डरे डरे से मोरे सैंया

by प्रवीण पाण्डेय

आगत की आशंका
जब मन में छिपा हुआ सत्य अप्रत्याशित रूप से सामने आ जाता है, तब न कुछ बोलते बनता है और न कहीं देखते बनता है। बस अपनी चोरी पर मुस्करा कर माहौल को हल्का कर देते हैं। आप अपने घर पर हैं, चारों ओर परमहंसीय परिवेश निर्मित किये बैठे हैं, संभवतः ब्लॉग पढ़ रहे हैं। आपकी श्रीमतीजी आती हैं और चेहरे पर स्मित सी मुस्कान लिये हुये कुछ कहना प्रारम्भ ही करती हैं कि आप आगत की आशंका में उतराने लगते हैं। आप कहें न कहें पर आपका चेहरा पहले ही आपके मन की बात कह जाता है। अब चेहरा कहाँ तक कृत्रिमता ओढ़े बैठा रहेगा, जो मन में होगा वह व्यक्त ही कर देगा। अब यह देखकर श्रीमतीजी आप पर यह सत्य उजागर कर दें तो आपको कैसा लगेगा?
मैं कुछ भी बोलना प्रारम्भ करती हूँ तो आपके चेहरे पर प्रश्नवाचक भय पहले से आकर बिराज जाता है
सत्य है, झुठलाया नहीं जा सकता है, बहुधा आपके साथ ऐसा ही होता होगा। जानबूझ कर नहीं पर अवचेतन में ऐसा भाव क्यों बैठ गया है, कोई मनोवैज्ञानिक ही बता सकता है। कई बार ऐसा होता है कि बात बहुत छोटी सी निकलती है, साथ में आपके राहत की साँस भी। बड़ी बात भी समझाने से अन्ततः मान जाती हैं श्रीमतीजी। पर इस भय का निवारण अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसा क्या हो जाता है कि आप कुछ भी सुनने के पहले ही भयभीत हो जाते हैंऐसा क्यों लगने लगता है कि श्रीमतीजी की सारी माँगें आपको समस्याग्रस्त करने वाली हैंपरिवार में आशंकाओं के बादल कब आपके मन में झमाझम बरसने लगते हैं, कोई नहीं जानता, मौसम विज्ञान के बड़े बड़े पुरोधा भी नहीं बता सकते हैं।
संवाद पर अनेकों शास्त्र लिखे ऋषियों ने पर पता नहीं क्यों पारिवारिक संवाद को इतना महत्व नहीं दिया गया? संभवतः परिवार में जो एकमार्गी संप्रेषण होता हो वह संवाद की श्रेणी में आता ही न हो। आदेश और संवाद में अन्तर ही इस प्रतीत होती सी भूल का कारण होगा। यह भी हो सकता है कि ज्ञान पाने के लिये अविवाहित रहने की बाधा इस विषय से अधिक न्याय न कर पायी हो। विवाह न करने से जितना ज्ञान जीवन भर प्राप्त होता है उतना तो कुछ ही वर्षों का वैवाहिक जीवन आपको भेंट कर देता है। ज्ञान चक्षु शीघ्र खोलने हों, कुण्डलनी जाग्रत करनी हो तो बिना कुछ सोचे समझे विवाह कर लीजिये और यदि विवाह कर चुके हों तो अपनी धर्मपत्नी की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर दीजिये।
अब इतना ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी हम श्रीमतीजी के वाकअस्त्रों के सामने असंयत दिखायी पड़ते हैं। भय इसी बात का ही रहता है कि छोटी छोटी सी लगने वाली बातें न जाने कितनी मँहगी पड़ जायेंगी। बच्चों को भी लगने लगा है कि पिता पुरुरवा के स्तर से उतर कर हर वर्ष प्रभावहीन होते जा रहे हैं और माता उर्वशी के सारे अधिकार समेट अपनी कान्ति की आभा का विस्तार करने में व्यस्त हैं। कोई दिनकर पुनः आये और नयी उर्वशी का रूप गढ़े, पारिवारिक संदर्भों में।
एक बड़ा ही स्वस्थ हास्य धारावाहिक हम सब बैठकर देखते हैं, तारक मेहता का उल्टा चश्मा। लगता है उस धारावाहिक के दो पात्र हमारे घर में पहले से रह रहे हैं। मैं दयनीय जेठालाल और श्रीमतीजी निर्भीक दया भाभी बनती जा रही हैं।
हमारे तो विवाह का जो अध्याय 14 फरवरी से चला था, अब 8 मार्च पर आकर ही ठहर गया।
मेरी कहानी है, मैं स्वयं झेलूँगा पर यदि आप अपनी श्रीमतीजी को इस विषय पर कुछ गाने के लिये कहेंगे तो संभवतः आपको भी यही स्वर सुनने को मिलेगा।

मोरे सैंया मोहे बहुतै सुहात हैं,
जो परस देओ बस वही खात हैं,
न जाने काहे छोटी छोटी बात मा,
पहले से घबराय जात हैं।
डरे डरे से मोरे सैंया,
पहले तो सब सुन लेते, अब ध्यान कहाँ है तोरे सैंया।
(धुन पीपली लाइवमँहगाई डायन)

चित्र साभार – http://www.pushprint.co.za/