वक्तव्यों के देवता

by प्रवीण पाण्डेय

शब्दों को जीकर दिखला देने से आपकी वाणी, पता नहीं, कितना कुछ बोलने से बच जाती है। चित्र शब्दों से कई गुना दिखा देते हैं, चरित्र शब्दों से कई गुना सिखा देते हैं। इतिहास साक्षी है कि महापुरुषों को यह तथ्य भलीभाँति ज्ञात था और यही कारण रहा होगा कि पूरे इतिहास में किसी भी प्रेस कांफ्रेंस के बारे में कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है। आज तो अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये आपको शब्दों का आधार लेना पड़ेगा, हो भी क्यों न, चित्र व चरित्र देखने का समय कहाँ है किसी के पास? श्रेष्ठता के मानक वक्तव्यों में ही छिपे हैं और उन मानकों को सर्व प्रचारित करते फिर रहे हैं, वक्तव्यों के देवता।

अहं त्वाम् सर्व पापेभ्यो..

कोई समस्या हो, कोई विजय ध्वनि हो, कोई निन्दा प्रकरण हो या कोई तथ्य बाँटना हो, वक्तव्य देकर कार्य की इतिश्री हो जाती है। उस क्षेत्र से सम्बद्ध ख्यातिप्राप्त या सत्तासीन व्यक्ति का वक्तव्य उस विषय पर अन्तिम प्रमाण स्वीकार कर लिया जाता है। तर्कशास्त्र में शब्द प्रमाण की प्रभुता को सर्वत्र प्रतिपादित करते फिर रहे हैं स्वनामधन्य, वक्तव्यों के देवता। प्रत्यक्ष या अनुमान भी नतमस्तक हो खड़े हो जाते हैं जब ये देवता उस बारे में अपनी वाणी के स्वर खोल देते हैं। हमारी आस्था भी इतनी परिपक्व हो गयी है कि हमें भी गरीबों की गरीबी में 9 प्रतिशत की वृद्धि दर देख प्रसन्नता होने लगती है।

समाचार पत्रों की विवशता है या पाठकों की रसिकता, कोई भी समाचार बिना वक्तव्य पूरा ही नहीं लगता है। हर सामाचार के अन्त में एक पुछल्ला लगा रहता है वक्तव्यों का, अन्तिम अर्ध्य के रूप में, वक्तव्यों के देवताओं के द्वारा। बिना ‘बाइट’ किसी टेलीविज़नीय समाचार को सत्यता का प्रमाण पत्र नहीं मिलता। जब तक प्रसिद्धिप्राप्त देवगण अपना सौन्दर्यमुखीय व्यक्तित्व कैमरा के सामने प्रदर्शित नहीं कर लेते हैं, समाचार को नैसर्गिक निष्पत्ति नहीं मिल पाती है। तब जो भी शब्द उनके आभामण्डल से टपक जाये, सत्य की संज्ञा से पूर्ण हो जाता है।

भारत वैसे ही देवताओं की विविधता व अधिकता से ग्रस्त और त्रस्त है, उस पर नये दैवीय प्रतीकों का उदय। इस युग में हमारी बुद्धि को विकसित करने का और कोई उपाय मिले न मिले, पर इन वक्तव्यों को समझ सकने का प्रयास बुद्धि के विकास के लिये नितान्त प्रभावी हो सकता है। वक्तव्यों के प्रवाह से जल निकाल कर चर्चा में उड़ेलना और समय पड़ने पर प्रतिद्वन्दी के वक्तव्यों से उसी को भिगो देना बौद्धिक श्रेष्ठता के पर्याय हो गये हैं। देवता समुद्रमंथन में अमरत्व को प्राप्त हो चुके हैं पर ये आधुनिक कुलीन अपने विषवमन करने के गुण से सहस्त्र सर्पों को निष्प्रभ करने की क्षमता रखते हैं।

वक्तव्यों की अधिकता से उनका मूल्य कम होने लगा है। कोई अब उन पर विश्वास ही नहीं करता। चन्द्रकान्ता सन्तति के पात्रों से भी अधिक काल्पनिक हो गयी है उनकी छवि। क्या करें? किसको अवकाश पर भेजा जाये? वक्तव्यों को या उनके देवताओं को?

शब्दों को जीकर दिखलाने वालों के बारे में कब जानेगे हम?

“दुनिया को शास्त्र की भूख नहीं, आस्थापूर्वक की हुई कृति की आवश्यकता है।” – महात्मा गांधी

चित्र साभार – http://www.picturesof.net/