प्रश्न और उत्तर

by प्रवीण पाण्डेय

question-markशैक्षणिक जीवन के बहुत से ऐसे प्रश्नपत्र याद हैं जिनके कुछ प्रश्नों के आंशिक उत्तर अन्य प्रश्नों में ही छिपे रहते थे। पहले लगता था कि संभवतः परीक्षक को याद न रहा हो कि उत्तर अन्य प्रश्नों में ही छिपा है। गर्वोन्नत रहे अपने विवेक और बुद्धि-कौशल पर, अंकजनित चतुराई पर। जीवन में जब इस चतुराई से परे जाकर तथ्य समझे तब समझ में आ गया कि परीक्षकों ने जानबूझ कर वह उत्तर अन्य प्रश्नों में छिपाये थे। ठीक ठीक कारण तो ज्ञात नहीं पर उनकी सदाशयता रही होगी, अपने विद्यार्थियों के प्रति। उन्हें तो था मात्र, प्रश्न पूछने का अधिकार, प्रश्न ही थे उनके लिये माध्यम, प्रश्न ही थे उनके भावों का संप्रेषण, प्रश्न ही थे जो उत्तर धारण कर सकते थे। कुशल परीक्षकों की आशाओं को आधार मिलता रहा, प्रश्नों में ही कुछ अन्य उत्तरों को छिपा देने की कला उन विद्यार्थियों को लाभ पहुँचाती रही जिनके आँख कान खुले रहे, जिन्होने प्रश्न ठीक से पढ़े, उत्तर लिख देने की हड़बड़ी से परे।

ज्ञान का स्वरूप सदा ही परीक्षाओं में तिरोहित होता रहा। जीवन भी परीक्षाओं से भरा रहता है, कोई नियत पाठ्यक्रम नहीं, किस दिशा से आयेगी ज्ञात नहीं, अग्नि परीक्षा, अस्तित्व झुलसाती, तिक्त निर्णयों की बेला, श्रंखलायें सतत प्रश्नपूरित परीक्षाओं की। परीक्षाओं का उद्देश्य हमें परखने के लिये, हमें नीचा दिखाने के लिये, हमें सिखाने के लिये या मानसिक व्यग्रता व उत्तेजना उभारने के लिये। यह मानसिक हलचल मेरी ही नहीं है, औरों के मन को भी मथ रही है, यह विचार प्रक्रिया।

प्रश्नों की श्रंखलाओं के परे हमें उत्तरों के समतल की प्रतीक्षा रहती है। विडम्बना यही है कि यह श्रंखलायें कभी समाप्त नहीं होती है। प्रश्नों को निपटा देने की हड़बड़ी में और प्रश्न मुँह बाये खड़े हो जाते हैं। समुद्र की लहरों की भाँति सतत, आने वाली लहरों से बतियाती ढलती लहरें, प्रश्न अनुत्तरित हैं अभी। अगली लहर और ऊँची, विशाल, कोलाहलमय, गतिमान और अस्पष्ट, एक के बाद एक, अनवरत।

ईश्वर भी एक कुशल परीक्षक है, छोटे प्रश्नों में बड़े उत्तर छिपा कर आत्मजनों को अभिभूत करता रहता है। यहाँ भी बस एक ही आवश्यकता है, आँख, कान खुले रखने की। प्रश्नों में ही जीवन के उत्तर देख लेने की कला विचारकों को मार्ग दिखाती रही है, सदियों से। हमें भी यह तथ्य तब समझ में आ पाता है जब हम अंकजनित, धनजनित और मानजनित चतुराई से ऊपर उठकर विचार करना प्रारम्भ कर देते हैं। इसे ईश्वर की दया न कहें तो और क्या कहें?

प्रश्न अखरते हैं, डराते हैं, विचलित कर जाते हैं, चाहे बच्चों के हों या सच्चों के। उनका प्रतीक चिन्ह भी डरावना, फन फैलाये सर्प की तरह।

मैं अपने प्रश्नों को सहेज कर रखता हूँ, हर नये प्रश्न में पुराने प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने का प्रयास करता हूँ या पुराने प्रश्नों में नये प्रश्न का उत्तर। प्रश्नों से अब कोई बैर नहीं, सहज संगी हैं ये भी, जीवन पथ के।

जीवन में बढ़ जाता है, भार प्रश्नों का, आधार उत्तरों का। ज्ञानकोष में दोनों ही गोते लगाते दीखते हैं, अपनी पहचान खो, विलय हो जाते हैं विचारों में, निर्द्वन्द, प्रश्न और उत्तर।


चित्र साभार –  http://www.gomonews.com/