21 दिवसीय महाभारत

by प्रवीण पाण्डेय

21 दिन पहले मानसिक ढलान को ठहरा देने का वचन किया था, स्वयं से। वह वचन भी नित दिये जाने वाले प्रवचनों की तरह ही प्रभावहीन निकल गया होता यदि उसमें रॉबिन शर्मा की 21 दिवसीय सुधारात्मक अवधि का उल्लेख न होता। जिस समय 21 दिन वाले नियम का उल्लेख कर रहा था, खटका उसी समय लगा था कि कहीं अपनी गर्दन टाँग रहा हूँ। पहली टिप्पणी से ही पोस्ट का फँसात्मक पहलू उभर उभर कर सामने नाचने लगा। सायं होते होते पूरी तरह से लगने लगा कि प्रवीणजी आप नप चुके हैं, अब या तो 21 दिन बाद अपने वचन पालन न करने का क्षोभ सह लें या परिश्रम कर ससम्मान निकल लें। ब्लॉगजगत तो इसे भूल न पायेगा और पोस्ट तो लिखनी ही पड़ेगी। झूठ बोलना हो नहीं पायेगा क्योंकि वह आने वाली पोस्टों के हर शब्द को कचोटता रहेगा। निश्चय किया कि एक सार्थक प्रयास तो किया ही जा सकता है।
रॉबिन शर्मा
लगभग तीन वर्ष पहले जब रॉबिन शर्मा को पढ़ना प्रारम्भ किया था, उनकी सरल शैली व प्रभावी संदेश-सम्प्रेषण पर मुग्ध था। भारतीय संस्कृति के आधार पर विश्व के प्रखरतम साहित्य को कहानी का रूप प्रदान कर प्रस्तुत कर सकना कोई सरल कार्य नहीं। उनके नायकों के द्वारा शीर्ष पर पहुँचकर भी आध्यात्मिक निर्वात का अनुभव पुस्तकों को प्रथम पृष्ठ से ही रुचिकर बना देता है। युद्धक्षेत्र की जैसी स्थितियों में ज्ञान देने की प्रथा हमारी संस्कृति में पुरानी है। ऐसा ज्ञान समझ में भी बहुत आता है क्योंकि सुख में तो ज्ञान पाने का समय किसी के पास होता ही नहीं है।
उनकी सारी पुस्तकें पढ़ डालीं, विशुद्ध ज्ञान के रूप में। शरीर को तनिक भी पीड़ा देने की बात पर पृष्ठ पलटते पलटते स्वयं के ऊपर एक ऋण सा लगने लगा था। जब 21 दिन पहले स्वयं को घिरा पाया तो रॉबिन शर्मा के ऋण को अपने कर्म से उतारने का भार मेरे निश्चय को गुरुतर बना गया।
रणभेरियाँ बज चुकी थीं। मेरा रण द्वापरयुगीन महाभारत से 3 दिन अधिक का था। न सारथी कृष्ण, न धर्मराज युधिष्ठिर और न ही मेरा अर्जुन समान प्रशिक्षण। सम्मुख क्रूरतम शत्रु, मेरा मन। गीता के दो श्लोकों में इस शत्रु के बारे में जानकर कुछ और विश्लेषण करना शेष नहीं रह गया था। उपाय एक ही था, अभ्यास। हर कार्य उत्साह से करने का अभ्यास, हर कार्य नियमित करने का अभ्यास।
इस अवधि में नियमित शारीरिक श्रम किया। बैडमिन्टन कोर्ट में प्रकाश पादुकोन जैसा खेल न दिखा पाने की झुँझलाहट में मैकनरो जैसा स्वयं पर किया गया क्रोध मेरी आयु भले ही न कम कर पाया हो पर 21 दिनों में मेरे खेल के स्तर को उत्तरोत्तर बढ़ाता गया। बच्चों को अधिकाधिक समय देने से दिल तो सच में बच्चा जैसा अनुभव करने लगा। बिल्लियाँ और कुत्ते मेरे बदलाव से प्रसन्न होने के भाव अपनी मुद्राओं से व्यक्त करने में सक्षम दिखे। तीन फिल्में देखीं और एक पुस्तक पढ़ी। कार्यालय में प्रकल्पों को गति दी और दोनों बच्चों के विद्यालय गया अभिभावक बैठकों में भाग लेने।
दो घटनायें जो मानसिक ढलान को रोक देने की प्रक्रिया में अग्रणी रहीं, मात्र भाग्यवश ही इस अवधि में टकरा गयीं। पहली थी फूलों की प्रदर्शनी जिसमें सपरिवार जाकर मन प्रफुल्लित हो उठा और उनके सौन्दर्य व भाव सम्प्रेषण में कई दिनों तक अटका रहा। मन को सार्थक रूप से उलझा देने से उसके ऋणात्मक पहलू का उभरना कम होने लगता है और वह आपके आनन्द में मगन रहता है। दूसरी थी स्टेज पर जाकर तीन गाने गाने की घटना। वे गाने थे, फूलों के रंग से, ओ हंसिनी और किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार। गाना भले ही इंडियन आईडियल की तरह न गाया हो पर गाया पूरे मन से।
निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी।
विजयोत्सव मनाने का समय नहीं है पर इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है।
धन्यवाद, खूँटी पर टाँगने वाले ब्लॉगर-शुभचिन्तकों को और रॉबिन भाई को।
जय हो।