प्रश्न और उत्तर
by प्रवीण पाण्डेय
शैक्षणिक जीवन के बहुत से ऐसे प्रश्नपत्र याद हैं जिनके कुछ प्रश्नों के आंशिक उत्तर अन्य प्रश्नों में ही छिपे रहते थे। पहले लगता था कि संभवतः परीक्षक को याद न रहा हो कि उत्तर अन्य प्रश्नों में ही छिपा है। गर्वोन्नत रहे अपने विवेक और बुद्धि-कौशल पर, अंकजनित चतुराई पर। जीवन में जब इस चतुराई से परे जाकर तथ्य समझे तब समझ में आ गया कि परीक्षकों ने जानबूझ कर वह उत्तर अन्य प्रश्नों में छिपाये थे। ठीक ठीक कारण तो ज्ञात नहीं पर उनकी सदाशयता रही होगी, अपने विद्यार्थियों के प्रति। उन्हें तो था मात्र, प्रश्न पूछने का अधिकार, प्रश्न ही थे उनके लिये माध्यम, प्रश्न ही थे उनके भावों का संप्रेषण, प्रश्न ही थे जो उत्तर धारण कर सकते थे। कुशल परीक्षकों की आशाओं को आधार मिलता रहा, प्रश्नों में ही कुछ अन्य उत्तरों को छिपा देने की कला उन विद्यार्थियों को लाभ पहुँचाती रही जिनके आँख कान खुले रहे, जिन्होने प्रश्न ठीक से पढ़े, उत्तर लिख देने की हड़बड़ी से परे।
ज्ञान का स्वरूप सदा ही परीक्षाओं में तिरोहित होता रहा। जीवन भी परीक्षाओं से भरा रहता है, कोई नियत पाठ्यक्रम नहीं, किस दिशा से आयेगी ज्ञात नहीं, अग्नि परीक्षा, अस्तित्व झुलसाती, तिक्त निर्णयों की बेला, श्रंखलायें सतत प्रश्नपूरित परीक्षाओं की। परीक्षाओं का उद्देश्य हमें परखने के लिये, हमें नीचा दिखाने के लिये, हमें सिखाने के लिये या मानसिक व्यग्रता व उत्तेजना उभारने के लिये। यह मानसिक हलचल मेरी ही नहीं है, औरों के मन को भी मथ रही है, यह विचार प्रक्रिया।
प्रश्नों की श्रंखलाओं के परे हमें उत्तरों के समतल की प्रतीक्षा रहती है। विडम्बना यही है कि यह श्रंखलायें कभी समाप्त नहीं होती है। प्रश्नों को निपटा देने की हड़बड़ी में और प्रश्न मुँह बाये खड़े हो जाते हैं। समुद्र की लहरों की भाँति सतत, आने वाली लहरों से बतियाती ढलती लहरें, प्रश्न अनुत्तरित हैं अभी। अगली लहर और ऊँची, विशाल, कोलाहलमय, गतिमान और अस्पष्ट, एक के बाद एक, अनवरत।
ईश्वर भी एक कुशल परीक्षक है, छोटे प्रश्नों में बड़े उत्तर छिपा कर आत्मजनों को अभिभूत करता रहता है। यहाँ भी बस एक ही आवश्यकता है, आँख, कान खुले रखने की। प्रश्नों में ही जीवन के उत्तर देख लेने की कला विचारकों को मार्ग दिखाती रही है, सदियों से। हमें भी यह तथ्य तब समझ में आ पाता है जब हम अंकजनित, धनजनित और मानजनित चतुराई से ऊपर उठकर विचार करना प्रारम्भ कर देते हैं। इसे ईश्वर की दया न कहें तो और क्या कहें?
प्रश्न अखरते हैं, डराते हैं, विचलित कर जाते हैं, चाहे बच्चों के हों या सच्चों के। उनका प्रतीक चिन्ह भी डरावना, फन फैलाये सर्प की तरह।
मैं अपने प्रश्नों को सहेज कर रखता हूँ, हर नये प्रश्न में पुराने प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने का प्रयास करता हूँ या पुराने प्रश्नों में नये प्रश्न का उत्तर। प्रश्नों से अब कोई बैर नहीं, सहज संगी हैं ये भी, जीवन पथ के।
जीवन में बढ़ जाता है, भार प्रश्नों का, आधार उत्तरों का। ज्ञानकोष में दोनों ही गोते लगाते दीखते हैं, अपनी पहचान खो, विलय हो जाते हैं विचारों में, निर्द्वन्द, प्रश्न और उत्तर।
चित्र साभार – http://www.gomonews.com/
एक प्रश्न चिन्ह ही सारा जीवन…हाँ अक्सर उत्तर छिपे होने का अहसास भी होता है, मगर हम अपने आप में मगन वो समझने की बजाये प्रश्न सुलझाने में उलझे उलझे उलझते ही चले जाते हैं.बड़ा गहन दार्शनिक चिन्तन चल रहा है ऐन दिवाली के दिन, प्रभु!!
प्रवीण जी,किसी भी चीज में से सार निकालना आप बखूबी जानते हैं। खेल की बात हो या प्रश्नपत्र की, जीवन के साथ साम्यता निकाल लेते हैं आप। बहुत बार आपको पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि सच तो कहा है आपने, हम ऐसा क्यों नहीं समझ पाये?घटनाओं को देख्नने का।एक अनूठा ही अंदाज है आपका, आभार स्वीकार करें।
प्रश्नों में ही जीवन के उत्तर देख लेने की कला विचारकों को मार्ग दिखाती रही है,बहुत गहन चिंतन किया है अपने इस विषय पर विलक्षण प्रतिभा के धनी है आप
आपकी बाते अत्यन्त गूढ होती जा रही हॆ सर जी इस पोस्ट को 14 के बाद पढूगा क्योकि 14 को मेरा interview है सो वही बिजी हू..दीपावली का त्यौहार आप, सभी मित्र जनो को परिवार को एवम् मित्रो को सुख,खुशी,सफलता एवम स्वस्थता का योग प्रदान करे – इसी शुभकामनओ के साथ हार्दिक बधाई। – आशू एवम परिवार (¨`·.·´¨) Always`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !`·.¸.·´ — Ashish (Ashu)
'प्रश्नों से अब कोई बैर नहीं, सहज संगी हैं ये भी, जीवन पथ के।'प्रश्नों से बैर रखने से प्रश्न पीछा तो नहीं छोड़ने वाले. संगी बना लेना ही श्रेयस्कर है. और यह उन्हीं प्रश्नों में से उत्तर ढूढ लेने में मददगार हैं. हाँ, कुछ प्रश्न उत्तर से परे ही होते हैं. वे महज प्रश्न होते हैं – शायद प्रश्नों का स्वतंत्र अस्तित्व भी होता है उत्तर के बगैर.
बहुत ही सार्थक और विचारणीय प्रस्तुती…….वास्तव में जीवन एक प्रश्न चिन्ह है और जिसका उत्तर ढूँढने में पूरा जीवन बीत जाता है …पहले समवेदनशीलता के चलते लोग एक दुसरे की मदद भी करते थे उत्तर ढूँढने में लेकिन अब तो संवेदना के अभाव में हर कोई दूसरों से आगे निकलने की चाह में असल उत्तर को कभी ढूढ़ ही नहीं पाता है और जीवन को निरर्थक बना जाता है …..
जीवन खुद एक प्रश्न है जिसका उत्तर इसी में छिपा है …किसी को जल्दी समझ आता है …किसी को देर- सबेर …. दार्शनिक प्रश्नोत्तरी पोस्ट ..दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ..!
जिन्दगी ही एक प्रश्न है, जिसका उत्तर किसी के पास नहीं..
ओशो रजनीश ने ज्ञान प्राप्ति की पहली सीढ़ी को प्रश्न का उठना माना है … प्रश्न इतनी शिद्दत से उठे कि प्रश्न ही अपना अस्तित्व बन जाय… इसी मंथन से अमृत और गरल दोनों अलग और स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं…इस लिए प्रश्नों में उतरना जरूरी है … अपना सम्पूर्ण ले कर उतरना ज़रूरी है … जैसे कोई बिना पानी में उतरे तैरना नहीं सीख सकता वैसे ही बिना प्रश्नों में गहरे उतरे उत्तर की आशा नहीं करनी चाहिए यथापूर्व … गूढ़ चिंतन युक्त सार्थक पोस्ट बधाई
थोड़ा सा भी सोंचे तो पायेंगे कि मानव किसी न किसी रूप मे अपना मूल्यांकन करता आया है और उस मूल्यांकन के आधार पर अपनी जीवन दशा को निर्देशित करता आया है | …………जाहिर है ऐसे मूल्यांकन के लिए प्रश्नों का महत्व अति महत्वपूर्ण है |
प्रश्न सिर्फ जिज्ञासा जनित नहीं होते, कभी निर्धारित उत्तर तक पहुचाने के लिए (यक्ष-प्रश्न) गढ़े जाते हैं, लेकिन प्रश्न-रहित कर देने का 'जेन' अभ्यास मानों चमत्कार ही होता है. कुछ होते हैं 'उधेड़बुन के गोरखधंधे' के लिए, जैसे पहले कौन- फल या बीज, मुर्गी या अंडा. एक शब्द में कहूं तो 'लाजवाब'.
गम्भीर चिन्तन। पूरे जीवन मे एक ही प्रश्न नही सुलझता कि आखिर ये जीवन क्या है? बहुत अच्छी पोस्ट। धन्यवाद।
अगर प्रश्न ना होते तो क्या होता ……….
अगर प्रश्न न हों तो उत्तर कहां से आएंगे। और उत्तर परिपूर्ण हो तो प्रश्न कहां से आएंगे। इसलिए यह क्रम तो चलता ही रहना चाहिए।
वास्तव में जीवन एक प्रश्न चिन्ह हैगूढ़ चिंतन युक्त सार्थक पोस्ट बधाईदिपोत्सव की शुभकामनाएँईश्वर से कामना है कि यह दीपोत्सव आपके जीवन में सभी मनोकामनाएं पूर्ण करे।
ईश्वर भी एक कुशल परीक्षक है, छोटे प्रश्नों में बड़े उत्तर छिपा कर आत्मजनों को अभिभूत करता रहता है।जीवन का गहन चिंतन – मनन कर सार प्रस्तुत कर दिया है …प्रश्नों को सहेज कर आगे के प्रश्नों में उत्तर की खोज …. एक नया दृष्टिकोण दे रही है …विचारणीय लेखन ..
जीवन में प्रशन और उत्तरों की लुकाछिपी तो चलती ही रहेगी.
बिना प्रश्नो के यह जिन्दगी भी सुनी हे, यह प्रशन हमे हर कदम पर रास्ता दिखाते हे, ओर जिदगी की हर कठिनाई से उभारते हे, हर प्रश्न का जबाब भी तो उसी मे छुपा हे, जो इसे हल कर लेता हे वो ही सुखी हे, बाकी तो उलझे रहते हे…..धन्यवाद
सार्थक आलेख्।
जीवन में प्रश्न है तभी उत्तर हैं। यह सत्य है कि शिक्षा ग्रहण के समय केवल परीक्षा पर ही घ्यान केन्द्रित होता है असली ज्ञान तो शिक्षा पूर्ण होने पर ही लिया जाता है।
आपने मुझे आज बहुत ही सुन्दर उद्धरण दिया है – 'ज्ञान का स्वरूप सदा ही परीक्षाओं में तिरोहित होता रहा।'धन्यवाद। इसका उपयोग कर मैं शेखी बघारूँगा।
मुझे एक वाकया याद आता है जब मैं अंग्रेजी में एम्. ए. कर रहा था. उस समय मेरे विभागाध्यक्ष हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार श्री रमेशचंद्र शाह थे. उन्हें उनके एक जूनियर लेक्चरर ने बताया कि वह ऐसा पेपर सैट करते हैं कि छात्रों को नानी याद आ जाती है. इसपर शाह सर ने उन युवक शिक्षक को जो फटकार लगाई थी उसका सार यही था कि अच्छा शिक्षक इस प्रकार के क्रूर और अनीतिपूर्ण काम नहीं करता.वैसे यदि आप देखें तो शिक्षक को यह स्वतंत्रता है कि वह कठोर प्रश्नपत्र बनाकर छात्रों की खाट खड़ी कर दे, इसमें कुछ अनीतिपूर्ण नहीं है, लेकिन उस दिन शाह सर ने जो कुछ कहा था उसे शब्दों में बाँध पाने में आज स्वयं को असमर्थ पाता हूँ.
इतनी सही और अच्छी बातें आपके दिमाग में आती कहाँ से है? 🙂
एक सवाल मैं करूँ एक सवाल तुम करो, हर सवाल का जवाब भी सवाल हो…प्रश्न और उत्तर एक ही श्रृंखला की दो कड़ियाँ हैं। बहुत गहरा सोचते हैं आप। अद्भुत।
प्रश्न हैं, जो सुषुप्त रहते हैं। अपने समय पर उभरते हैं। अच्छे प्रश्न वे हैं जो उत्तर की मांग नहीं करते। वे मनन की मांग करते हैं, आपके चरित्र को नये आयाम देने को। ये वाले थोड़ा देर से उभरते हैं! 🙂
उत्तर प्रश्न में छुपे होने की बात से एक किस्सा याद आ रहा है।विषय से कुछ हटकर है पर शायद आप को यह बात रोचक लगे।दफ़्तर में हम मिलकर किसी spreadsheet पर काम कर रहे थे।Tender का काम था। कंप्यूटर पर सारे आँकडे थे।कंप्यूटर कार्यालय में सार्वजनिक स्थान पर रखा था और सभी कर्मचारी इस एक कंप्यूटर पर ही काम करते थे, बारी बारी से। उन दिनों हर विभाग का एक कंप्यूटर था, हर कर्मचारी का नहीं। फ़ाईल को एक पासवर्ड के साथ हम save करते थे।एक दिन मेरा सहकर्मी दफ़्तर नहीं आ सका। उस फ़ाइल का latest पासवर्ड वही जानता था। हमने उसे फ़ोन करके पूछा "पासवर्ड क्या है"। लग रहा था वह बहुत व्यस्त था और जल्दी में था। ऊत्तर मिला The password is secret और उसने फ़ोन रख दिया।हम तो भौखला गए! यह क्या बदतमीजी है? मुझसे भी छुपा रहा है! हम ने फ़िर फ़ोन करने की कोशिश की यह बताने के लिए कि हम इस फ़ाइल पर आगे काम करना चाहते हैं, deadline आज शाम को है, और उसकी वापसी का इन्तजार नहीं कर सकते और उसे पासवर्ड चाहे कितना ही गोपनीय क्यों न हो, बताना ही होगा नहीं तो बॉस तक बात पहुंच जाएगी पर कुछ देर लाइन की खराबी के कारण और बाद में उसका घर से बाहर होने के कारण सारा दिन हम उनसे संपर्क नहीं कर सके।(मोबाईल फ़ोन का जमाना नहीं था)उस दिन हम काम खत्म नहीं कर सके। अगले दिन जब वह दफ़्तर आया बॉस ने उसकी खूब खबर ली। उसने कहा "पर हमने तो विश्वनाथ को पासवर्ड बता दिया था"!अब मेरी बारी आई बॉस से lecture सुनने की।क्या आप समझ गए? पासवर्ड था "secret" और हमें बताए जाने पर भी हम जान नहीं सके।
बहुत से प्रश्न खड़े हो गए इस लेख को पढ़कर । !
क्या कहूँ आपके इस लेख के बारे में, सच में ईश्वर ने प्रकृति के प्रत्येक कण -कण अपना अक्स समाहित किया है ,हमारे लिए वोह ही प्रशन का रूप धारण कर लेता है , ईश्वर इस बात को जानता है कि इंसान अपनी बुधि के बल पर कितना सोच पाता है उसके प्रश्नों के बारे में , जीवन अगर एक सचाई है तो मृत्यु सबसे बड़ा प्रश्न है और यह हमारे जीवन में ही समाहित है , शुभकामनायें
हमें भी अक्सर ऐसा लगता है…प्रश्न और उनके उत्तर..जीवन में प्रश्न आते रहते हैं..उनके उत्तर भी यहीं हैं..
तिस पर भी चिट्टी-चपाती जवाबी पुस्तक के नीचे रखने की आदत तो गई नहीं 🙂
गहन चिंतन।
ईश्वर भी एक कुशल परीक्षक है, छोटे प्रश्नों में बड़े उत्तर छिपा कर आत्मजनों को अभिभूत करता रहता है।….बिलकुल ठीक कहा आपने प्रवीन जी ….हम कितना समय बर्बाद करते हैं और उलझे रहता है प्रशनों में … और कभी कभी तो जीवन कट जाता है और कई सवालों के जवाब मिलते ही नहीं … बहुत अच्छी पोस्ट … शुभकामनाएं
बहुत सुन्दर चिंतन! छोटी-छोटी दिखने वाली बड़ी बातों की और ध्यान दिला सकने का आपका कौशल अनोखा है. एक तरफ ऐसे प्रबुद्ध हैं जो प्रश्न में से भी उत्तर में से भी प्रश्न ढूंढ लेते हैं और दूसरी और वे जिन्हें उत्तर में से भी प्रश्न जकड लेते हैं.
सच में जीवन का पहले से नियत कोई पाठ्यक्रम नहीं होता और अग्नि परीक्षाएं भी कब किधर से आएँगी कोई नहीं जनता….यही तो जीवन की पहेली है। दिवाली की मंगलकामनाएं
दर-असल यह सारा जीवन ही प्रश्नों से भरा है,इसीलिए प्रश्न तो अनेक मिल जायेंगे पर ज़रूरी नहीं कि उनके उत्तर भी मिल जाएँ!जो प्रश्नों को सहजता से लेता है,वही इस जीवन के कुछ उत्तर पा सकता है !
@ Udan Tashtariचिन्तन तो दीवाली के पहले का था। दीवाली में तो आसमान में उड़कर जाते और जाकर फूट जाते हुये पटाखों को देख रहा था। फूटना ही था तो, उड़े ही क्यों? लीजिये एक और नया प्रश्न।@ मो सम कौन ? देखिये न, आपके प्रश्न में ही हमको उत्तर मिल गया। जब प्रश्न और उत्तरों का अस्तित्व इतना अन्तर्पाशित है, तो आपके प्रश्न हमारे उत्तर हो जाते हैं और हमारे प्रश्न आपके उत्तर। यह क्रम बना रहे।@ Sunil Kumar कुछ जीवन प्रश्नवत लगते हैं और कुछ उत्तरसम। प्रश्नों से उत्तरों तक की यात्रा ही हमें सरलता के शिखर तक पहुँचा देती है।@ Ashish (Ashu) आपके साक्षात्कार के उत्तर आपको सफलता दिलायें, हार्दिक शुभकामनायें।@ M VERMAकुछ प्रश्न हठी बन खड़े हैं, अकेले हैं, त्यक्त हैं। जब तक वे स्वयं ही अपने पट नहीं खोलेंगे, अव्यक्त रहेंगे।
@ honesty project democracy कभी कभी हमें अपने प्रश्नों का उत्तर दूसरे का जीवन देख कर मिल जाता है। जूतों के लिये दुखी व्यक्ति किसी लंगड़े को देखकर अपना उत्तर पा जाता है।@ वाणी गीतउत्तर आते हैं पर हमें उन्हें पहचानना पड़ता है अतः जीवन में किसी प्रश्न से भागना नहीं चाहिये। प्रश्न उत्तर लिये पीछे पीछे भागते रहते हैं।@ भारतीय नागरिक – Indian Citizenजीवन एक प्रश्न है और स्वयं ही उत्तर भी।@ पद्म सिंह सच कहा आपने, प्रश्न में अन्दर तक उतरे बिना उत्तर नहीं मिलते हैं।@ प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI प्रश्नचिन्ह का आकार फन फैलाये सर्प का भी हो सकता है और सहारा देती हुयी छड़ी का भी। सोच लें कि कैसे प्रयोग करना है।
@ Rahul Singh उनसे जूझें, प्रश्न राह दिखाते हैं। यदि भागना चाहें तो फन फैलाये सर्प की तरह पीछा करते हैं। @ निर्मला कपिलाप्रश्न अपना उत्तर ही नहीं दे सकता है, दूसरों का जीवन आपके जीवन के बारे उत्तर दे सकता है।@ dhiru singh {धीरू सिंह} तब भी एक प्रश्न बना रहता कि उत्तर क्या है? एक दिशा संभवतः।@ राजेश उत्साही सच ही है, कोई एक जीत गया तो कुछ सीखने क्रम टूट जायेगा।@ संजय भास्करइन्ही उत्तरों की खोज जीवन का क्रम बनाये रखती है।
@ संगीता स्वरुप ( गीत )कुछ प्रश्न अपना स्वरूप वर्षों बाद खोलते हैं अतः सहेज कर रखना ओर उनका आन्तरिक सम्बन्ध बनाये रखना आवश्यक है। @ P.N. Subramanianइसी लुकीछिपी में ही तो जीवन का आनन्द है।@ राज भाटिय़ासच कहा आपने, उन्ही प्रश्नों का ऋणी हूँ मैं, बिना जिनके जीवन नीरस हो गया होता।@ ajit guptaप्रश्नों का उत्तर ढूढ़ने में निकल गया। क्या पता था कि जीवन जी लेना ही उन प्रश्नों का उत्तर हो जाता।@ विष्णु बैरागीयदि परीक्षाये न होती तो हो सकता था ज्ञान की गुणवत्ता और अधिक होती, व्यर्थ पुछल्लों के बिना।
@ निशांत मिश्र – Nishant Mishraयदि परीक्षक यह सिद्ध करने पर तुल जाये कि विद्यार्थी को क्या नहीं आता है तो क्रूरता के लिये हिंसक पशुओं का उदाहरण क्यों दिया जाये। @ abhiचलिये, इस प्रश्न का उत्तर किसी और प्रश्न में ढूढ़ा जाये।@ सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठीप्रश्न का उत्तर न मिल पाना यदि जीवन का प्रवाह रोक देने का बहाना मान लिया जाये तो सारा बंटाधार हो जायेगा। प्रश्न आये हैं तो उत्तर भी आयेंगे।@ ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandeyप्रश्न मनन करने को प्रेरित करते हैं, और प्रश्न उठते हैं, बवंडर बन उमड़ते हैं। निष्कर्ष न पाकर, धूल बन पुनः जम जाते हैं। पुनः उमड़ते है, जब उनसे सम्बन्धित विषय आते हैं।@ G Vishwanath ईश्वर भी ऐसे ही उत्तर छिपा कर रखता है, सरलतम विधिपूर्वक। जीवन को तो हम ही उलझाये रहते है, व्यर्थ ही।
@ ZEAL अधिक प्रश्न होने से उत्तर मिलने की प्रायिकता भी बढ़ जाती है।@ केवल रामआपने बड़ी दार्शनिक बात कही है। मृत्यु हमारे जीवन का उत्तर है औऱ मृत्यु का उत्तर है यह जीवन। दोनों ही प्रश्न हैं और दोनों ही उत्तर।@ Manoj Kअवलोकन प्रश्न लेकर आता है और उत्तर लेकर भी। पता नहीं उस समय हम किस रूप में लेते हैं उसे।@ cmpershadप्रश्न और उत्तर का भ्रम मिटा, दोनों को ही ज्ञान का आकार मान लें हम।@ मनोज कुमारबहुत धन्यवाद आपका।
@ वन्दनाबहुत धन्यवाद आपका।@ क्षितिजा ….प्रश्नों में उलझ जाने का नाम तो जीवन नहीं हो सकता है। प्रश्नों को सहेज कर रख लेने की कला सीखनी होगी हम सबको, उत्तर अनवरत आते रहेंगे, नये प्रश्नों के रूप में।@ Smart Indian – स्मार्ट इंडियनयही अन्तर तो निर्णायकों से नायकों को अलग करता है।@ डॉ॰ मोनिका शर्मा यदि निश्चित पाठ्यक्रम नहीं तो जितना भी सीखा जाये, सानन्द सीखा जाये।@ संतोष त्रिवेदी ♣ SANTOSH TRIVEDI फन फैलाये सर्पों के सम्मुख जो सहज रहता है, शान्ति वहीं निवास करती है।
जिसने सभी प्रशनो के उत्तर खोज लिये वो ही सबसे बड़ा ज्ञानी है |
प्रश्नों के बौछार और उत्तर दिये जाने के बाद मै पहुच पाया. सुन्दर चिंतन .
"ईश्वर भी एक कुशल परीक्षक है, छोटे प्रश्नों में बड़े उत्तर छिपा कर आत्मजनों को अभिभूत करता रहता है।"sutra vakya si saarthak pankti!vicharsheel aalekh!!!enlightening!!!!
एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करोहर सवाल का सवाल ही जवाब हो…
इन्ही के इर्द गिर्द तो जीवन का समस्त कार्य व्यापार केन्द्रित है. जीवन में दोनों के अंतर्संबंधों को दर्शाता एक विचारोत्तेजक आलेख. आभार. सादर,डोरोथी.
@ नरेश सिह राठौड़ उत्तर जब कठिन हो जाते हैं, हम प्रश्नों के संग जीना प्ररम्भ कर देते हैं। @ ashishप्रश्नों की बौछारे तो हर जीवन में आती हैं, अप्रत्याशित।@ अनुपमा पाठकईश्वर से नाराज़गी तभी रहती है जब हम उत्तर निर्धारित कर उससे उसका प्रश्न पूछने लगते हैं।@ अशोक बजाज प्रश्नोत्तर में कटता जीवन हमारा।@ Dorothyजीवन की गूढ़तम पर्तों में प्रश्न और उत्तर का द्वन्द नहीं है, सब एक ही अस्तित्व धरे हैं वहाँ पर।
praveen ji is umra me aapki itani gahari darshnikta purt baaten,waqai aapke lekhan ko aaj is pawan parv ki badhai dete huye salaam karti hun.shubh-kamnaao sahit—- poonam
ज्ञान का स्वरूप सदा ही परीक्षाओं में तिरोहित होता रहा। जीवन भी परीक्षाओं से भरा रहता है, कोई नियत पाठ्यक्रम नहीं, किस दिशा से आयेगी ज्ञात नहीं, अग्नि परीक्षा, अस्तित्व झुलसाती, तिक्त निर्णयों की बेला, श्रंखलायें सतत प्रश्नपूरित परीक्षाओं की। परीक्षाओं का उद्देश्य हमें परखने के लिये, हमें नीचा दिखाने के लिये, हमें सिखाने के लिये या मानसिक व्यग्रता व उत्तेजना उभारने के लियेbilkul yatharth-purn vichaar poonam ।
बडे ही जटिल और गूढ प्रश्न छिपा रखें हैं जीवन ने अपने में। और बडा ही जटिल, गूढ और दार्शनिक प्रश्न छिपा है आपके मन में भी। क्या मन को, जीवन को और जीवन पथ को, समझ पाना इतना सहज है?
"प्रश्न अखरते हैं, डराते हैं, विचलित कर जाते हैं, चाहे बच्चों के हों या सच्चों के। उनका प्रतीक चिन्ह भी डरावना, फन फैलाये सर्प की तरह"प्रश्न पर एक बेहतरीन पोस्ट लिख डाली और शुरू से अंत तक रुचिकर ….कमाल है प्रवीण भाई !हार्दिक शुभकामनायें !
दार्शनिकता का पुट सम्पुट लिए यह आलेख तो कुछ उस अपठित सरीखा लग रहा है जिसे परीक्षाओं में हम बिना तैयारी के ही हल करने में अपने ज्ञान और विज्ञान की सारी समझ ही झोंक देते थे और हर आँख कान ठीक वाला यही समझता था की अपठित गद्यांश को उससे बेहतर न तो किसी ने समझा है और न ही हल किया है ….आज इस लेख से उसी अपठित की स्मृति ताजा हो आयी ! 🙂
सच कहा .. इश्वर … प्रकृति … ये तो सबसे बड़े परीक्षक हैं … कदम कदम पर ऐसे प्रश्न जीवन में आते रहते हैं जिनका उत्तर उन्ही में छिपा होता है … बहुत अच्छी पोस्ट है …. गहन दार्शनिक चिन्तन ….
बहुत सारे प्रश्न खड़े कर दिए .प्रकृति प्रश्न खड़े ही न करे तो जीवन के उत्तर ही नहीं मिलेंगे..गहन चिंतन.विचारणीय आलेख.
प्रवीण जी आपकी दार्शनिकता, प्रश्न व प्रशन पत्रों में उलझ गयी हूँ. इस प्रश्नपत्रों वाले विभाग से सालों जुड़ी रही हूँ सो इतना जानती हूँ की प्रशन पत्र तो एक ही होता है पर प्रश्न उसमे अति साधारण, साधारण और बुद्धिमान हर तरह के विद्यार्थी के लिए होता है निर्धारित हमें करना होता है की हम किस श्रेणी में आते हैं पर प्रभु के प्रश्न पत्र में प्रश्न भी उसके और निर्धारित भी वही करता है की हम किस श्रेणी में आते हैं
प्रवीण जी , सही कहा कितने इशारे हैं हर प्रश्न में और ये प्रश्नों की ही माया है जिस पर कोई खरा तो कोई बिखरा !
ye sochta hoon main , ki kya sochta hoon main..wo baat kya hai aksar jo sochta hoon main… jiska javab chahiye wo kya sawal hai?
@ JHAROKHAजीवन में अब तक परीक्षायें देते रहने से उन पर कुछ कह पाने का साहस जुटा लिया है।@ विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशनजीवन के प्रश्न बहुत कठिन है, समझ में नहीं आता है कहाँ से उत्तर देना प्रारम्भ करें।@ सतीश सक्सेनाप्रश्न बड़े गूढ़ अर्थ लेकर आते हैं जीवन में और बहुत कुछ देकर जाते हैं जब हल हो जाते हैं। प्रश्नों का यही स्वरूप आकर्षित करता है।@ Arvind Mishraआँख कान खुला रख कर तो जीवन में यही लगता है कि जग बिना हमारी जानकारी के नहीं चल रहा है।@ दिगम्बर नासवा प्रश्नों में उत्तर छिपा कर देने की समुन्नत कला केवल ईश्वर को ही आती है।
@ shikha varshneyयदि प्रकृति प्रश्न न खड़े करे तो हम कुछ सीख ही नहीं सकते हैं, छोटे मोटे कष्टों को भी परीक्षा की भाँति लेना चाहिये।@ रचना दीक्षितजो प्रश्न में जितना अधिक उतरता है, ज्ञान उसको उतना ही मिलता है। परीक्षा के अतिरिक्त भी प्रश्नों की श्रंखला है जीवन में।@ राम त्यागी सुन्दर दृष्टान्त, खरा या बिखरा।@ Anand Rathoreबड़ा स्वाभाविक प्रश्न पूछ दिया है आपने।
कैसे हैं आप? अभी तो आपकी छूटी हुई सारी पोस्टें पढनी हैं…. इत्मीनान से पढ़ता हूँ…. डिस्चार्ज हो कर…
Prashn aur uttar yahee hai jeewan. Ek prashn ka uttar dhoondo to doosara hajir. har koee apani satah par apne prasno ka uttar dhoond hee leta hai. par sabse bada prashn ki hamara yahan aane ka prayojan kdya hai anuttarit hee rah jata hai. aapke lekh ne dekhiye kitanee uthal uthal macha dee.
@ महफूज़ अलीहम तो आपकी चिन्ता में वजन खो रहे थे, आप और मजबूत हो उभरे हैं। भगवान आप पर रक्षा-कवच चढ़ाये रखे।@ Mrs. Asha Joglekarआपने जो मूल प्रश्न उठाया है, वह इतना गहरा है कि एक बार उसमें उतरने के बाद बाहर आना कठिन हो जाता है। बहुत कुछ सोचने को विवश करते हैं प्रश्न।
"ईश्वर भी एक कुशल परीक्षक है, छोटे प्रश्नों में बड़े उत्तर छिपा कर आत्मजनों को अभिभूत करता रहता है। यहाँ भी बस एक ही आवश्यकता है, आँख, कान खुले रखने की। प्रश्नों में ही जीवन के उत्तर देख लेने की कला विचारकों को मार्ग दिखाती रही है, सदियों से। हमें भी यह तथ्य तब समझ में आ पाता है जब हम अंकजनित, धनजनित और मानजनित चतुराई से ऊपर उठकर विचार करना प्रारम्भ कर देते हैं। इसे ईश्वर की दया न कहें तो और क्या कहें?"ये एहसास हमें भी होता है. प्रश्नों के उत्तर खोजने में निकले रहते हैं. दोस्तों को लगता है कि खोपड़ी का कोई पेंच ढीला रह गया है.. 😛
@ Manishआँख कान खुला रखने वालों को सदैव ही समाज शंका की दृष्टि से देखता रहा है, आपका दोष नहीं है। आप अपने उत्तर ढूढ़ लीजिये, लोग तब आपके पास जा पहुँचेंगे, अपने अपने ढूढ़ने के लिये।