तुलसी वाला राम, सूरदास का श्याम

by प्रवीण पाण्डेय

जितनी बार भी राम का चरित्र पढ़ा है जीवन में, आँखें नम हुयी हैं। कल मेरे राम को घर दे दिया मेरे देशवासियों ने, कृतज्ञतावश पुनः अश्रु बह चले। धार्मिक उन्माद के इस कालखण्ड में भी सदैव ही मेरे राम मुझे दिखते रहे हैं, त्याग में, मर्यादा में, शालीनता में, चारित्रिक मूल्यों में। पृथु(पुत्र जी) के बाल्यकाल में मुझे तुलसी वाले राम और सूरदास के श्याम अभिभूत कर गये थे और लेखनी मुखरित हो चली थी।


मन्त्रमुग्ध मन, कंपित यौवन, सुख, कौतूहल मिश्रित जीवन,
ठुमक ठुमक जब पृथु तुम भागे, पीछे लख फिर ज्यों मुस्काते,
हृद धड़के, ज्यों ज्यों बढ़ते पग, बाँह विहगपख, उड़ जाते नभ,
विस्मृत जगत, हृदय अह्लादित, छन्द उमड़ते, रस आच्छादित।
तेरे मृदुल कलापों से मैं, यदि कविता का हार बनाऊँ,
मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ?
सुन्दर गीतों में बसता जो, बाजत पैजनियों वाला वो,
छन्दों का सौन्दर्य स्रोत बन, तुलसी का जीवनआश्वासन,
अति अनन्द वह दशरथनन्दन, ब्रम्हविदों का मन जिसमें रम,
कोमल सा मुखारविन्दु जो, कौशल्यासुत आकर्षक वो,
कविता का श्रृंगारपूर्णअभिराम कहाँ से लाऊँ?
मन भाये पर, तुलसी वाला राम कहाँ से लाऊँ?
चुपके चुपके मिट्टी खाना, पकड़ गये तो आँख चुराना,
हर भोजन में अर्ध्य तुम्हारा, चोट लगी तो धा कर मारा,
भो भो पीछे दौड़ लगाते, आँख झपा तुम आँख बताते,
कुछ भी यदि मन को भा जाये, दे दो कह उत्पात मचाये,
तेरे प्यारे प्यारे सारे कृत्यों से यदि छन्द बनाऊँ,
मन भाये पर, सूरदास का श्याम कहाँ से लाऊँ?
घुटनहिं फिरे सकल घर आँगन, ब्रजनन्दन को डोरी बाँधन,
दौड़ यशोदा पीछे पीछे, कान्हा सूरदास मन रीझे,
दधि, माखन और दूध चुराये, खात स्वयं, संग गोप खिलाये,
फोड़ गगारी, दौड़त कानन, चढ़त कदम्ब, मचे धमऊधम,
ब्रज के ग्वालग्वालिनों का सुखधाम कहाँ से लाऊँ?
मन भाये पर, सूरदास का श्याम कहाँ से लाऊँ?