टाटों पर पैबन्द लगे हैं
by प्रवीण पाण्डेय
जीवन हो गया है, कुछ ऐसा ही |
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
सुख की राह एक होती तो, वही दिशा हम सबकी होती,
सूत्र एक होता यदि सुख का, मन की माला वही पिरोती,
अति सुख में दुख उपजे नित ही, दुखधारा, मन पाथर सा,
अतिशय दुख, स्तब्ध दिख रहा, असुँअन मोती त्यक्त बहा,
क्या पाये, क्या तज दे जीवन, हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
हमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,
पापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,
मूर्त सहजता घुट घुट मरती, जीवन के विष-नियम तले,
लांछन अन्यायों का सहता, ईश्वर पा अस्तित्व जले,
पूर्ण विश्व अपनी रचना है, उसने बस प्रारम्भ रचे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
ईश्वर से मानव जीवन पा, हमें लगा सब कुछ ले आये,
मुक्त उड़ानें, अनबँध विचरण, हमने अपने गगन बनाये,
नहीं पता था, दसों दिशायें, अनुशासन के तीर चलेंगे,
प्रत्यक्षों से बिखरे दाने, मर्यादा के जाल बिछेंगे,
चारों ओर दिख रही कारा, हर पग में अनुबन्ध लगे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
नहीं पूर्ण आमन्त्रित करती, संयम की कल्पित परिभाषा,
हितकर्मों में बीच मार्ग ही, जग जाती संचित प्रत्याशा,
नेति नेति कर्मों में रचकर जीवन को खो बैठे हम,
नित, समाजकृत महाभँवर में, टूट गये कितने ही क्रम,
स्वप्न सदा ही अलसाये हैं, नहीं कभी स्वच्छन्द जगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
मध्यमार्ग श्रेयस्कर होता, पर हम भी तो बुद्ध नहीं,
आर पार की कर लेने दो, पर जीना अब रुद्ध नहीं,
इस जीवन को ध्वंस कर रहे, परलोकों की सोच रहे,
आशाओं के पंखों पर कीलें हम लाकर ठोंक रहे,
स्वयं देख दर्पण अब हँस लो, रोम रोम में व्यंग पगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
जीवन-नद, कब से तट बैठे, छूकर जल अनुभव करते,
गहराई की समझ समेटे, अपने से डर कर रहते,
डुबा सके तो, भँवर डुबा ले, पर कूदेंगे जीवन में,
लहरों से विचलित क्यों होना, लाख थपेड़े हों उनमें,
जीवन को जीने का आश्रय, जीवित को रस रंग सजे हैं,
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
चित्र साभार – http://threads.srithreads.com
एक सम्पूर्ण कविता। जीवन की समग्र झाँकी। बहुत ही उम्दा। हमें लग रहा है कि आपसे इसे माँग लिया जाए और "बवाल" भाई के साहित्य गान में शामिल कर दिया जावे ताकि यह जन जन के हृदयों तक पहुँच सके। बहुत बहुत आभार इस रचना के लिए।
यथार्थ को चित्रित करती शानदार रचना bhagatpura3
"क्या पाये, क्या तज दे जीवन, हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं। "गुड मार्निंग !मानवीय गुण दोषों का बेहतरीन विश्लेषण है इस सरल प्रवाह कविता में ! आनंद आ गया प्रवीण भाई ! आपके कवि ह्रदय को प्रणाम !
वाह, लगा कि अंत में कवि का नाम मिलेगा जिसकी यह रचना है.''रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।'' बढि़या टेक.
हमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,पापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,//प्रवीण भाई …..इतनी सुंदर रचना हाल के दिनों में नहीं पढ़ी गई न लिखी गई
एक समग्र सम्पूरण कविता -एक एक शब्द पुनः पुनरपि पढ़ डाला ….अनबंध विचरण को अनबंध संचरण करके पढने पर ज्यादा सहजता लगी …टाट पर रेशम का पैबंद हो तो वह भी कितना सुन्दर लगता है -सियनि सुहावन टाट पटोरे ….
जीवन के यथार्थ का जीवंत चित्रण करती सशक्त कविता …….
"टाटों पर पैबन्द लगे हैं"सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता…सुंदर अभिव्यक्ति…..प्रस्तुति के लिए आभार जी
डुबा सके तो, भँवर डुबा ले, पर कूदेंगे जीवन में,लहरों से विचलित क्यों होना, लाख थपेड़े हों उनमें,दिनकर की याद दिला दी आपकी लेखनी के जादू ने। • इस ऊबड़-खाबड़ गद्य कविता समय में आपने अपनी भाषा का माधुर्य और गीतात्मकता को बचाए रखा है। • आपकी आवाज़ संघर्ष की जमीन से फूटती आवाज़ है। सपनों को देखने वाली आंखों की चमक और तपिश भी बनी हुई है। क्रूर और आततायी समय में आपके सच्चे मन की आवाज़ है यह कविता। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!फ़ुरसत में … आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के साथ (दूसरा भाग)
इस जीवन को ध्वंस कर रहे, परलोकों की सोच रहे,आशाओं के पंखों पर कीलें हम लाकर ठोंक रहे,स्वयं देख दर्पण अब हँस लो, रोम रोम में व्यंग पगे हैंरेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।बहुत खूब, यही तो है आज की सच्चाई !
बहुत ही गहरे भाव हैं रचना में …. आभार
बहुत ही भावपूर्ण कविता……बिल्कुल सच्चाई बयां करती हुई.
जीवन के यथार्थ का जीवंत चित्रण करती सशक्त कविता| हार्दिक शुभकामनाएं|
बहुत ही गहन भाव लिये हुये सुन्दर अभिव्यक्ति ।
जीवन के सच का उद्घाटन और 'न पलायनम्' का संदेश कविता की जान है !
जिजीविषा ,संकल्प और उहापोहो से प्रेरित श्रेष्ठ रचना , उत्कृष्ट शब्द संयोजन और भाव मन को छू गए .
बहुत श्रेष्ठ गीत बन पड़ा है। बधाई।
यथार्थ का चित्रण करती एक खूबसूरत रचना।
प्रवीण भाई आपके ब्लॉग का नाम बहुत ही प्रभावित करता है – "न दैन्यं न पलायनम" न किसी को कुछ देना बाकी है, न किसी से डर के भागने की ज़रूरत है| बहुत ही अच्छा शीर्षक चुना है आपने अपने ब्लॉग के लिए|टाटों के पैबन्द………… वाकई अत्यधिक प्रभावशाली प्रस्तुति है बन्धुवर| बधाई स्वीकार करें|
बहुत सुन्दर , सादगी से भरपूर , एक अत्यंत उम्दा रचना! शुभकामनायें.
जब मैं नव ग्रन्थ विलोक्ता हूँ , लगता मित्र पुराना ! यही महसूस होता रहा इस कविता में.
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।sach kaha Satish sir ne!! manivya gun-avguno pe kitni pyari rachna hai ye….sach me achchha laga, aapko follow kar ke..:)
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।बहुत भाव पूर्ण सटीक प्रस्तुति..जीवन के यथार्थ को बड़ी गहराई से चित्रित किया है..
अच्छा व्यंग्य।———डा0 अरविंद मिश्र: एक व्यक्ति, एक आंदोलन।सांपों को दुध पिलाना पुण्य का काम है?
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।waah , kya baat hai !
बहुत सुंदर रचना जी, धन्यवाद
सुंदर विचार श्रंखला को इस तरह पद्यबद्ध करना आसान नहीं। बधाई!
ह्म्म्म्म्म….आपकी बारी है अब ….रिकार्ड किजिये इसे…
बहुत आनन्द आया पढ़कर.
बहुत ही सशक्त रचना लिखी है आपने!
आदरणीय प्रवीण पाण्डेय जी सादर प्रणाम जीवन सन्दर्भों को उद्घाटित करती हुई …..एक उत्तम रचना …शुक्रिया आपका
वाकई आपने इस कविता को काफी समय दिया है।
टाटों पर पैबंद लगे हैं, एकदम जबरदस्त।
टाटों पर पैबन्द लगे हैंअरे पाण्डेय जी, यही तो माडर्न ड्रेस है 🙂
टाट और पैबंद से झाँकता जीवन का फलसफा!!
मध्यमार्ग श्रेयस्कर होता, पर हम भी तो बुद्ध नहीं,आर पार की कर लेने दो, पर जीना अब रुद्ध नहीं,वाह, प्रवीण जी, अति उत्तम।पंक्ति-पंक्ति में जीवन दर्शन साकार हो रहा है।आपकी काव्य प्रतिभा को नमन।
क्या बात है क्या बात है क्या बात है …भाव ,शब्द ,प्रवाह…सबकुछ बहुत सुन्दर. है ..सम्पूर्ण कविता ..कई बार पढ़ा.
पंक्ति-पंक्ति में जीवन दर्शनअक्षर-अक्षर जीवन दर्शनअति सुख में भी जीवन दर्शन अतिशय दुख में जीवन दर्शनलहरों से विचलित क्यों होनालाख थपेड़े हों जीवन मेपूर्ण विश्व अपनी रचना हैक्या पाये, क्या तज दे जीवन
…सुन्दर, अतिसुन्दर…डूब कर बार बार पढ़ने योग्य…आभार!…
kavita men bhi yah praveenta aakhir kahan se paye bhai.bhavo ka madhury sath me chintan ki gahrai.
रेशम की तुम बात कर रहे , तटों पर पैबंद लगे हैं …बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग व्यंग्य ,तंज़ को भी मधुर बना रहा है !
बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति ।हिन्दी को ऐसे ही सृजन की उम्मीद ।धन्यवाद
… umdaa … laajawaab !!
सुन्दर सार्थक रचनाआभार।
कहावतें यूँ ही नहीं बनतीं। 'छन्द' शिकार हो रहा था – अनदेखी का, उपेक्षा का। 'बारह बरस में तो घूरे के भी दिन फिरते हैं' वाली कहावत याद हो आई यह कविता पढकर। लग रहा है – छन्द की वापसी हो रही है। यह कविता उसी की आहट है।'यह मेरी लिखी कविता है' यह बताने के लिए अपना नाम लिखना जरूरी नहीं होता – यह भी नमूना पेश कर रही है यह कविता।
"पूर्ण विश्व अपनी रचना है,उसने तो प्रारंभ रचे हैं'….पंक्तियाँ संपूर्ण रचना का सार कह देती हैं !अद्भुत शब्द-संयोजन……अवाक हूँ !
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।जीवन के यथार्थ को सुन्दर शब्दों मे उतारा है। बहुत भावमय और सुन्दर रचना है। बधाई।
प्रवीण जीमुग्ध हूँ आपकी इस सुन्दर रचना पर |मानव मन की सारी परतो को बेहद खूबसूरती के साथ एक ही माला में पिरोया है और यह रंग बिरंगी माला बहुत ही ह्रदय के पास महसूस हुई |दो बार पढने के बाद भी मन अभी भरा नहीं है शायद और कोई मोती मिल जाय?
praveen ji bahut kushalta ke saath aapne manav-man ke jivan ki sampurn jivan ka vishleshhan kar diya hai .bahut bahut badhi ek bahutbdhiya aur sateek post ke liye.dhanyvaad poonam
क्या कहूं प्रवीन जी … आज तो आपकी रचना ने निशब्द कर दिया ….केवल एक शब्द … लाजवाब !!
क्या बात है!!!!!! आज तो माहौल बदल गया है अच्छा लगा ये बदलाव. बहुत जबरदस्त विश्लेषण किया है.मज़ा आ गया…..
jamane ko kuredati kavita.very good sir .आप-बीती-०५ .रमता योगी-बहता पानी
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।सुख की राह एक होती तो, वही दिशा हम सबकी होती,सूत्र एक होता यदि सुख का, मन की माला वही पिरोती,अति सुख में दुख उपजे नित ही, दुखधारा, मन पाथर सा,अतिशय दुख, स्तब्ध दिख रहा, असुँअन मोती त्यक्त बहा,क्या पाये, क्या तज दे जीवन, हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।बेहतरीन रचना है…
सुंदर प्रस्तुती.अच्छा लगा पढना.
जीवन के द्वंदों सजीव चित्रण बहुत ही आकर्षक तरीके से किया है .बहुत ही सुंदर रचना है.आप कविता के ओस्कर के हक़दार हैं .शुभ कामनाएं.
आज जिन परिस्थितियों में इंसान है उस पर सम्पूर्ण दृष्टि डाली है ..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..
इसका ऑडियो भी होता तो…
आज तो कवितामयी व्यंग, मजा आ गया आप के व्यक्तित्व का ये पहलू देख कर्। आभार
विचारों के धाराप्रवाह के साथ चलती मंचीय रचना. अच्छी टेक. बधाई.
सत्य को जानना, कौतुहल रखना और उपाय करना..जिजीविषा है.ठीक ही नाम है आपके ब्लॉग का, यह धारणा और बलवती हुई.एक जबरदस्त रचना के लिए आभार
यथार्थ को चित्रित करती शानदार रचना के लिए बधाई ।
@ लाल और बवाल (जुगलबन्दी)आपके साहित्यिक गान के लिये सहर्ष ही प्रस्तुत है यह कविता। टाटों के पैबन्द किससे छिपाना, जीवन का यथार्थ ही यही हो गया है। @ Ratan Singh Shekhawatबहुत धन्यवाद आपका।@ सतीश सक्सेनाजब दृष्टि में जीवन के यह रूप दिखायी पड़ते हैं और वह भी पूर्ण नग्नता लिये, कविता सहज ही बह जाती है। आप जैसे कवि हृदय को अच्छी लगी, उससे सन्तोष और पुष्ट हो गया।@ Rahul Singhजब अपना नाम छापने का आत्मविश्वास आ जायेगा तब टाटों में पैबन्द न लगे हों संभवतः।@ babanpandeyहमें वही अच्छा लगता है जिसमें पाप छिपे होते हैं, आदर्शों की राह तो बहुत कठिन है। अपने दुख के सामने सदा ही किसी दूसरे का चेहरा सामने आ जाता है, संभवतः यही वास्तविक जीवन हो गया है हम सबका।
@ Arvind Mishraआपकी सलाह सर माथे, पर वहाँ पर भी विचारों का अनबँध विचरण हो गया। अब तो पैबन्द ही लगाने में समय जा रहा है, जहाँ कहीं भी जीवन उधड़ने लगता है।@ डॉ॰ मोनिका शर्माबहुत धन्यवाद आपका, पर बहुधा यथार्थ यही हो जाता है, आस रेशम की होती है, पर पैबन्द छिपाना कठिन हो जाता है।।@ संजय भास्करबहुत धन्यवाद आपका।@ मनोज कुमारएक स्वीकरोक्ति है जीवन को सरलता से जी लेने की। आपको उसमें दिनकर की चरण रज दिख जाये तो मेरी दिशा ठीक है और भाग्य अभिभूत। बिना गेयता के भावों को गद्यगीत रहने दिया जाये, कविता न माना जाये। हृदयोद्गारित आभार।@ पी.सी.गोदियाल "परचेत"औरों पर तो नित ही हँसते हैं, कभी कभी दर्पण देखकर स्वयं पर हँसने का मन करता है। अपनी आशायें औरों पर थोप कर आलस्य के गर्त में समाते जा रहे हमारे व्यक्तित्व, स्वयं पर हँसने के लिये न उकसायें तो क्या करें?
@ महेन्द्र मिश्रबहुत धन्यवाद आपका।@ उपेन्द्र ' उपेन 'बहुत धन्यवाद आपका।@ Patali-The-Villageबहुत धन्यवाद आपका।@ sadaबहुत धन्यवाद आपका, जीवन को सरलता से व्यक्त करने का प्रयास भर है।@ प्रतिभा सक्सेनाग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला।
@ ashishउहापोहों से विचार, विचार से निर्णयों की श्रंखला, संकल्प से एक राह, यही जीवन का सार है।@ ajit guptaबहुत धन्यवाद आपका।@ वन्दनायथार्थ को स्वीकार कर लेती हुयी रचना कहें।@ Navin C. Chaturvediब्लॉग का शीर्षक अर्जुन की गर्जना थी। क्यों पलायन करें? टाटों में पैबन्द स्वीकार कर लेने से उन्हें छिपाने में ऊर्जा व्यय नहीं करनी पड़ती है।@ MANOJ KUMARबहुत धन्यवाद आपका।
@ गिरधारी खंकरियालमन में वही भाव बार बार घूमते रहते हैं, हर बार नये शब्द मिल जाते हैं।@ Mukesh Kumar Sinhaमन का यथार्थ रखना कुछ तो मानवीय हो ही जायेगा। जीवन का सत्य न चाह कर भी बह जाता ही है। @ Kailash C Sharmaजीवन का स्वप्न रेशम से प्रारम्भ होता है, पैबन्दों पर समाप्त होता है। आशाओं का अम्बार फिर भी है।@ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’बहुत धन्यवाद आपका।@ रश्मि प्रभा…बहुत धन्यवाद आपका।
@ राज भाटिय़ाबहुत धन्यवाद आपका।@ दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivediमन की व्यग्रता प्रवाह स्वतः बना देती है।@ Archanaसुर आपको भेजने हैं, गाने का प्रयास कर लूँगा।@ भारतीय नागरिक – Indian Citizenअहोभाग्य हमारे।@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"आपकी काव्य प्रतिभा से कुछ सीखने का प्रयास ही कर सकते हैं।
@ : केवल राम :जीवन के संदर्भ तो कुछ और ही नियत थे, यथार्थ यह हैं। @ Rajey Shaअनुभवजन्य किसी भी रचना में समय देना स्वाभाविक ही है।@ मो सम कौन ?सच है, बड़ी मज़बूती से लगे हैं, पैबंद।@ cmpershadऔर हम सब पहने भी हैं।@ सम्वेदना के स्वररेशम के ख्वाब और पैबन्दी टाट, इन दोनों के बीच झूलता जीवन।
@ mahendra vermaअतियों से बचने का हठ भी अति बन गया है अब, इसे भी मध्यमार्ग में लेकर आना है। @ shikha varshneyवास्तविकता को शब्द रूप देकर सजा देने से कितने ही बोझे कम हो जाते हैं, हृदय में।@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशनन उसे तज पाये, न उसे पूरा पा पाये, लटके रहे त्रिशंकु समान।@ प्रवीण शाहबहुत धन्यवाद, हम अभी डूबकर बाहर आये हैं, आप मत डूबिये।@ santoshpandeyमन की उत्कट अभिलाषायें, संदोहित विचार श्रंखलायें, धारा बन बस यूँ ही बह निकलती हैं।
@ वाणी गीतबहुत धन्यवाद आपका, इस उत्साहवर्धन के लिये।@ RAJEEV KUMAR KULSHRESTHAबहुत धन्यवाद आपके उत्साहवर्धन का।@ 'उदय'बहुत धन्यवाद आपका।@ ZEALजीवन की सार्थकता पर भी।@ विष्णु बैरागीजो सुनने और पढ़ने में अच्छा लगे, उसकी वापसी होगी। गेयता और मधुरता से भी जीवन के चोटिल यथार्थ का वर्णन किया जा सकता है।
@ बैसवारीजीवन में अन्य पर और ईश्वर पर दोषारोपण करने से परे अपना भी उत्तरदायित्व समझें, हम अपने जीवन में। जो हम हैं, अपने ही कारण हैं।@ निर्मला कपिलापैबन्दी यथार्थ भी व्यक्त कर देना श्रेयस्कर है, उसकी पीड़ा उठा कर फिरते रहने से।@ शोभना चौरेयह भाव सबके मन में मौलिकता से रहते हैं और प्रथम आहट में उभरकर सामने आ जाते हैं, जाने पहचाने भी लगते हैं तब।@ JHAROKHAबहुत धन्यवाद आपका, कविता में सारे पहलुओं का संयोजन नहीं कर पाया हूँ, चाहकर भी, कई पक्ष छूट गये हैं। @ क्षितिजा ….बहुत धन्यवाद आपका।
@ रचना दीक्षितकविता बह जाती है, ठोस गद्य कब तक चलेगा बिना तरलता के।@ G.N.SHAWबहुत धन्यवाद, यही भाव मौलिक व गूढ़ हैं, हम सबमें।@ फ़िरदौस ख़ानबहुत धन्यवाद इस संवेदन का।@ Meenu Khareबहुत धन्यवाद आपका।@ sagebobद्वन्दों से परे जीवन का सत्य है संभवतः, अतः द्वन्द तो समझने ही होंगे।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )अपने अन्दर झाँक लेने से सबके बारे में ही कुछ न कुछ दिख जाता है। मानव हैं हम सब, समान मनोभाव भी हैं।@ Abhishek Ojhaअभी यात्रा में हूँ, ऑडियो का प्रयास तो करूँगा ही।@ anitakumarहम सबका व्यक्तित्व कुछ रंगमयी है, कुछ व्यंगमयी। आत्ममुग्धता के परे बहुत कुछ दिखने भी लगता है।@ Bhushan बहुत धन्यवाद, विचार यदि भरमाने लगें तो उन्हें सम्हालना कठिन हो जाता है।@ Avinash Chandraजीवन में घुसकर कुछ समझने और बाटने का प्रयास भर है यह।
@ Mithilesh dubeyबहुत धन्यवाद आपका।
ईश्वर से मानव जीवन पा, हमें लगा सब कुछ ले आये,मुक्त उड़ानें, अनबँध विचरण, हमने अपने गगन बनाये,नहीं पता था, दसों दिशायें, अनुशासन के तीर चलेंगे,प्रत्यक्षों से बिखरे दाने, मर्यादा के जाल बिछेंगे,चारों ओर दिख रही कारा, हर पग में अनुबन्ध लगे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं..पता नही क्यों पर ये पंक्तियाँ याद आ गयीं …. तुम तो हो इस पार सखी … उस पर न जाने क्या होगा ….बहुत ही मधुर .. लय … छन्द बध लाजवाब रचना …
ati sundar….
हमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,पापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,मूर्त सहजता घुट घुट मरती, जीवन के विष-नियम तले,लांछन अन्यायों का सहता, ईश्वर पा अस्तित्व जले,पूर्ण विश्व अपनी रचना है, उसने बस प्रारम्भ रचे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।बहुत सहजता से बहुत गहरी बातें लिखीं हैं.बहुत बार पढ़ी -बहुत अच्छी लगी-शुभकामनायें –
टाटों के ही ठाठ होते हैं।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना आज मंगलवार 18 -01 -2011को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ …शुक्रिया ..http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/402.html
आद.प्रवीण जी,पहली बार आपकी कविता पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है!शब्द,शैली और भाव का समन्वय अभूतपूर्व है !हर पंक्ति में विचारों की एक आँधी समाहित है !साभार,-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
@ दिगम्बर नासवाबहुत धन्यवाद, जब उड़ानों को हताश करती हो समाज संरचना तब यही स्वर निकलते हैं।@ Ankur jain बहुत धन्यवाद आपका।@ anupama's sukrity ! हम सबको दोष देते रहते हैं जीवन पर्यन्त पर जो कुछ भी वर्तमान है, वह है हमारे भूतकाल के कारण।@ राजेश उत्साहीउसी ठाठ से तो जी रहे हैं।@ संगीता स्वरुप ( गीत )बहुत धन्यवाद इस शम्मान के लिये।
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञबहुत धन्यवाद इस उत्साहवर्धन का। स्वर जैसे भी हैं, जीवन के हैं।
yatharthparak……pranam.
बेहतरीन अभिव्यक्ति!
रचना के अद्वितीय प्रवाहमयता, शब्द शौष्ठव और चिंतन ने ऐसे मन हर लिया है कि उदगार व्यक्त करने में यह अभी सर्वथा अक्षम है…क्या कहूँ, शब्द कहाँ से लाऊं प्रशंसा को ????ईश्वर आपकी लेखनी को ऐसे ही समृद्धि दें ,प्रखरता दें ..रस आह्लाद से भर गया मन ……शुभाशीष !!!! ऐसे ही लिखते रहें…
'रेशम की तुम बात कर रहे टाटों के पैबंद लगे हैं 'बहुत ही प्रभावपूर्ण प्रस्तुति !
वाह… प्रवीण जी इस रचना को जीवन कहूँ या उसका विश्लेषण… बहुत खूब…
"क्या पाये, क्या तज दे जीवन,हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।रेशम की तुम बात कर रहे,टाटों पर पैबन्द लगे हैं।वाह! वाह! वाह!इससे अधिक शब्द नहीं हैं मेरे पास!
@ sanjay jhaबहुत धन्यवाद आपका।@ nilesh mathurबहुत धन्यवाद आपका।@ रंजना औरों का जीवन समझ पाना और उस पर लिखना कठिन है। स्वयं का अनुभव यदि समानता लाता है औरों से तो वह अपना सा प्रतीत होता है।यथार्थ बताने में हिचक अवश्य होती है किन्तु बताने के बाद मन हल्का भी हो जाता है।@ सुरेन्द्र सिंह " झंझट " रेशम में टाटों के पैबन्द तो सुने थे पर जब टाटों में ही पैबन्द लगें हों तो क्या कहियेगा?
@ POOJA…न यह पूर्ण जीवन है और न विश्लेषण, बस जीवन की अनुभव कथा है। @ 'साहिल'बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
bahut hi umda rachna hai sir … kaafi baar padh chuki hoon aur har baar utkrishtataa ka anumaan sahaj hee badh jata hai… badhaai.