टाटों पर पैबन्द लगे हैं

by प्रवीण पाण्डेय

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जीवन हो गया है, कुछ ऐसा ही
सुख की चाह, राह जीवन की, रुद्ध कंठ है, छंद बँधे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
सुख की राह एक होती तो, वही दिशा हम सबकी होती,
सूत्र एक होता यदि सुख का, मन की माला वही पिरोती,
अति सुख में दुख उपजे नित ही, दुखधारा, मन पाथर सा,
अतिशय दुख, स्तब्ध दिख रहा, असुँअन मोती त्यक्त बहा,
क्या पाये, क्या तज दे जीवन, हर चौखट पर द्वन्द सजे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
हमने सबको दोष दिये हैं, गुण का बोझ उठाये फिरते,
पापों का आनन्द समेटे, आदर्शों के तम में घिरते,
मूर्त सहजता घुट घुट मरती, जीवन के विष-नियम तले,
लांछन अन्यायों का सहता, ईश्वर पा अस्तित्व जले,
पूर्ण विश्व अपनी रचना है, उसने बस प्रारम्भ रचे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
ईश्वर से मानव जीवन पा, हमें लगा सब कुछ ले आये,
मुक्त उड़ानें, अनबँध विचरण, हमने अपने गगन बनाये,
नहीं पता था, दसों दिशायें, अनुशासन के तीर चलेंगे,
प्रत्यक्षों से बिखरे दाने, मर्यादा के जाल बिछेंगे,
चारों ओर दिख रही कारा, हर पग में अनुबन्ध लगे हैं।
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
नहीं पूर्ण आमन्त्रित करती, संयम की कल्पित परिभाषा,
हितकर्मों में बीच मार्ग ही, जग जाती संचित प्रत्याशा,
नेति नेति कर्मों में रचकर जीवन को खो बैठे हम,
नित, समाजकृत महाभँवर में, टूट गये कितने ही क्रम,
स्वप्न सदा ही अलसाये हैं, नहीं कभी स्वच्छन्द जगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
मध्यमार्ग श्रेयस्कर होता, पर हम भी तो बुद्ध नहीं,
आर पार की कर लेने दो, पर जीना अब रुद्ध नहीं,
इस जीवन को ध्वंस कर रहे, परलोकों की सोच रहे,
आशाओं के पंखों पर कीलें हम लाकर ठोंक रहे,
स्वयं देख दर्पण अब हँस लो, रोम रोम में व्यंग पगे हैं
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।
जीवन-नद, कब से तट बैठे, छूकर जल अनुभव करते,
गहराई की समझ समेटे, अपने से डर कर रहते,
डुबा सके तो, भँवर डुबा ले, पर कूदेंगे जीवन में,
लहरों से विचलित क्यों होना, लाख थपेड़े हों उनमें,
जीवन को जीने का आश्रय, जीवित को रस रंग सजे हैं,
रेशम की तुम बात कर रहे, टाटों पर पैबन्द लगे हैं।

चित्र साभार –  http://threads.srithreads.com