृति ने अनुरागी समाज निर्माण कर दिया है।
माता पिता तो निश्चिन्त हो गये उनके बच्चे अनुरागी बने रहेंगे पर क्या हमारे अन्दर भी वह स्थायित्व आया है कि हम सदा ही अनुरागी बने रह सकते हैं? क्यों कभी कभी सुविधा भरे जीवन में मन उचटने सा लगता है, क्यों हम और अपने अन्दर धसकने लगते हैं, शान्ति को ढूढ़ते ढूढ़ते? कुछ तो है जो अन्दर हिलोरें लेता है, कुछ तो है जिसका साम्य हमारी आधुनिक जीवन शैली से नहीं बैठता है? सुख सुविधायें होने के बाद भी क्यों अतृप्ति सताती है?
बुद्ध को बुद्ध करने वाले तथ्य आज भी हैं, आवरण चढ़ा लें हम उपसंस्कृतियों के, ओढ़ लें चादरें दिग्भ्रमों की, पर हम निश्चिन्त नहीं सो पायेंगे, बुद्ध और अर्जुन का वैराग्य यहाँ के वातावरण में घुला है, नव विराग बनकर।
का सोचे रे, मनवा मोरे
चित्र साभार – http://paintermommy.com/http://earthhopenetwork.net