आँख बन्द करता हूँ और पूछता हूँ स्वयं से कि मैं कहाँ हूँ? मैं कौन हूँ, यह प्रश्न पूछा जा चुका है अतः वह पुनः पूछना कॉपीराइट का उल्लंघन हो सकता था।
अनगूगलीय उत्तर आता ‘तुम इस विश्व के मध्य में हो तात, तुम मध्यमवर्गीय हो‘।
सहसा ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं और सारे विश्व से अपनत्व होने लगता है। दसों दिशाओं में विश्व दिखने लगता है। प्राण में, ज्ञान में, धन में, मन में, श्रम में और हर क्रम में।
बचपन से अभी तक हम सबके नाम से चिपक सा गया है यह शब्द, मध्यमवर्गीय। सहज सा परिचय। इस शब्द को बनाने वाले को भान भी न होगा कि यह शब्द इतना हिट हो जायेगा और सब लोग ही इससे सम्बन्ध रखना चाहेंगे।
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मध्यमवर्गीय, सब प्रकार से |
इस शब्द का प्रथम उपयोग आर्थिक आकलन के लिये हुआ होगा पर यह शब्द अब हमारी मानसिक व बौद्धिक क्षमताओं में साधिकार घुस चुका है। हमारा आर्थिक रूप से मध्यमवर्गीय होना हमें भले न कचोटे पर मानसिक व बौद्धिक मध्यमवर्गीयता हमारे समाज व देश के ऊपर कभी न मिटने वाला धब्बा बनकर चिपका हुआ है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों ने भारतीयों को सदैव ही मानसिक व बौद्धिक क्षमताओं के मुहाने पर खड़ा पाया है। क्या हुआ अब हमें? क्या हमारी सुविधाजनक जीवन शैली हमें मध्यमवर्गीय बने रहने पर विवश कर रही है? हम भीड़ के मध्य खड़े रहने में स्वयं को अधिक सुरक्षित समझते हैं। कोई भी क्षेत्र हो, हम थोड़ा ही आगे बढ़कर संतुष्ट हो जाते हैं। हमें लगता है कि हम लोग को सीमायें निर्धारित करने का दायित्व ईश्वर ने दिया ही नहीं है, वह तो रडयार्ड किपलिंग के आंग्ल-पुरुष का भार है अभी तक।
यह भार-विहीन अस्तित्व कितना सुखदायी है, मध्यमवर्गीय। इस शब्द में पूरा सार छिपा है जीवनचर्या का जो मध्यसागर में हिंडोले लेती रहती मध्य में ही अस्त हो जाती है।
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अब तो फूल रहा है देश का पेट |
कई जगहों पर पढ़ा है कि देश व समाज की दिशा मध्यमवर्गीय ही निर्धारित करते हैं क्योंकि उच्चवर्गीय को समय नहीं है उपभोगों से और निम्नवर्गीय अपने अस्तित्वों के युद्ध में ही उलझे रहते हैं जीवनपर्यन्त। इन दोनों विकारों से मुक्त मध्यमवर्गीय के पास ऊर्जा रहती है समाज के दिशा निर्धारण की। तर्क दमदार है पर जिनको लक्ष्य कर लोग आशाओं में जी रहे हैं, वही राह तक रहे हैं नायकों की। जिनकों नायकों का दायित्व निभाना है वे मध्यमवर्गीय का टैग लगा लखनवी गरिमा का अनुसरण कर रहे हैं।
निष्कर्ष स्पष्ट है समय पटल पर। नायकों का नितान्त आभाव है। अब सत्ता के आसन खाली नहीं रखे जा सकते है तो स्वतः भर रहे हैं। कारण भी स्पष्ट है, हमारी मध्यमवर्गीय मानसिकता व बौद्धिकता।
पहाड़ में बीच ढाल में बैठे देखा है किसी को? तो आप वहाँ पर सुस्ता रहे हैं, क्षणिक या वहीं टिके रहना चाहते हैं, शाश्वत। टिके रहने की सोची तो लुढ़क जायेंगे नीचे, पता भी नहीं चलेगा और अस्तित्व के परखच्चे उड़ जायेंगे। ऊपर बढ़ते जाइये, वहीं पर स्थायित्व है। मध्यमवर्गीयता अर्थक्षेत्र में रहने दें, मन और बुद्धि में रख कर अनर्थ न करें।
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Aapki rachana padh kar laga ki shayad hamare saath bhi yahi ho raha hai. Ek surakshit jeevan pa kar apane jeevan ka lakshya ko bhool gaye, Apani khamataon ko bhool gaye. Bahut bahut dhnyavaad apani rachana ke dwara fir se urza ka sanchar karane ke liye. Aap hamare marg darshak hai.
हमारी मध्यमवर्गीय मानसिकता व बौद्धिकता- इससे उबरें तो आगे बढ़ें. मगर समझौतावदी प्रवृति आराम देती है..आरामभोगी मानसिकता को यह सुहाता है.बहुत गहन चिन्तन है. अच्छा लगा डूबना. मगर फिर वहीं आरामवादी मानसिकता- डूबे, नहाये, धोये और निकल कर सुस्ताने लगे. 🙂
बहुत अच्छी प्रस्तुति।शैली, कहने में,… अनूठे, दूसरों से भिन्न !
लीजिये टिप्पणी का एक मध्यमार्ग सूझा भी तो आपने महात्मा बुद्ध का हवाला देकर उसे रोक दिया -तथापि मुझे लगता है मध्यमार्ग और मध्यमवर्गीय जीवन में बहुत साम्य है बल्कि वे अन्योनाश्रित भी हैं ..बहरहाल …एक मध्य वयी चर्चा अन्यत्र भी है !
हमारी तो सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है, अवचेतन में कहीं मध्यमवर्गीय होना ऐसा गहरे बैठा है कि पहाड़ के शिखर पर भी पहुंच जायेंगे कभी तो खुद को ढाल के बीच में बैठा महसूस करेंगे।आपने बहुत अच्छा लिखा है, प्रेरित होने वाले जरूर प्रेरित होंगे। हम तो ठहरे पक्के मध्यमवर्गीय, देखी जायेगी 🙂
आप तो कितना चिंतन करते रहते हैं…________________________'पाखी की दुनिया ' में बारिश और रेनकोट…Rain-Rain go away..
रचना आर्थिक विषमता के जहरीले प्रभाव को व्यक्त करने के उद्देश्य से लिखी गई हैं। पूँजी पर टिके हुए किसी समाज में पूँजी आदमी और आदमी के बीच एक बड़ी दीवार के रूप में खड़ी हो जाती है। जिनके पास पैसे हैं, वे दुनिया की हर अच्छाई को वरण कर सकते हैं, वे दुनिया की हर खूबसूरत वस्तु का उपभोग कर सकते हैं, वे देश और दुनिया को अपने इशारे पर नचा सकते हैं और तथाकथित स्वर्ग का सुख इस धरती पर ही हासिल कर सकते हैं। इसके विपरीत, जिनके पास पैसे नहीं है, उन्हें हर जगह ठोकरें खानी पड़ती हैं, उनकी जिंदगी रेगिस्तान में बदल जाती है। मामूली चीजें भी उन्हें बड़ी मुश्किल से नसीब होती हैं, उन्हें वह जिंदगी भी मयस्सर नहीं होती, जो बड़े लोगों के कुत्तों को मयस्सर होती है।
आज का मध्यम वर्ग दो हिस्सों में (काफी स्पष्ट विभाजनों सहित) बंट चुका है – निम्न और उच्च मध्यम वर्ग. इस लेख को इन दोनों वर्गों के हिसाब से समायोजित करके देखा जायेगा तो अच्छा आंकलन प्रस्तुत होगा. वैसे आपने अच्छा लिखा है.
दार्शनिक चिंतन. ये पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं "इस शब्द का प्रथम उपयोग आर्थिक आकलन के लिये हुआ होगा पर यह शब्द अब हमारी मानसिक व बौद्धिक क्षमताओं में साधिकार घुस चुका है। हमारा आर्थिक रूप से मध्यमवर्गीय होना हमें भले न कचोटे पर मानसिक व बौद्धिक मध्यमवर्गीयता हमारे समाज व देश के ऊपर कभी न मिटने वाला धब्बा बनकर चिपका हुआ है।"सच में हम मध्यवर्गीय मानसिकता से उबार ही नहीं पा रहे हैं.
"बुद्ध किसी भी पथ में अति न करने की सलाह देते हैं, गति न करने की नहीं।" बहुत ही बढ़िया आलेख. बुद्धत्व के समीप ही हैं.
आर्थिक रूप से तो मध्यमवर्गीय रेखा पार करना कोई कठिन नहीं….पर मध्यमवर्गीय सोच तो ऐसे अंगद के पाँव जैसी जड़ जमा के बैठ गयी है…कि बदलने को तैयार ही नहीं.और ये Happy -Go-Lucky attitude….आगे बढ़ने नहीं देता…इसीलिए आजकल असली हीरो की इतनी कमी है हमारे देश में…युवापीढ़ी के लिए कोई रोल-मॉडल ही नहीं है,किसका अनुकरण करे समझ ही नहीं पा रही.
"मानसिक व बौद्धिक मध्यमवर्गीयता हमारे समाज व देश के ऊपर कभी न मिटने वाला धब्बा बनकर चिपका हुआ है"शायद यही फर्क है..
बेहद गहन चिन्तन का नतीजा है ये आलेख और बहुत ही सुन्दरता से सवाल उठाया है और हल भी सुझाया है फिर भी ये सोच सब पर हावी रहती है इसके चक्रव्यूह से निकलना इतना आसान कहाँ है।
मुझे याद है… जिम्मी शेरगिल की बहन मेरे साथ पढ़ती थी… उसका जब भी किसी से झगडा होता था…. तो वो यही कहती थी… कि तुम लोग मिडल क्लास हो… एक बार मैंने उससे पूछा …. कि इसका मतलब क्या होता है… बेचारी आज तक नहीं बता पाई… अभी कोई दो साल पहले वो ऑस्ट्रेलिया से आई थी… तो भी उसको ऐसे ही छेड़ते हुए मैंने पूछा था… कि अब तो बता दो कि इसका मतलब क्या होता है… सच कहूँ…. तो आज तक इस शब्द को कोई डिफाइन ही नहीं कर पाया है… यह सिर्फ बोलने के लिए बोला जाता है… क्यूंकि जो क्लास बारगेनिंग नहीं करता … ऑटो में नहीं सफ़र करता… ट्रेन के स्लीपर क्लास में नहीं सफ़र करता… दाल -चावल व रोटी नहीं खाता… एयर-कंडीशन में रहता हो… ज़ोर से चिल्ला के नहीं बात करता हो… हँसता भी मुँह दबा कर हो… जो पैसे को खर्च करने से पहले सोचता ना हो… तो.. ऐसा क्लास उन क्लास को छोटा कहता है जो उनके जैसा नहीं करते… वही क्लास मिडल क्लास कहलाता है… इकोनोमिक्स कहता है कि वो सोसाइटी डेवलप ही नहीं कर सकती जिसमें मिडल क्लास ना हो… और मिडल क्लास पूरी दुनिया में है… फर्क यह है कि … हिंदुस्तान को छोड़ कर …..बाकी सब जगह बेसिक नैसेसिटीज़ की फैसिलिटी है… बहुत ज़बरदस्त आर्टिकल …. ऐसे आर्टिकल कुछ लिखने को मजबूर करते हैं…. नहीं तो … रूटीन चीज़ें लिख लिख कर हाथों में बोरियत आ जाती है… वैसे मैं एक बात कहना चाहूँगा … कि मुझे ना गरीब और गरीबों से सख्त नफरत है… क्यूंकि इन्सान गरीब सिर्फ और सिर्फ अपने कर्मों से होता है… उसे उपरवाला गरीब नहीं पैदा करता… और मिडल क्लास को गरीब नहीं कहा जा सकता… प्लानिंग कमीशन ने तो मिडल क्लास उन लोगों को कहा है… जिनकी सालाना इनकम एक करोड़ तक की हो…. बताइए है ना कितना बड़ा मज़ाक…. इसे कहते हैं… इंटेलेक्चुयल आर्टिकल …
निष्कर्ष स्पष्ट है समय पटल पर। नायकों का नितान्त आभाव है। अब सत्ता के आसन खाली नहीं रखे जा सकते है तो स्वतः भर रहे हैं। कारण भी स्पष्ट है, हमारी मध्यमवर्गीय मानसिकता व बौद्धिकतागहन चिंतन ..सार्थक लेखन .आर्थिक रूप से तो उबार जायेंगे हम मध्यवर्ग से पर सोच का क्या …अब इसी में सुकून मिल जाता है .
'हम भीड़ के मध्य खड़े रहने में स्वयं को अधिक सुरक्षित समझते हैं। कोई भी क्षेत्र हो, हम थोड़ा ही आगे बढ़कर संतुष्ट हो जाते हैं। हमें लगता है कि हम लोग को सीमायें निर्धारित करने का दायित्व ईश्वर ने दिया ही नहीं है,' – मध्यवर्गीय मानसिकता का सही आकलन.
भार-विहीन अस्तित्व कितना सुखदायी है, मध्यमवर्गीय। इस शब्द में पूरा सार छिपा है चिन्तनपरक पोस्ट है। हमे अपने व्यक्तितव के बारे मे सोचने पर् मजबूर करती है। जब तक हम इस सोच से नही उबरेंगे तब तक तरक्की नही कर सकते। धन्यवाद।
आपके गहन चिंतन में कुछ हम भी गहनता में डूब गए…सच कहा आपने इन दोनों विकारों से मुक्त मध्यमवर्गीय के पास ऊर्जा रहती है समाज के दिशा निर्धारण की। तर्क दमदार है पर जिनको लक्ष्य कर लोग आशाओं में जी रहे हैं, वही राह तक रहे हैं नायकों की। जिनकों नायकों का दायित्व निभाना है वे मध्यमवर्गीय का टैग लगा लखनवी गरिमा का अनुसरण कर रहे हैं।दार्शनिक चिंतन . अच्छा लेख.
मध्यमवर्ग मे भी वर्ग हो गये है निम्न ,मध्यम,उच्च मध्यम्वर्गीय
…"पहाड़ में बीच ढाल में बैठे देखा है किसी को? तो आप वहाँ पर सुस्ता रहे हैं, क्षणिक या वहीं टिके रहना चाहते हैं, शाश्वत। टिके रहने की सोची तो लुढ़क जायेंगे नीचे, पता भी नहीं चलेगा और अस्तित्व के परखच्चे उड़ जायेंगे। ऊपर बढ़ते जाइये, वहीं पर स्थायित्व है। मध्यमवर्गीयता अर्थक्षेत्र में रहने दें, मन और बुद्धि में रख कर अनर्थ न करें। मध्यमवर्गीय उपमान बुद्ध के मध्यमार्गी उपासना से मिलता जुलता लग सकता है पर है नहीं। बुद्ध किसी भी पथ में अति न करने की सलाह देते हैं, गति न करने की नहीं।"देव, बहुत ही सार्थक व गहन प्रेक्षण है आपका… पर क्या किया जाये… हम Mediocrity को Celebrate करता एक Mediocre समाज बन बैठे हैं… यह बात बहुत परेशान करती है परंतु सबसे भयावह बात यह है कि आगे आने वाली पीढ़ियों के लिये आज हर क्षेत्र में शिखर पर विराजे Mediocre नायक ही कल श्रेष्ठता का मानक बन जायेंगे…Strive for perfection in everything … never settle for anything lesser than the best!यह ध्येय वाक्य बनाना होगा देश को!आभार!…
@ Poojaमध्यमवर्गीयता की प्रक्रिया संभवतः अपने ऊपर घटते देखी है। अगर यह चोला फेकना है तो सर्वप्रथम मौलिक सोचना पड़ेगा, भीड़ से हट कर, स्वयं पर लागू होता सा कुछ।@ Udan Tashtariआराम निसन्देह सुहाता है पर कुछ समय बाद आराम से भी व्यथा होने लगती है यदि आदत न पड़ जाये।@ हास्यफुहारकथा हम सबकी है पर।@ Arvind Mishra हर विश्रामरत स्वयं को चिन्तनरत बुद्ध समझने लगेगा तो गति भी नहीं आयेगी।@ मो सम कौन ?एक शिखर पर चढ़ने से अन्य शिखर दिखने लगते हैं।
@ Akshita (Pakhi) हम भी बारिश में छप छप मस्ती करते हैं।@ मनोज कुमार आपका कहना सच है। अर्थ पर टिकी सभ्यता की सबसे पहली क्षति होती है, बौद्धिकता। धन से चिन्तन होता है, ज्ञान से नहीं। @ Saurabhसच कह रहे हैं, गहरे जायेंगे तो और विविधता दिखेगी।@ muktiप्लावित भय और संप्लावित सुरक्षा हमें इतना भारी बना देते हैं कि हम हिल तक नहीं पाते हैं जीवनपर्यन्त।@ P.N. Subramanian हम तो गतिमय हो गये।
aapki lkhani atulniy hai.aapka ye gahan chintan is baat ka pramaan hai. poonam
@ rashmi ravijaसच कह रही हैं, यही कारण है कि कुछ आर्थिक सम्पन्न जीवनभर मध्यमवर्गीय मानसिकता के रहते हैं।@ रंजन बाद में तो यह फर्क कचोटता भी नहीं है।@ वन्दना सबका अपना चक्रव्यूह है। सामूहिक सुख या सामूहिक दुख नाम की कोई स्थिति नहीं है।@ महफूज़ अलीशब्द को परिभाषित करना कठिन है पर जीने से कुछ दिनों बाद ही अकुलाहट होने लगती है। भारत व अन्य जगहों को अन्तर भी तीखा सच है।@ shikha varshneyहमारी आँखें सदैव किसी महान पुरुष को ढूढ़ती रहती हैं जो आये और नेतृत्व करे।
@ hempandey हमारी सुरक्षित जीवनशैली अगली पीढ़ियों के लिये वेदनामय हो सकती है।@ निर्मला कपिला इस प्रकार हल्के रहते रहते सारा विश्व हमें हल्का लेने लगा है।@ अनामिका की सदायें …… सब एक दूसरे को निहार रहे हैं। क्या होगा?@ dhiru singh {धीरू सिंह}हाँ, इन तीनों की अपनी अलग कहानी है।@ प्रवीण शाहसबसे बड़ा खतरा तो यही है कि मानक दूषित हो जायेंगे, महानता के।
प्रवीण भाई,आपकी इस पोस्ट के बारे में यही कहना उचित होगा कि यह एक उच्चस्तरीय “मध्यमवर्गीय” रचना है… उद्वेलित करती, झकझोरती और मध्यवर्गीय दोगली और निम्नस्तरीय मानसिकता को कोसती हुई… हमारे परिचित, इनसे हम लोगों का परिचय करवाने ही वाले हैं, श्री पायाति चरक के शब्दों में भाण्डिया (भारत + इण्डिया) के भाण्ड… न इधर भारत के न उधर इण्डिया के…
ये सब सोच और एटीट्यूड के ऊपर निर्भर है कि हम अपने आप को कहाँ पाते हैं. योगी जिसने कुण्डलिनी पर विजय पाली है वो अपने आपको किस वर्ग में रखेगा ??ये सब hypothetical theories हैं , असल है कर्म और हमारा अनवरत चलते रहना …वैसे मीडियोकर तो हमेशा बीच में ही लटका रहता है …मन की संतुष्टि के लिए बोल लो कि मीडियोकर दुनिया की डिमांड को ड्राईव करता हैमुझे तो ये लगता है कि आदमी चाहे विश्वामित्र बन जाये, बाल्मीकि बन जाए या फिर अम्बानी और गंगू तेली या राजा भोज — सीखने की, आगे जाने की और खुद को औरो से हीँ समझाने कि कुंठा कभी खत्म नहीं होती और इस हिसाब से तो हम सब और वो सब (तथाकथित उच्च वर्ग) मध्य में ही रहे न …..सबसे ऊपर तो एक ही है ईश्वर , नीचे जमीन और पानी …बीच में हैं आदमी !!! चाहे कहीं भी बसे और किसी भी रंग का हो …
सही कहा कि "हाँ बस यहीं ठीक है" दसों दिशाओं, सात लोकों, भूत और भविष्य के बीच, हम जहाँ हैं वहीं ठीक हैं। वैसे भी इस अनंत ब्रह्माण्ड में दम लगाकर जितना चाहे हिल लें, रहेंगे इसके मध्य में ही।
गहन चिन्तन है…बहुत अच्छा लिखा है…
सब ने सब कुछ कह दिया सर…हम क्या कहें…अर्थपूर्ण टिपण्णी देने में थोड़े कमज़ोर हैं हम…पर आपकी सारी बात बहुत सही है 🙂
एक और शब्द है मीडिऑकर जो बौध्दिक मध्यवर्गता को ही दर्शाता है । कहीं मध्यम होते होते हम यही तो नही हो गये हैं । हमें जरूरत है अपना इतिहास और भूगोल पढने की जानने की तथा औरों का भी ।
@ JHAROKHA आपका बहुत धन्यवाद। जो देखा बचपन से अब तक, वह लिख दिया।@ सम्वेदना के स्वरआपके भाण्डिया शब्द में हमारी मानसिकता का सार छिपा है।@ राम त्यागी मीडियॉकर की लटकन को सारी कम्पनियाँ भुनाने के प्रयास में रहती हैं। आपका अवलोकन सच है।@ Smart Indian – स्मार्ट इंडियनमध्य में रहने का सबसे अधिक सुख तो वर्तमान में ही है।@ महेन्द्र मिश्रबहुत धन्यवाद उत्साहवर्धन का।
@ abhi आप इसमें भी मध्यमार्गी मार्ग पकड़ लिये।@ Mrs. Asha Joglekar दुख तो इसी बात का है कि यह परिवर्तन पता नहीं चलता है।
वैसे यह अजीब बात लगती है मुझे कि सारे व्यवहारिक बातें, प्रवचन, लेखन यह कहते हैं कि कभी भी कोई चीज के लिए आर पार वाला फैसला लेना चाहिए….बीचो बीच या अनिर्णय की स्थिति विनाशकारी होती है….लेकिन इस मध्यमवर्ग की विशाल संख्या को देखते हुए लगता नहीं कि इन बातों या मान्यताओ का पालन किया जाता होगा…अन्यथा ज्यादातर लोग उच्च वर्ग या बेहद निम्न वर्ग में होते….इतनी बड़ी संख्या तो मध्यमवर्गियो की न होती 🙂 'मैंगो पीपल' पर बढ़िया चिंतन।
आप की रचना 30 जुलाई, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.http://charchamanch.blogspot.com आभार अनामिका
bahut prabhavshali post…aur बुद्ध किसी भी पथ में अति न करने की सलाह देते हैं, गति न करने की नहीं।" in panktiyo me pura saar nazar aa gya…
अपने धर्म में मध्यम मार्ग को उत्तम मार्ग ठहराया गया है,परन्तु अर्थवेत्ताओं द्वारा माध्यम वर्ग की जो स्थिति बताई गयी है…एक तरह से निचोड़ रूप में कहें तो उसे " कहीं का नहीं" ठहराया गया है.. उपरोक्त दोनों ही बातें सही लगती हैं मुझे तो…सिद्ध हुआ न कि हम मध्यमवर्गीय हैं…हर प्रकार से कन्फ्यूज्ड ….
बहुत खूब लिखा है | वैसे हमें उच्च वर्ग वाले तो कभी मिले ही नहीं जो भी मिले है मध्यवर्ग वाले ही मिले है |
@ सतीश पंचमयदि गति हो बढ़ने की तो नयापन बना रहता है जीवन में, समाज में, देश में।@ अनामिका की सदायें ……बहुत बहुत धन्यवाद इस सम्मान के लिये।@ शुभम जैनकदाचित यही अन्तर हो बुद्ध और बुद्धू में।@ रंजनाकभी कभी सबको साधने के लिये औरों के मतों से सहमत होना पड़ता है पर यही नियति बन जाना तो मानसिक गति के लिये उपयुक्त न हो संभवतः।@ नरेश सिह राठौड़हमारा भी सम्पर्क मध्यमवर्ग से ही रहा है अधिकतर।
गज़ब बात कर दिए आप….और यहाँ लोगों को दुखी देख कर हम भी सोचने लगे कि क्या वास्तव में 'मिडियोकर' मानसिकता की बहुतायत है…आज जो 'मिडियोकर' है वह बीते दिनों में , उच्च श्रेणी की मानसिकता मानी जाती थी….हम सभी, न सिर्फ आर्थिक रूप से परन्तु मानसिक रूप से भी अपने पूर्वजों से ज्यादा प्रबुद्ध होते गए हैं…हाँ दिनों दिन 'मध्यवर्गीय मानसिकता ' का मानक भी छलांग लगा रहा है….उसका standard बढ़ रहा है….उसके साथ हम ताल मिला कर चल रहे हैं ..यह अच्छी बात है….फिर हीरो की ज़रुरत किसे है…अपने जीवन का हीरो खुद बनिए….मैं किसी के जैसा,या किसी के बताये रास्ते पर क्यूँ चलूँ …जब मुझमें इतनी काबिलियत है कि मैं खुद अपना रास्ता बना सकूँ….कुछ लोग होंगे जो विशुद्ध मध्यवर्गीय मानसिकता के होंगे तो …वो झूलते हुए मिलेंगे ''घर और घाट के बीच…."हाँ नहीं तो…!!
@ 'अदा' एक गलती हो गयी हमसे। पोस्ट का नाम रखना था, मध्यमवर्गीय, हाँ नहीं तो
Very Interesting! Thank You!